एक विधि-शासित समाज में संचार-माध्यमों की नैतिकी- बल्कि संचार-माध्यम ही क्यों, किसी भी संदर्भ में नैतिकी- का सवाल ही क्यों उठता है? जब सभी प्रकार की मानवीय क्रियाशीलताएँ राज्य और उसके द्वारा निर्मित विधि एवं संस्थाओं की नियन्त्रण-परिधि में मान ली गयी हैं तो उनके सन्दर्भ में नैतिकी पर अलग से विचार की जरूरत ही क्यों पेश आती है? क्या अलग से नैतिकी की बात करना एक सीमा के बाद कानून की असफलता या असमर्थता को स्वीकार कर लेना नहीं है?
इसकी प्रमुख वजह कहीं यह तो नहीं है कि कानून मूलतः एक नियंत्रणकारी संस्था है, जबकि नैतिकी एक प्रेरक प्रक्रिया। कानून निरन्तर परिवर्तनशील हो सकता है, जबकि नैतिकी मूलतः मूल्यबोध होने के कारण सनातन। दरअस्ल, कानून का भी वास्तविक प्रयोजन तो समाज में मूल्यबोध की प्रतिष्ठा ही होना चाहिए, लेकिन, व्यावहारिक दबावों और सत्ता के प्रयोजनों के चलते उसे अनिवार्यतः मूल्यबोध से प्रेरित होता नहीं देखा जाता। एक राज्य का कानून जुआ खेलने या वेश्यावृत्ति को स्वीकृति दे सकता है और दूसरे राज्य का कानून उस पर रोक लगा सकता है- यहाँ तक कि एक ही संघ-राज्य के विभिन्न घटकों में एक ही विषय के बारे में अलग-अलग ही नहीं, विपरीत मन्तव्य वाले कानून भी हो सकते हैं, होते हैं। यदि कानून का नैतिकी से अनिवार्य जुड़ाव हो तो ऐसा होना सम्भव नहीं है।
इसलिए किसी भी विषय के सन्दर्भ में कानून के बजाय नैतिकी की दृष्टि से विचार करना अधिक उचित है- और इस तर्क से संचार-माध्यमों के संदर्भ में भी। मैंने शुरू में कहा कि नैतिकी एक सकारात्मक और प्रेरक अवधारणा है, इसलिए संचार-माध्यमों की नैतिकी पर विचार करते हुए यह सवाल उठना चाहिए कि उनके संदर्भ में नैतिक सकारात्मकता का क्या तात्पर्य है। संचार–माध्यमों का मुख्य कार्य सूचनाओं या तथ्यों का प्रसार है। इसमें सकारात्मकता को कैसे व्याख्यायित किया जा सकता है। समान्यतः तो संचार-माध्यमों से सूचनाओं के प्रसार में तटस्थता की ही अपेक्षा की जाती है।
सीधे-सरल शब्दों में अगर पत्रकारिता या संचार-कर्म की परिभाषा की जाय तो कहा जा सकता है कि वह दुनिया में जो कुछ घटित हो रहा है, उसे बयान करना अर्थात् बनते हुए इतिहास को दर्ज करना और उसे तत्काल समाज तक सम्प्रेषित कर देना है, जिससे समाज को भी यह अवसर मिल जाता है कि वह भी उसमें तत्काल हस्तक्षेप कर सके।लेकिन तब क्या यह सिर्फ दर्ज करना या बयान कर देना है? क्या यह बयान स्वयं घटनाओं की व्याख्या करता और एक हद तक इस व्याख्या के माध्यम से स्वयं घटनाओं के रुख को प्रभावित नहीं करता?
