आर्थिक सुधार के तीस साल : कौन हुआ मालामाल कौन हुआ बदहाल

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— अरुण कुमार त्रिपाठी —

र्थिक सुधार को समझने के दो नजरिए हैं। पहला नजरिया यह है कि 1991 के आर्थिक सुधारों से पहले देश आर्थिक रूप से गुलाम था और 24 जुलाई 1991 को भारत के तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने जो बजट पेश किया उसके बाद देश को आर्थिक आजादी मिली।

देश में एक टेलीविजन चैनल था, एक हवाई सेवा थी और कोटा परमिट राज के कारण कार खरीदना, टेलीफोन लगवाना, गैस कनेक्शन लेना एक विशिष्ट वर्ग का अधिकार हुआ करता था। उसमें भी लंबी कतारें लगी रहती थीं। इसलिए आज देश और दुनिया में सुख और समृद्धि का जो महासागर लहरा रहा है उसके पीछे आर्थिक सुधारों का महान योगदान है।

आर्थिक सुधार आने के बाद देश में सब कुछ पारदर्शी हो गया। सरकारें कुछ छुपा नहीं पातीं और मीडिया सब कुछ दिखा देता है और अब घोटाले नहीं होते क्योंकि पाबंदियां खत्म हो गईं। जिस तरह से पूंजी को आने जाने की आजादी मिली है उसी तरह से दुनिया में एक तरह की विश्व बंधुत्व की भावना आई है और राष्ट्रवादी संकीर्णता कम हुई है। बार्डर खुले हैं और कंटीले बाड़ हटे हैं।

दूसरा नजरिया यह है कि आर्थिक सुधारों के तीस सालों के बाद दुनिया फिर एक चौराहे पर खड़ी है जहां से वह कहां जाए इसका कोई रास्ता सूझ नहीं रहा है। इन तीस सालों में आर्थिक तरक्की का जो दावा था न तो वह हासिल हुआ और न ही राजनीतिक आजादी सलामत रही।

आर्थिक सुधारों के समर्थकों का दावा था कि काले धन की समस्या और घोटालों की घटनाएं इसलिए होती हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था को बंद करके रखा गया है। अगर उसे खोल दिया जाएगा तो बाजार अपने आप तमाम गड़बड़ियों को ठीक कर लेगा। इसी के साथ प्रौद्योगिकी की प्रगति इतनी तीव्र होगी कि उससे मानवीय भूलों से जुड़ी कमजोरियां दूर हो जाएंगी। लेकिन परिणाम इसके विपरीत हुआ।

आज दुनिया में दो देशों के बीच तो असमानता बढ़ी ही है देशों के भीतर रहने वाली आबादी के भीतर भी गैर बराबरी का बोलबाला हुआ है। यानी समृद्धि का समान वितरण न तो अंतरराष्ट्रीय फलक पर हुआ है और न ही राष्ट्रीय दायरे में।

आर्थिक सुधारों के कारण कहीं याराना पूंजीवाद पनपा तो कहीं महाघोटाले हुए। इसके चलते आर्थिक प्रक्रिया पर निगरानी की वे प्रक्रियाएं नाकाम हुई हैं जो पहले से थीं या जिन्हें सुधारों के साथ लागू किया जाना था। इन घोटालों और उससे उपजी मंदी के कारण अंतरराष्ट्रीयतावाद का सहारा लेने को आतुर पूंजी ने फिर राष्ट्रवाद का दामन थामा। क्योंकि देशों के दायरे में उसकी साख खत्म हो रही थी और जनता में उसके मनमानेपन के प्रति असंतोष पनप रहा था।

इस तरह राष्ट्रीय सरकारें जो पहले न्यूनतम नियंत्रण और अधिकतम विकास की बात कर रही थीं वे अब अधिकतम नियंत्रण और न्यूनतम विकास पर आ गई हैं। उदारीकरण के साथ जो सरकारें अपने नागरिकों को अधिकार संपन्न बना रही थीं वे उन्हीं अधिकारों में कटौती कर रही हैं। यानी सबका साथ और सबका विकास का आर्थिक सुधार से जुड़ा नारा भी बेमानी साबित हुआ है।

