गांधी, जैसा मैंने जाना – नारायण देसाई

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नारायण देसाई (24 दिसंबर 1924 – 15 मार्च 2015)

क सुखद स्वीकारोक्ति से बात शुरू करता हूं। अगर आप मुझसे पूछें कि मैंने गांधी को कब देखा, तो मैं यही कहूंगा कि इस बारे में ठीक-ठीक याद नहीं कर सकता। यह वैसा ही है जैसे किसी से पूछा जाय कि उसने ठीक-ठीक कब बोलना या चलना शुरू किया। जब मैं इस दुनिया में आया, गांधी मेरी नन्हीं-सी दुनिया का हिस्सा थे। जब मैं लगभग महीने-भर का रहा होऊंगा, मेरी मां मुझे नानी के घर से अहमदाबाद के निकट स्थित गांधी के साबरमती आश्रम ले आयी थीं। जब गांधी की हत्या हुई, मैं चौबीस बरस का था। यह वास्तव में एक विरल सौभाग्य था कि मेरे जीवन की दिशा तय करनेवाले आरंभिक दो दशक उनके दो आश्रमों में बीते, साबरमती में और सेवाग्राम में।

करोड़ों भारतीयों के लिए गांधी ‘महात्मा’ थे। मेरे पिता समेत आश्रम के अंतेवासी उन्हें ‘बापू’ कहते थे। यह समझने में मुझे ज्यादा वक्त नहीं लगा कि गांधी राजनेता थे, क्योंकि हम देखते कि देश के तमाम राजनेता उनसे मिलने और उनके प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए जब-तब आते रहते थे। लेकिन आश्रम के हम बच्चों के लिए गांधी न महात्मा थे न राजनेता, ‘बापू’ भी नहीं, हालांकि होश सँभालते ही मैंने भी उन्हें इसी नाम से बुलाना शुरू कर दिया था। आश्रम के हम बच्चों के लिए गांधी सबसे पहले और मुख्य रूप से दोस्त थे। एक ऐसे दोस्त, जिनके साथ आप रोज सुबह-शाम टहल सकते थे।

जब हम अहमदाबाद केंद्रीय कारागार के गेट के पास पहुंचते, जो कि रोजाना हमारे टहलने का आखिरी मुकाम होता था, तो गांधी अचानक अपनी रफ्तार बढ़ा देते, और उनके दोनों तरफ ‘छड़ी‘ की तरह चल रहे हम दोनों बच्चों को उनके साथ-साथ चलने के लिए दौड़ना पड़ता था। वे ऐसे मित्र थे जिनके साथ आश्रम के बच्चे साबरमती नदी में तैरने के लिए जाया करते। वे ऐसे मित्र थे कि जब किसी समारोह के अवसर पर हम कोई नाटक खेलने की योजना बनाते, तो वे हमसे पूछ सकते थे कि उनके लिए कौन-सी भूमिका हमने तय कर रखी है। वे ऐसे मित्र थे जिनसे हम बेहिचक झगड़ सकते थे। वे ऐसे मित्र थे कि किसी मुश्किल में होने पर हम उन्हें गुहार सकते थे। वे कुछ विशेष थे हमारे लिए, अलबत्ता यह अहसास केवल हम बच्चों का नहीं था। आश्रम में सभी, बच्चे हों या बुजुर्ग, स्त्री या पुरुष, ऐसा ही महसूस करते थे।

बापू निस्संदेह आश्रम में हर किसी से प्रेम करते थे। लेकिन हर व्यक्ति विशेष से उनका प्रेम कुछ विशिष्ट था। और यह अनुभूति आश्रमवासियों तक सीमित नहीं थी। देश के कोने-कोने में रहनेवाले सैकड़ों लोगों का भी यही अनुभव था, यहां तक कि देश से बाहर के कुछ लोगों का भी। वह क्या था कि हममें से हरेक को लगता था गांधी उस पर विशेष ध्यान देते हैं। जब वे हमें प्रत्यक्ष रूप से संबोधित करते, या अपने अनगिनत पत्रों के जरिए, तो वे एक विशिष्ट ढंग से हमारा उल्लेख करते, अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग तरह से संबोधित करते। वे जब हमसे बात करते, तो अपनी आँखों और लगभग फुसफुसाती-सी मृदु आवाज के जरिए अपना पूरा व्यक्तित्व उड़ेल देते।

बेशक गांधी बहुत अच्छे वक्ता नहीं थे। लेकिन इसमें संदेह की गुंजाइश नहीं कि वे बहुत अच्छे श्रोता थे। कभी-कभी वे इतने ध्यान से सुनते कि हमें लगता कि हमारी अनकही बात भी उन्होंने सुन ली है। बात करना गांधी के लिए खुद को दूसरों से साझा करना होता था।

सेवाग्राम में किसी ने गांधी के बैठने के स्थान के पीछे की दीवाल पर एक छोटा-सा साइनबोर्ड लगा दिया था। साइनबोर्ड पर दो-दो शब्द के तीन वाक्य थे। मंशा गांधी का समय बचाने की थी। मोटे अक्षरों में लिखा था- शीघ्रता करें, संक्षिप्त कहें, विदा लें!

मैं तब किशोर था और यह सोच कर हैरान होता कि आगंतुकों पर ऐसे रूखे स्वागत की कैसी प्रतिक्रिया होती होगी। इसलिए जब कोई आगंतुक गांधी की कुटी से बाहर निकलता, तो मैं उनके पीछे हो लेता। उनसे पूछता कि यह संक्षिप्त मुलाकात उन्हें कैसी लगी, और यह देखकर अचरज में पड़ जाता कि अधिकतर लोग पूरी तरह संतुष्ट होकर लौटते थे। वे कहते, ‘ हां, यह सही है कि समय बहुत कम था, लेकिन वह समय पूरी तरह हमें दिया गया।’ जब गांधी सुन रहे होते, तो हर व्यक्ति को वह गरिमा प्रदान करते, जो कि मनुष्यमात्र के नाते सामान्यतः उसका हक था।

काफी हद तक उनकी अहिंसा के पीछे यही सिद्धांत था। वे हरेक से सम्मान-भरा व्यवहार करते। आगंतुक के धन, ज्ञान, उम्र या स्त्री-पुरुष का खयाल न कर वे हरेक से उसकी वैयक्तिकता और मनुष्य होने की उसकी गरिमा का ध्यान रखते हुए पेश आते। गांधी से बात करते हुए लगता कि जीवन की गुणवत्ता सीधे सत्य या अस्तित्व के स्रोत से आ रही है, जो कि मनुष्य-कृत विभेदों से दूषित नहीं है। सत्य की सीधी रेखा जो गांधी के विचार, भाषा और कर्म को जोड़ती थी वह अपने संपर्क में आनेवाले हर व्यक्ति के साथ उनके व्यवहार में भी परिलक्षित होती थी।

(कल दूसरी किस्त)

अनुवाद – राजेन्द्र राजन

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