यदि एक बार घटनाओं के चयन और व्याख्या पर पड़नेवाले इतर दबावों की बात छोड़ भी दें तो भी एक घटना या सूचना को पूरे तौर पर तभी जाना जा सकता है जब हम उसे सही परिप्रेक्ष्य और पृष्ठभूमि, उसके कारण, अन्तस्संबंधों और पड़नेवाले प्रभावों के साथ देखें- बल्कि देखने का हमारा कोण ही बड़ी हद तक हमारे द्वारा घटना के ग्रहण और बयान को प्रभावित करता है- क्योंकि तथ्यों की प्रस्तुति और उनके क्रमिक विन्यास में परिवर्तन उनके माध्यम से व्यंजित सत्य के रूप को भी प्रभावित करता है। प्रसिद्ध भौतिकीविद् आइंस्टाइन और हाइजेनबर्ग द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों को साथ रखकर देखने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि किसी घटना का हमारा ग्रहण इस बात पर निर्भर करता है कि हम उसे कहाँ से और किस माध्यम से देख रहे हैं अर्थात् द्रष्टा की स्थिति और माध्यम य़थार्थ को उसके लिए रूपांतरित कर देते हैं। इसलिए एक व्यापक और बहुकोणीय परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने पर ही हम किसी घटना के वास्तविक महत्त्व को समझ सकते हैं और यह परिप्रेक्ष्य केवल भौतिक नहीं, बल्कि अनिवार्यतः सांस्कृतिक और मूल्यगत होता है। जब हम किसी घटना को उसके सही परिप्रेक्ष्य में रखे बिना ही प्रेषित करते हैं तो हम वस्तुतः कुछ भी प्रेषित नहीं कर रहे होते; उसे वास्तविक अर्थों में सम्प्रेषित करने का तात्पर्य एक तात्कालिकता को मूल्यगत और मानवीय इतिहास की निरन्तरता के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखना-दिखाना है।
इस दृष्टि से देखें तो संचार-कर्म केवल प्रेषण नहीं, बल्कि गहरे नैतिक अर्थों में एक आलोचना कर्म और इसी वजह से सांस्कृतिक कर्म हो जाता है।
किसी भी चीज को उसकी समग्रता में एक मूल्यगत और मानव-विकास की परंपरा के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखना ही आलोचना है। इसलिए वास्तविक आलोचना सदैव संस्कृति की सर्जन-प्रक्रिया का हिस्सा होती है क्योंकि वह समाज के आत्म-साक्षात्कार और आत्म-सर्जन का ही एक माध्यम होती है। इन अर्थों में संचार-कर्म भी एक सांस्कृतिक और सर्जनात्मक कर्म है और यह कहना प्रसंगान्तर नहीं होगा कि यदि रचनाकार-लेखक यदा-कदा संचार-कर्म में सक्रिय होते रहे हैं तो इसलिए भी कि एक सर्जक की हैसियत से वह उन्हें अपने सर्जन-कर्म का ही एक आनुषंगिक रूप लगता रहा है।
इस परिप्रेक्ष्य में संचार-कर्म के गहन उत्तरदायित्व,विशेषतया एक लोकतांत्रिक समाज में उसके उत्तरदायित्व, पर अलग से बल देने की जरूरत शायद नहीं होनी चाहिए। मैं समाज के आत्म-साक्षात्कार और आत्म-सर्जन का एक माध्यम हूँ- यह एहसास एक संचार-कर्मी को कितनी गहरी अर्थवत्ता और उसके साथ जुड़े कितने गहरे दायित्व-बोध से भर देता है, यह हमारे लिए जितनी अनुभव करने की बात है, उतनी कहने की नहीं। एक संचार-कर्मी के रूप में हम चाहे किसी छोटे-से स्थानीय संस्थान से जुड़ें या किसी राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय संस्थान से, इससे हमारे कर्म की परिधि तो छोटी-बड़ी हो सकती है, लेकिन हमारे कर्म के माध्यम से जिस रचनात्मक अर्थवत्ता की अनुभूति होती है, उसमें कोई गुणात्मक अन्तर नहीं होता।