कुल मिलाकर आर्थिक सुधार न सिर्फ सैद्धांतिक तौर पर विफल रहा है बल्कि व्यावहारिक तौर पर भी उसकी भयानक त्रासदी प्रकट हुई है।

विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने आर्थिक सुधारों की पटकथा अस्सी के दशक में लिखी थी और सोवियत संघ के विघटन के बाद जिस पर दुनिया का यकीन बढ़ा और कहा जाने लगा कि अब दुनिया विकल्पहीन हो गई है, वह अब अपनी समाजवादी नीतियों को पलटने लगी है।

आर्थिक सुधार, मुक्त व्यापार की उन्नीसवीं सदी की धारणा पर शुरू किया गया था। जिसका मतलब है कि व्यापार को खुला छोड़ दो। उस पर किसी तरह के सरकारी नियंत्रण की जरूरत नहीं है। इसी के साथ आया था निजीकरण और वैश्वीकरण का सिद्धांत। लेकिन बाद में वे संस्थाएं ही सरकारों को मजबूत करने पर जोर देने लगीं और राष्ट्रवादी दायरे में होने वाले कार्यक्रमों पर यकीन करने लगीं।

इसी के साथ क्षेत्रीय आर्थिक संगठनों का भी दौर चला जिसमें ब्रिक्स या दक्षिण अमेरिका के संगठनों के साथ जी-7 और जी-23 प्रमुख हैं। पहले लगता था कि आर्थिक गतिविधियों को खुला छोड़ देने का उदारता का जो सिद्धांत है वही राजनीतिक स्तर पर भी लागू होगा, दुनिया में लोकतांत्रिक संस्थाएं मजबूत होंगी और राज्य अपनी शक्तियों को छोड़ता जाएगा। लेकिन जिस तेजी के साथ महाघोटाला, मंदी और आतंकवाद पनपा उसी तेजी के साथ राष्ट्रवाद और अधिनायकवाद भी।

अगर हम भारत को देखते हैं तो आर्थिक सुधारों के समर्थक यह साबित करने लगते हैं कि देखिए शेयर बाजार कितनी तेजी से तरक्की कर रहा है और डिजिटल युग के आगमन के साथ घोटाले कम होते जा रहे हैं। लेकिन यह हैरानी की बात है कि भारत के शेयर बाजार में प्रतिभूति जैसा बड़ा घोटाला आर्थिक सुधारों के एक साल बाद ही हो गया। रोचक बात यह है कि जब बिना किसी कारण शेयर बाजार पहले उठ रहा था और बाद में गिरने लगा तो आर्थिक सुधारों के प्रणेता और वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा कि शेयर बाजार के उठने गिरने पर सरकारों को अपनी नींद नहीं खराब करनी चाहिए। लेकिन तब तक हर्षद मेहता अपना काम कर चुके थे।

विडंबना देखिए कि भारत में बड़े-बड़े आर्थिक घोटाले तब हुए जब आर्थिक सुधारों के प्रणेता और दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह स्वयं प्रधानमंत्री थे। 2-जी घोटाला, कोयला घोटाला तो दो ऐसे बड़े घोटाले थे जिनके पीछे आर्थिक प्रक्रिया ही प्रमुख कारण थी।

