— देवेन्द्र मोहन —
कोई पचास-पचपन साल पहले अंग्रेजी फिल्म पत्रिका ‘फिल्मफेयर’ में दिलीप कुमार की एक रंगीन तस्वीर छपी थी : लंदन की किसी बस में पिछली सीट पर विराजमान – गैंगवे के बीच से ली गयी तस्वीर – एक मोटी किताब में ध्यानमग्न अभिनेता। तस्वीर बेहद खूबसूरत थी और छायाकार थे अपने समय के स्टार फोटोग्राफर जितेन्द्र आर्य, जिनका खुद मुंबई में आलीशान फ्लैट तो था ही, लंदन में भी बड़ा सुंदर मकान था।
उस तस्वीर की खास बात थी वह किताब, जिसे खोलकर यूसुफ़ मियां इतनी तन्मयता से पढ़ रहे थे। किताब के नाम का तो ध्यान नहीं पर शायद किसी बड़े अंग्रेज लेखक की ही थी।
हाल में दिलीप कुमार के इंतक़ाल के बाद ही से दिलीप कुमार ‘विशेषज्ञों’ का सैलाब ही आ गया। अपने लिखने-लिखाने के इन पचास-पचपन सालों में मेरी दिलीप कुमार से कई छोटी-बड़ी मुलाकातें रही हैं – कुछ बेहद मुख़्तसर ‘हलो’, ‘नमस्ते’, ‘आदाब’, ‘आप कैसे हैं ?’ किस्म की और दो-तीन लंबी मुलाकातें जो लिखी गयीं और जिनमें वे हमेशा किताबों की संगत में नज़र आए। दिलीप कुमार के पुस्तक प्रेम के बारे में शायद ही किसी ने कुछ लिखा।
मुहम्मद यूसुफ़ सरवर ख़ान उर्फ दिलीप कुमार की कॉलेजी शिक्षा का इतिहास कुछ धूमिल है। शायद चौपाटी, मुंबई स्थित विलसन कॉलेज में एकाध साल पढ़ाई की थी। परिवार की आर्थिक अवस्था की बेहतरी के लिए कुछ रास्ता ढूंढ़ना पड़ा और एक सैंडविच के व्यवसाय के जरिये कुछ आमदनी भी होने लगी।
उनके पुराने जाननेवालों में से एक, हनीफ़ शकूर, बताते थे कि दक्षिण मुंबई में रहने के कारण और अंग्रेजी जानने के कारण यूसुफ ख़ान को अंग्रेजी कथा साहित्य की काफी जानकारी थी। कई पुस्तक की दुकान वालों से अच्छी जान-पहचान और मित्रता भी थी। अभिनेता बनने से पहले वे इन दुकानों के खूब चक्कर लगाते और नयी-नयी किताबों के बारे में जानकारियां लेते।
अंजुमन इस्लामिया स्कूल का छात्र होने की वजह से उनकी उर्दू भी बहुत अच्छी थी। उन्होंने ग़ालिब, मीर, ज़ौक, मोमीन, इकबाल को खूब पढ़ा था और बाद की पीढ़ी के फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से अच्छी वाबस्तगी बनायी थी।
अनंतर जब वे बांग्लाभाषी निर्माता-निर्देशकों की फिल्मों में काम करने लगे तो लगातार बांग्ला साहित्य की कृतियों की जानकारी लेने लगे। बाद के सालों में उन्होंने हिंदी साहित्य के बारे में भी रुचि दिखानी शुरू की। हिंदी पढ़ने में गति नहीं थी लेकिन प्रेमचंद, भगवतीचरण वर्मा, प्रदीप, पंडित नरेंद्र शर्मा, और अन्य कई रचनाकारों की कृतियों के बारे में उन्हें अच्छी जानकारी थी। मंटो की रचनाएं उन्होंने बाद में पढ़ीं लेकिन राजिंदर सिंह बेदी, कृश्नचंदर, अहमद नदीम कासिमी, अब्दुल्ला हुसैन, कुर्रतुल ऐन हैदर को बाक़ायदा पढ़ा।
हिंदी फिल्म क्षेत्र में मोतीलाल, अशोक कुमार, देव आनंद तथा भारत भूषण जैसे अभिनेता रहे हैं जो अच्छी पुस्तकें पढ़ने के शौकीन थे। इनमें भारत भूषण की पुस्तकों में गहरी दिलचस्पी थी। जब भी दिलीप और भारत मिलते तो हालचाल पूछने के अलावा एक मुख्य प्रश्न होता था : “क्या पढ़ा जा रहा है आजकल?”
अभिनेता प्राण को भी शेरो-शायरी पढ़ने का बेहद शौक था। जब कभी दोनों मिलते तो उर्दू शेरो-शायरी पर खूब गुफ्तगू करते।
दिलीप कुमार पढ़ने के साथ-साथ टिप्पणी भी लिखते थे जिसमें पढ़ी हुई चीजों पर अपने विचार प्रकट करते थे। विश्व साहित्य भी खूब पढ़ते थे।
पढ़ने और थोड़ा लिखने के इस शौक ने दिलीप कुमार के व्यक्तित्व में काफी इजाफा किया था। उनकी कला के सर्वांगीण विकास में साहित्य का बड़ा योगदान था। और दिलीप कुमार खुद यह मानते थे कि बिना पढ़े अभिनेता अपना विकास नहीं कर सकते। और उन्होंने अपने उदाहरण से यह चीज साबित कर दी थी।
उनके बारे में बाकी बातें तो दिलीप कुमार ‘विशेषज्ञ’ लिख ही रहे हैं, उनसे क्या बहस की जाए? अपना अपना आकलन और गणित लगाने की सबको छूट है। चाहे किसी के बारे में किसी को कुछ मालूम हो भी या नहीं!
कहावत है “मेरा भी फ़स्ले-बहार पर हक़ है लेकिन चाहे वो मेरी हो या न हो…!”