लेकिन किसी भी क्रियाशीलता के प्रयोजन पर उसके माध्यम और साधनों की अन्तःप्रक्रिया का गहरा प्रभाव पड़ता है। यहाँ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संचार-कर्म को सदैव समाज में एक पेशेवर दर्जा प्राप्त रहा है- यद्पि उसमें केंद्रीय और व्यापक प्रबंधन की जरूरत नहीं होती थी और उसका अर्थशास्त्र भी सम्प्रेषण-कर्मी पर ही निर्भर था। इसलिए उसका संस्कृति-कर्म बने रहना अधिक मुमकिन था। लेकिन आज संचार-कर्म एक संस्कृति-कर्म होने के साथ-साथ एक उद्योग भी है और इस पक्ष की अवहेलना भी संभव नहीं है। यह व्यावसायिक पक्ष केवल सम्प्रेषण-कौशल पर नहीं, बल्कि पूँजी और प्रबन्ध-कौशल पर भी निर्भर करता है। इसलिए इसकी प्रक्रिया में एक ऐसा तत्त्व भी शामिल हो जाता है जिसका प्रयोजन संस्कृति नहीं, बल्कि आर्थिक लाभ है। ऐसी स्थिति में संचार-कर्म पर पूँजी संस्थान और उसके अनुकूल राज्य संस्थान के दृष्टिकोण और हितों का दबाव पड़ना स्वाभाविक है।
संचार-कर्म की असल नैतिक चुनौती यही है। यह केवल व्यक्तिरूप में किसी संचार-कर्मी के दबाव में आकर घुटने टेक देने तक सीमित नहीं है। यह पूरा सांस्थानिक मुद्दा है।
प्रसिद्ध समाज-वैज्ञानिक इवान इलिच का मानना है कि प्रत्येक सम्प्रेषण-कर्म का दो प्रकार का एजेण्डा होता है। एक को वे घोषित एजेण्डा कहते हैं और दूसरे को गुप्त एजेण्डा। और जाहिर है, आप समझ गए होंगे, कि अन्ततः गुप्त एजेण्डा ही असली एजेण्डा होता है- और वह तय होता है सम्प्रेषण-व्यवस्था के साधनों, प्रक्रिया और उसके प्रबंधन से।
किसी भी तरह के संचार-कर्म का घोषित एजेण्डा तो सूचनाओं का प्रसार ही हो सकता है, लेकिन यह प्रसार जिन साधनों और जिस तरह के प्रबंधन के तहत हो रहा होता है, वे उसके गुप्त एजेण्डा के घटक तत्त्व होते हैं।
आधुनिक जन-संचार के माध्यम मूलतः उस विकसित प्रौद्योगिकी की संतान हैं जो पिछले पाँच दशकों से भी अधिक समय से विकास के नाम पर प्रचलित की जा रही है और जिसे अपनाना तीसरी दुनिया के समाजों के आधुनिकीकरण के लिए अपिहार्य माना जाने लगा है। मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के राजनीतिक अर्थशास्त्रियों ने प्रो. डेनियल लर्नर के नेतृत्व में संचार पर निर्भर विकास की जिस अवधारणा को प्रतिपादित किया, उसमें यह निहित था। विकास की केंद्रीय परिकल्पना की बुनियाद जन-संचार माध्यमों द्वारा बदलाव लाने अर्थात अपनी परंपरागत जीवन-दृष्टि और जीवन शैली को छोड़कर पश्चिमी उपभोक्ता समाज की वस्तुओं को अपनाने तथा गाँव छोड़ने और शहरी बनने की भावना का विकास करने पर टिकी है।
कहा जाता है कि प्रौद्योगिकी मूलतः तटस्थ और मूल्य-निरपेक्ष होती है तथा सूचना के स्वतंत्र प्रवाह के सिद्धांत के अनुसार तो हर व्यक्ति को उसका लाभ मिलता है। लेकिन ज्यों ही हम संचार की आधुनिकतम प्रौद्योगिकी को अपनाते हैं, हम एक खास तरह की जीवन दृष्टि और शैली को- चाहे अनचाहे ही सही- स्वीकार कर रहे होते हैं। रेमण्ड विलियम्स का निष्कर्ष है कि ऐतिहासिक सचाई इस मान्यता के विपरीत है कि प्रौद्योगिकी का आविष्कार बिल्कुल स्वतंत्र वातावरण में होता है। विलियम्स के अनुसार रेडियो और दूरदर्शन से प्रसारण का आरम्भ और विकास अणु की तरह बिखरे समाज को ध्यान में रख कर किया गया जहाँ एक-एक विखण्डित परिवार अपने-अपने दड़बे में पड़ा है।
