— अरुण कुमार त्रिपाठी —
मुक्तिबोध अपनी प्रसिद्ध कविता ‘अंधेरे में’ लिखते हैं —
गहन मृतात्माएं इसी नगर की
हर रात जुलूस में चलतीं
परंतु, दिन में
बैठती हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र
विभिन्न दफ्तरों कार्यालयों केंद्रों में घरों में
हाय हाय मैंने उन्हें देख लिया नंगा
इसकी मुझे और सजा मिलेगी
पेगासस जासूसी कांड के उजागर होने के साथ भारत में तीन तरह की प्रतिक्रियाएं हुई हैं। एक ओर इस देश का लोकतांत्रिक रूप से जागरूक वर्ग गुस्से में है और वह चाहता है कि भारतीय लोकतंत्र की संस्थाएं, उसके नागरिक और राजनीतिक दल ऐसा करनेवाली सरकार के विरुद्ध मोर्चा खोलें और उसे अपनी गलती मानने और सजा झेलने को बाध्य कर दें। क्योंकि यह जनता के टैक्स से किया गया अपव्यय ही नहीं, डराने और दमन करने की कार्रवाई है। दूसरी ओर ऐसे लोग हैं जो इस घटना से बेहद भयभीत हैं और अपने अपने दायरे में और भी खामोश हो गए हैं। उन्हें सचमुच डर है कि – हाय हाय मैंने उन्हें देख लिया नंगा, इसकी मुझे और सजा मिलेगी।
लेकिन इस देश में एक तीसरा वर्ग भी है जो शासक दल के साथ है और मानता है कि यह सब हमेशा से होता आया है और इसमें कोई नई बात नहीं है। वह दरअसल न तो संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों में अधिक विश्वास करता है और न ही निजता के अधिकार में। वह मानता है कि जो सरकार दे दे वही मौलिक अधिकार है। यह वर्ग बड़ा है। उसी के भरोसे पर शासक वर्ग ने कहना शुरू कर दिया है कि यह विदेशी ताकतों की साजिश है देश को अस्थिर करने की। विपक्ष नकारात्मक माहौल बनाना चाहता है और देश में अराजकता फैलाना चाहता है। विदेशी ताकतें नहीं चाहतीं कि देश का विकास हो।
पेगासस जासूसी कांड का वैसे तो अंतरराष्ट्रीय विस्तार है और दुनिया के 17 मीडिया संस्थानों और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने मिलकर इस कांड को जिस तरह से उजागर किया है उससे यह निष्कर्ष जरूर निकलता है कि इंसानी आजादी और निजता पर सरकारों और प्रौद्योगिकी के कसते शिकंजे के बावजूद सिरफिरों की जमात अभी जिंदा है और वह इस तरह की कोशिशों का पर्दाफाश करती रहेगी। अगर इजराइल की कंपनी एनएसओ आतंकियों और अपराधियों की जासूसी के लिए बनाए गए प्रोग्राम पेगासस को दुनिया के तानाशाहों को दुरुपयोग के लिए बेच सकती है तो उसके विरुद्ध जागरूक संगठन उसे बेपर्दा भी कर सकते हैं। सवाल यह है कि राज्य और नागरिकों की सुरक्षा के लिए विकसित इस प्रौद्योगिकी के दुरुपयोग पर इजराइल स्वयं रोक लगाएगा या उसके विरुद्ध हर देश को कानून बनाना होगा? यह काम प्रौद्योगिकी से होगा, मनुष्य की नैतिकता से होगा या कानून से? विश्व जनमत इन सवालों से जूझने लगा है। फ्रांस ने तो अपने देश में मोरक्को की ओर से की गयी जासूसी की जांच के आदेश भी दे दिए हैं।
लेकिन असली सवाल भारत के शासक वर्ग के व्यवहार और यहां के लोकतंत्र का है। इसका मतलब यह नहीं कि जो बातें पेगासस प्रोजेक्ट ने बतायी हैं वे सत्ता के गलियारों में घूमनेवाले लोगों को मालूम नहीं थीं। लेकिन पेगासस ने उसका एक और प्रमाण दे दिया है। पेगासस की जासूसी में सबसे ज्यादा दहला देनेवाला तथ्य है भारत के पूर्व न्यायाधीश रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगानेवाली महिला के परिवारवालों के फोन में पेगासस के माध्यम से जासूसी।
यह घटना इस बात का संकेत है कि न्यायपालिका के महत्त्वपूर्ण फैसले प्रभावित किये गये हैं इस जासूसी के माध्यम से। यानी उसकी स्वायत्तता से समझौता किया गया है। दूसरा महत्त्वपूर्ण मामला है पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा के फोन की जासूसी का। अशोक लवासा वे अधिकारी हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार के दौरान आचार संहिता के उल्लंघन पर कार्रवाई का सुझाव दिया था।
उसके बाद जासूसी के कई मामले हैं जिनमें कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी की जासूसी, तृणमूल कांग्रेस के नेता अभिषेक बनर्जी की जासूसी, राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर की जासूसी और फिर कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल (सेकुलर) की सरकार गिराने के लिए सिद्धरमैया और दूसरे नेताओं की जासूसी शामिल है। जासूसी का यह सिलसिला भाजपा के अपने नेता प्रहलाद पटेल और नए सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव तक जाता है। पत्रकारों में यह मामला सिद्धार्थ वरदराजन, रोहिणी सिंह, सुशांत सिंह, प्रियंका चतुर्वेदी, प्रांजयगुहा ठाकुरता वगैरह तक पहुंचता है। भारत में ऐसे तीन सौ लोग बताए जा रहे हैं जिनके फोन में या तो पेगासस ने घुसपैठ की या फिर उनका नाम उस सूची में था जिनकी जासूसी की जानी थी।
