25 जुलाई। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने शनिवार को कहा, “समय आ गया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए (राजद्रोह) को असंवैधानिक करार दिया जाए।” उन्होंने यह भी कहा कि यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम) जैसा कानून वर्तमान स्वरूप में कानून की किताब में नहीं रहना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश सीजेएआर के एक वेबिनार में बोल रहे थे, जिसका विषय था- “लोकतंत्र, असहमति और कठोर कानून पर चर्चा- क्या यूएपीए और राजद्रोह को हमारी कानून की किताबों में जगह मिलनी चाहिए?”
मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की मौखिक टिप्पणियों के आलोक में (जिसमें केंद्र से पूछा गया था कि क्या अभी भी उस राजद्रोह कानून को जारी रखना आवश्यक है, जिसका उपयोग अंग्रेजों द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए किया गया था), न्यायमूर्ति गुप्ता ने आशा व्यक्त की है कि जब प्रावधान की संवैधानिकता को चुनौती देनेवाले मामले की सुनवाई अंततः अदालत द्वारा की जाएगी तो इसे रद्द कर दिया जाएगा।
यूएपीए के संबंध में, न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि वह यह सुझाव नहीं दे रहे हैं कि हमें आतंकवादी गतिविधियों से निपटने वाले कानून की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उन्होंने जोर देकर कहा कि ऐसा कोई भी कानून “अच्छी तरह से परिभाषित क्षेत्र” के साथ होना चाहिए, न कि “अनिश्चित, आतंकवाद की अस्पष्ट परिभाषा वाला जैसा कि यूएपीए में किया गया है।” उन्होंने बताया कि कैसे इस कानून ने लोगों को वर्षों तक कैद में रखा है, जहां पुलिस सहित हर कोई अच्छी तरह से जानता है कि यूएपीए के तहत कोई मामला नहीं बनता है,परंतु सिर्फ इसलिए यूएपीए लागू किया जाता है क्योंकि अदालतें जमानत देने के लिए अनिच्छुक होती हैं या उन्हें लगता है कि वे जमानत नहीं दे सकती हैं।
पूर्व न्यायाधीश ने यूएपीए के तहत गिरफ्तारी की बढ़ती प्रवृत्ति और लंबे समय तक जेल में रहने की प्रवृत्ति को ‘चिंताजनक’ बताया, जबकि बाद में ऐसे मामलों में आरोपी बरी हो जाता है या उसे आरोपमुक्त कर दिया जाता है। उन्होंने महाराष्ट्र एटीएस द्वारा अगस्त 2012 में नांदेड़ से गिरफ्तार किए गए मुहम्मद इलियास और मोहम्मद इरफान के मामले का उल्लेख किया, जिसकी गिरफ्तारी को आग्नेयास्त्रों की जब्ती से जोड़ा गया था और कहा गया था कि वे राजनेताओं, पुलिस अधिकारियों और पत्रकारों को मारने के लिए लश्कर-ए-तैयबा द्वारा रची गई साजिश का हिस्सा थे। उन्हें हाल ही में एनआईए कोर्ट ने बरी कर दिया। उन्होंने यह भी बताया कि कैसे एक मामले में गिरफ्तारी के 19 साल बाद सूरत के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत ने इस साल मार्च में सभी 127 लोगों को वर्ष 2001 में स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) जैसे ‘प्रतिबंधित संगठन को बढ़ावा देने’’ के आरोप से बरी कर दिया।
न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि नताशा नरवाल (सीएए विरोधी कार्यकर्ता) को जमानत नहीं मिली, लेकिन इस अवधि के दौरान उसके पिता की मृत्यु हो गयी। सिद्दीकी कप्पन (एक दलित महिला के सामूहिक बलात्कार-हत्या को कवर करने के लिए हाथरस जानेवाले पत्रकार को अक्टूबर 2020 में गिरफ्तार किया गया था) की मां की मृत्यु हो गयी, जबकि वह जेल में थे। फादर स्टेन स्वामी, 84 वर्षीय, पार्किंसंस रोग से पीड़ित (भीमा कोरेगांव आरोपी जिनकी हिरासत में मृत्यु हो गयी)! क्या हम इंसान नहीं हैं? क्या मानवता का सारा स्पर्श खो दिया है, कि इस आदमी को जमानत की क्या आवश्यकता है? इसमें कोई संदेह नहीं कि मुंबई हाईकोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि उन्हें जेल में उचित इलाज मिले लेकिन वह बाहर क्यों नहीं आ सके? जमानत देते समय यह विचार होता है कि आरोपी न्याय से भागे नहीं, वह गवाहों को प्रभावित न करे, उसे जांच के लिए उपलब्ध होना चाहिए। ऐसे में अगर अदालत फादर स्टेन स्वामी को जमानत देती तो उसके पास इस तरह के प्रतिबंध लगाने की पर्याप्त शक्ति थी।