स्पष्ट है, यह पूँजीवादी और बाजार द्वारा शासित विकास-प्रक्रिया की अनिवार्य सामाजिक परिणति है,जिसमें सामुदायिकता विनष्ट होकर हर व्यक्ति अलग-अलग भौतिक और मनोवैज्ञानिक घेरे में बंद कर दिया गया है। स्पष्ट है कि यह ऐसी इकतरफा संवाद-प्रक्रिया है, जिसमें समाज न केवल विखण्डित हो जाता है, बल्कि सूचना के इकतरफ़ा प्रवाह का ग्रहीता मात्र बनकर रह जाता है। इन्हीं तथ्यों का विश्लेषण करते हुए हरबर्ट आई. शिलर का निष्कर्ष है कि दूसरे विश्वयुद्ध के अन्त से लेकर आज तक प्रौद्योगिकी- खासकर संचार की प्रौद्योगिकी- की परिकल्पना और उसका विकास एकाधिकारवादी पूँजीवाद के हितों और विशेष जरूरतों के साथ जुड़ा रहा है। यहाँ तक कि यह प्रौद्योगिकी आज भी इस वर्ग की सेवा के उद्देश्य के साथ बनी और भरी पड़ी है।
यद्धपि शिलर यह मानते प्रतीत होते है कि कुछ मामलों में प्रौद्योगिकी का वैकल्पिक उपयोग भी संभव है, लेकिन तब उसका प्रबंधन अर्थसत्ता द्वारा नहीं, बल्कि सामाजिक सत्ता द्वारा होना होगा। जो स्थिति अभी चल रही है, उसके अनुसार तो संचार-कर्म का गुप्त एजेण्डा मनुष्य को ऐन्द्रिक आयाम तक सीमित उपभोक्ता अर्थात् हरबर्ट मारक्यूज की पदावली में ऐसा एकायामी मनुष्य बना देता है जो समृद्धि के नरक के बीच लोकतांत्रिक अस्वतंत्रता में रह रहा है।
किसी भी नैतिक-सामाजिक व्यवस्था का आधार इस मान्यता में है कि प्रत्येक मनुष्य साध्य है और कोई भी मनुष्य किसी का साधन नहीं है। इस दृष्टि से संचार-कर्म और उसके ग्रहीता अर्थात् पाठक, श्रोता या दर्शक से उसके रिश्तों पर भी विचार आवश्यक है।
संचार-कर्म के संस्कृति-कर्म होने के नाते उसके ग्रहीता की हैसियत एक सहभागी की है क्योंकि इस सहभागी के बिना कोई भी संप्रेषण-कर्म न केवल पूरा नहीं होता, बल्कि उसी के प्रति उत्तरदायी होता है। लेकिन एक उद्योग-व्यवसाय होने के अपने आग्रह से संचार-कर्म अपने ग्रहीता को भी सहभागिता से हटाकर ग्राहक या उपभोक्ता के स्तर पर ला देता है। इस उपभोक्ता को अपनी स्थायी मण्डी बना लेना संचार-कर्म की व्यवसायिक जरूरत बन जाती है और इसका तरीका होता है उसे एक उत्तेजना में बहा ले जाना और इसका आदी बना लेना। यह उत्तेजना ऐन्द्रिक भी हो सकती है जो उत्तेजक दृश्यों, द्विअर्थी चुटकुलों और भौंडी हास्य-प्रस्तुतियों के रूप में सामने आती है, तो कई बार अधिक उत्तरदायी होने का दावा करते हुए भावुकतापूर्ण उत्तेजक टिप्पणियों और समाचार-प्रस्तुति आदि से अपने ग्रहीता को एक दूसरे स्तर पर अपने साथ बहा ले जाने और उसकी भावनाओं को एक ऐसा मोड़ देने का प्रयास करती है जिससे वह न केवल अधिक भावुकतामूलक सन्तुष्टि महसूस करे, बल्कि विवेक के बजाय अंधी उत्तेजना अधिक प्रभावी हो जाय।
ऐसी टिप्पणियाँ प्रत्येक ग्रहीता के अंदर छुपी हिंसा, साम्प्रदायिकता और असुरक्षा-ग्रन्थि को उभारती हैं और इन्हें ग्रहण करते हुए मानसिक स्तर पर एक उत्तेजना और उसके शमन का सुख अनुभव होता है। संचार-कर्म का यह प्रयास जहाँ बौद्धिक स्तर पर अपने ग्रहीता समुदाय को अपना उपनिवेश बना लेने का प्रयास है, वहीं व्यावसायिक स्तर पर उसे अपनी स्थायी मण्डी बना लेने की ओर उन्मुख होता है।