विशेष बात यह है कि इस मामले को उजागर करनेवाली संस्था इंटरनेशनल कनसार्टियम ऑफ जर्नलिस्ट है जिसमें गार्डियन, वाशिंगटन पोस्ट, ला मांदे, वायर जैसे महत्त्वपूर्ण और विश्वसनीय संगठन शामिल हैं। इसके बावजूद भारत सरकार और उसके अधिकारी इसपर साफ तौर पर कुछ भी कहने के बजाय कांग्रेस को झूठी पार्टी बताकर उसके विरुद्ध धर्मयुद्ध छेड़ने को तैयार हैं।
सरकार न तो पेगासस को खरीदने की बात स्वीकार कर रही है और न ही उससे इनकार कर रही है। उसकी गति सांप छछूंदर वाली हो गई है। वह हां कहती है तो फंसती है और न कहती है तो फंसती है।
हालांकि मौजूदा शासक वर्ग के नेता अपने बयानों से स्वीकार भी करते जा रहे हैं। पूर्व आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद कहते हैं कि जब पेगासस ने 45 देशों में जासूसी की तो सिर्फ भारत को क्यों निशाने पर लिया जा रहा है। दूसरी ओर पश्चिम बंगाल के भाजपा नेता शुभेंदु अधिकारी यह कहते हैं कि हमारे पास तृणमूल कांग्रेस के नेताओं के गोपनीय आदेश के टेप हैं तो वे भी परोक्ष रूप से इसे स्वीकार करते नजर आते हैं।
अगर दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश अमरीका से तुलना करें तो वहां के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन द्वारा विपक्षी नेताओं की मीटिंग को रिकार्ड करने की घटना इतनी बड़ी हो गई कि उसपर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। 1972 से 1974 के बीच घटी वाटरगेट कांड की घटना ने अमरीकी लोकतंत्र को झकझोर कर रख दिया था। उससे भी बचने की निक्सन ने काफी कोशिश की थी लेकिन मीडिया, न्यायपालिका और विधायिका ने उन्हें जमकर घेरा और आखिरकार उन्हें इस्तीफा देना ही पड़ा। अमरीकी लोकतंत्र ने हाल में काले नागरिक लायड की हत्या के मामले में भी पूरे देश को जगा दिया था। भारत में वैसी उम्मीद लगती नहीं।
यहां जासूसी कांड के उजागर होने और उसके बाद सत्तारूढ़ दल के आक्रामक होने के बाद व्यवस्था के भीतर और बाहर एक प्रकार का डर का माहौल है।
संभव है कि कांग्रेस पार्टी, एनसीपी, कम्युनिस्ट पार्टियां और तृणमूल कांग्रेस इसपर कुछ समय तक आंदोलन करें लेकिन बाकी क्षेत्रीय दल इसपर मौन रहना ही बेहतर समझेंगे। रही मीडिया की बात तो उसका एक छोटा हिस्सा ही इस बारे में सक्रिय है। बाकी अखबारों और चैनलों में ऐसा सन्नाटा छाया है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। यहां मुहिब वलीउल्लाह का वह शेर याद आता है –
हर घड़ी वहम में गुजरे हैं नए अखबारात
तेरे कूचे में गुमां अपना हो जासूस कोई।
जहां तक न्यायपालिका का सवाल है तो मौजूदा मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की सक्रियता से थोड़ी उम्मीद बनती है लेकिन वे किसी जांच का आदेश देंगे या सुप्रीम कोर्ट की घटना पर कोई संज्ञान लेंगे लगता नहीं। विपक्ष संयुक्त संसदीय समिति द्वारा जांच की मांग कर रहा है लेकिन वर्तमान सरकार वैसा कुछ करेगी इसकी उम्मीद बहुत कम है। अगर कर भी दे तो इससे पहले बोफर्स और हवाला कांड पर जेपीसी से क्या निकला है जो इस मामले में कुछ निकलेगा!
भारतीय लोकतंत्र की मौजूदा स्थिति पर पत्रकार अजय शुक्ला ने करण थापर को दिए इंटरव्यू में सही ही कहा है कि भारतीय लोकतंत्र और जर्मनी के थर्ड रीक में समानताएं निरंतर बढ़ रही हैं।
जब उनसे आपातकाल और मौजूदा स्थिति से तुलना करने को कहा गया तो उनका कहना था कि इंदिरा गांधी इतनी निर्भीक थीं कि उन्होंने आपातकाल घोषित करने का साहस किया और उससे देश 19 महीनों में उबर गया लेकिन देश सात सालों से जिस स्थिति में है उसमें तो बिना घोषणा के ही वैसी स्थितियां बनी हुई हैं। इन हालात से देश कब निकल पाएगा कहा नहीं जा सकता।
यहां गांधी के जीवन के कुछ प्रेरक प्रसंग जरूर सुझाए जा सकते हैं। वे सत्य के अन्वेषी थे और चंपारण सत्याग्रह से लेकर अपने आखिरी आंदोलन की तैयारी तक सरकार से कुछ छुपाते नहीं थे। बल्कि चंपारण में सीआईडी वालों को अपने लोगों के बीच बैठने देते थे। इस समय देश में जो लोग लोकतंत्र और सत्य की लड़ाई लड़ना चाहते हैं उनके पास छुपाने के लिए कुछ होना नहीं चाहिए। उनके भीतर इतना नैतिक साहस होना चाहिए कि असत्य के मार्ग पर चलनेवाली सरकार को वे सत्य का अर्थ बता सकें।