यद्यपि न्यायमूर्ति गुप्ता ने स्वीकार किया कि हम इस तथ्य पर पूरी तरह से अपनी आँखें बंद नहीं कर सकते हैं कि आतंकवाद आज एक चिंता का विषय है। मैं यह कहने की हद तक नहीं जाऊंगा कि किसी अधिनियम की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है। लेकिन कानून को बहुत सख्ती से लागू किया जाना चाहिए और इसका उपयोग केवल आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ किया जाना चाहिए। इसे इस तरह से तैयार किया जाना चाहिए और अदालतों द्वारा इस तरह से व्याख्या की जानी चाहिए कि इसके दुरुपयोग की कोई गुंजाइश न रहे।” उन्होंने यह भी राय व्यक्त की है कि यूएपीए जैसे कानून को कानून की किताब में उस रूप में नहीं रहना चाहिए जिस रूप में यह अभी है।
इसी मौके पर सुप्रीम कोर्ट के एक और पूर्व जज न्यायमूर्ति आफताब आलम ने कहा कि, “यूएपीए दिखाता है कि हम किसी भी अन्य देश की तुलना में अपने लोगों की आजादी को बिना किसी जवाबदेही के लूटने के लिए तैयार हैं!” उन्होंने बताया, “2019 की NCRB की अंतिम रिपोर्ट में यूएपीए के तहत सजा की दर 29% रही। लेकिन यह सजा दर कैसे आयी? 2019 में 2361 यूएपीए मामले लंबित थे, 113 मामलों को निस्तारित किया गया, जिनमें 33 मामलों में दोषसिद्धि हुई, 64 मामलों में दोषमुक्ति हो गयी, जबकि 16 मामलों में बरी कर दिया गया, तो एक वर्ष में निस्तारित मामलों की दर 29 प्रतिशत रही। यदि दर्ज मामलों की कुल संख्या और गिरफ्तार किये गये व्यक्तियों की कुल संख्या के बरअक्स देखा जाए तो सजा की दर 2% पर आ जाती है, यह अधिक यथार्थवादी आंकड़ा है!
जस्टिस आलम ने बताया कैसे 2008 के मुंबई हमलों के बाद, यूएपीए को 2008, 2012 और 2019 के संशोधनों से गुजरना पड़ा, जिससे यह और अधिक कठोर हो गया। इस आतंकवादी हमले ने निर्दोष लोगों की हत्या और संपत्ति के बड़े पैमाने पर विनाश के अलावा, अप्रत्यक्ष और अमूर्त ढंग से, देश की न्याय प्रणाली को भी बहुत कठोर तरीके से प्रभावित किया। हमले के एक महीने के भीतर, यूएपीए अधिनियम में संशोधन किए गए थे, जिसके दूरगामी परिणाम होने थे। संशोधन ने जांच एजेंसी के लिए जांच की अवधि को 180 दिनों तक बढ़ाना संभव बना दिया, जिसके दौरान आरोपी हिरासत में रहता है, जिससे जमानत मिलना लगभग नामुमकिन हो जाता है।
जस्टिस आलम ने एक लेख का हवाला दिया, जिसमें चर्चा की गई थी कि संसद द्वारा 2008 का संशोधन कैसे पारित किया गया था और विडंबना यह है कि इसके सबसे कड़े प्रावधानों को राष्ट्र के लिए एक अद्भुत उपहार के रूप में चित्रित किया गया था- “यह संसद में बड़े गर्व के साथ घोषित किया गया था कि हमारे कानून अमरीका और इंग्लैंड की तुलना में अधिक कठोर हैं! हमने इस कानून के तहत 180 दिनों का प्रावधान किया है। क्या आप मुझे किसी अन्य देश का उदाहरण दे सकते हैं जहां ऐसे कानून मौजूद हैं?”, यह पूछा गया था! चार्जशीट दाखिल करने की अवधि बढ़ाने के समर्थन में संसद में यह भाषण था और इस प्रकार आरोपपत्र पूर्व की अवधि को 90 दिनों से बढ़ाकर 180 दिनों तक कर दिया गया।
जस्टिस आलम ने कहा, “दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में यह कठोर कानून हमें कहां ले आए हैं? परिणाम सभी को देखना हैं। यह हमें बिना मुकदमे के फादर स्टेन स्वामी की मृत्यु से डराता है। ऐसे कई भारतीय हैं जो बरी हो जाते हैं और जेल से बाहर एक टूटे हुए जीवन के साथ आते हैं और व्यावहारिक रूप से उनका कोई भविष्य नहीं! यूएपीए ने हमें संवैधानिक स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा दोनों मामलों में विफल कर दिया है!” उन्होंने कहा, “यूएपीए मामलों में, प्रक्रिया ही सजा है!”
(लाइव लॉ हिंदी की रिपोर्ट के चुनिंदा अंश, साभार )