संचार-कर्म अपने प्रयोजन में तो एक नैतिक सत्ता है ही- प्रत्येक सर्जन-कर्म एक नैतिक सत्ता है- लेकिन अपनी प्रक्रिया और प्रभाव में वह एक राजनीतिक सत्ता भी हो जाता है। आधुनिक दुनिया में सूचना या ज्ञान की सत्ता का एक प्रकार है, इसलिए राजनीति का एक रूप सूचना की राजनीति भी है।
इस राजनीति की संचालन बड़ी हद तक संचार-कर्म के माध्यम से होता है। इसलिए राजनीति के अन्य रूपों और सत्ता-केन्द्रों के साथ उसका नजदीकी संबंध तो स्वाभाविक है ही, स्वयं उसके स्वभाव में भी राजनीति के गुण-दोष विकसित होने लगते हैं, जिनमें सब से प्रमुख है सत्ताप्रसूत अहंकार और अपने सत्ता-रूप को बनाये रखने और बढ़ाते रहने की महत्त्वाकांक्षा। अपनी गलतियों के प्रति जो लापरवाही और अपनी आलोचना के प्रति जो असहिष्णुता संचार-कर्म में विकसित होती गयी है, वह इसी सत्ताप्रसूत अहंकार का एक लक्षण है जबकि कोई भी सर्जन अहं के विलयन के जरिये ही सम्भव है।
संचार-कर्म अपने में एक सत्ता-केन्द्र उसी प्रकार होता गया है जिस प्रकार संसदीय राजनीति में विपक्षी दल हो जाते हैं। जाहिर है कि अन्य सत्ता-केन्द्र अनेक स्तरों पर उसे अपने साथ रखने या प्रभावित करने के लिए सक्रिय होते हैं। फिर नैतिक सत्ता होने में सार्थकता चाहे अधिक हो, पर सुख कम है, जबकि राजनीतिक सत्ता होने या उसके आस-पास होने का भी एहसास न केवल अधिक सुखदायी है, बल्कि सार्थकता का भी एक आभास-जैसा बनाये रखता है।
स्थानीय स्तरों पर यह एहसास छुटभैया राजनीतिकों, टटपूँजिया ठेकेदारों और खटपटिया नौकरशाही के साथ गठबंधन से पैदा होता है, तो राष्ट्रीय स्तर पर सरकारों या औद्योगिक समूहों के नेतृत्व को उठाने-गिराने के खेल में अपनी सक्रिय भूमिका से।
एक नैतिक सत्ता होने के नाते किसी भी अनैतिक व्यवस्था की आलोचना करना तो संचार-कर्म का धर्म है, लेकिन जब वह जोड़-तोड़ या सत्ता-षड्यन्त्र की राजनीति में सक्रिय भूमिका अदा करता या उसके लिए सूचनाओं को दिखाता-छुपाता है तो किसी अन्य को सत्ताच्युत करने में सफल हो, न हो, स्वयं तो अपने धर्म से च्युत हो ही जाता है।
आज संचार-कर्म का मूल अन्तर-द्वंद यह है कि वह अपने प्रयोजन में जहाँ सांस्कृतिक-नैतिक कर्म है, वहीं अपने साधनों और प्रबंधन में व्यावसायिक और अपने प्रभाव में एक राजनीतिक कर्म हो जाता है। व्यावसायिक और राजनीतिक होना अनुचित नहीं, बशर्ते कि वह अपने मूल प्रयोजन को- समाज के आत्मसाक्षात्कार और आत्मसर्जन का माध्यम होने की अपनी बुनियादी प्रतिज्ञा को- अर्थसत्ता और राजसत्ता की वेदी पर बलि नहीं चढ़ा देता। सवाल यह है कि केन्द्रीय प्रेरणा क्या है?
हम व्यवसाय और राजनीति को केन्द्र में रखकर उनके अनुसार संचार-कर्म को भी समाज के विकृतीकरण की प्रक्रिया में लगा दें अथवा संस्कृति को केन्द्र में रखते हुए अपनी व्यावसायिक और राजनीतिक वृत्तियों को एक मूल्य-प्रेरित पत्रकारिता से संस्कारित-अनुप्राणित करें? जो लोग संस्कृति के पक्ष में हैं उन्हें बीच बाजार लुकाटी हाथ में लिये खड़े सन्त की चेतावनी की प्रणाम सहित याद दिला देनी चाहिए और जो लोग व्यवसाय और राजनीति के पक्ष में हैं, उन्हें भी सविनय इतना स्मरण अवश्य दिलाना जाना चाहिए कि सभ्य समाज में प्रत्येक व्यवसाय की भी अपनी एक नैतिकता होती है, जैसे लोकतंत्र में प्रत्येक राजनीति की एक मर्यादा।