वास्तव में आर्थिक सुधारों की इस प्रक्रिया में घोटाले निहित हैं। अगर आप आर्थिक गतिविधियों की निर्बाध छूट देंगे तो घोटाले होंगे और अगर नहीं देंगे तो अर्थव्यवस्था तरक्की नहीं करेगी। अमेरिका का सब-प्राइम संकट लोगों को बिना गारंटी के मकान और कार के लिए कर्ज लेने की छूट देने का परिणाम था। उसके चलते कई बैंक डूबे, ऑटोमोबाइल सेक्टर डूबा और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमरीकी साख को धक्का लगा। बल्कि वह झटका पूरी दुनिया को झेलना पड़ा। उसके बाद मंदी आई और उससे उबरने के लिए पूंजीपतियों और बाजार ने फिर सरकारों की मदद मांगी और अमेरिका के फेडरल रिजर्व से लेकर भारत तक में सरकारों को अपना खजाना खोलना पड़ा।

आर्थिक सुधारों के सिद्धांतकार और अमरीका के नोबेल विभूषित अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिग्लिट्ज, दार्शनिक और भाषाशास्त्री नोम चोमस्की, कनाडा के दार्शनिक और समाजशास्त्री जॉन रालस्टन साल और इजराइल के इतिहासकार जुआल नोवा हरारी जैसे दुनिया के कई बौद्धिक और सिद्धांतकार यह मान चुके हैं कि आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया विफल हो चुकी है। उसके पास दुनिया को समता और समृद्धि देने की न तो कोई नीति बची है और न ही कार्यक्रम। उसकी गाड़ी अब जैसे-तैसे खिंच रही है क्योंकि दुनिया के पास नए विचार देनेवालों की कमी है।

थामस पिकेटी की ‘कैपिटल इन ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’, हरारी की ‘ट्वेंटीवन लेशन्स फॉर ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’, जॉन रालस्टन साल की ‘कोलैप्स आफ ग्लोबलिज्म’ और स्टिग्लिट्ज की ‘ग्लोबलाइजेशन एंड इट्स डिसकंटेंट’ यह सब ऐसे ग्रंथ हैं जो स्पष्ट रूप से बताते हैं कि विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और डब्लूटीओ द्वारा संचालित आर्थिक सुधार का कार्यक्रम कई मोर्चों पर विफल हो चुका है। अगर वह आर्थिक तरक्की देता है तो राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं। अगर वह राजनीतिक स्वतंत्रता देता है तो आर्थिक तरक्की नहीं। अगर वह दुनिया के एक हिस्से में समृद्धि देता है तो दूसरे हिस्से में आर्थिक संकट पैदा करता है। अगर चीन तरक्की करता है तो दक्षिण अमरीका के देश संकट में डूबते हैं। अगर चीन और भारत तरक्की करते हैं तो दक्षिण पूर्व एशिया में आर्थिक संकट आता है।

सबसे बड़ी बात यह है कि आर्थिक प्रक्रिया के वैश्वीकरण का दावा करनेवाली नीति ने दुनिया में राजनीतिक और आर्थिक राष्ट्रवाद को और ज्यादा कट्टरता प्रदान की है। ब्रिटेन के ब्रैग्जिट से लेकर चीन, भारत और अमरीका तक इसके प्रमाण मौजूद हैं।
इससे भी बड़ी बात यह है कि इस प्रक्रिया ने उन देशों को तो लोकतांत्रिक बनाया ही नहीं जहां अधिनायकवाद था लेकिन भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों में भी लोकतंत्र को कमजोर करके रख दिया।

आज दुनिया भर के 45 देशों की सरकारें अपने मीडिया संस्थानों और नागरिक संस्थाओं और स्वतंत्र नागरिकों की निगरानी करने में लग गई हैं। यह महज संयोग नहीं है कि भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का बजट 33 करोड़ से 333 करोड़ हो गया है और आरोप है कि उसमें से 100 करोड़ रुपये पेगासस पर खर्च हुए हैं ताकि न्यायपालिका से लेकर कार्यपालिका और मीडिया सबकी निगरानी की जा सके।

यह डिजिटल पूंजीवाद की मेहरबानी है जो एक ओर लोगों को बेराजगार कर रहा है तो दूसरी ओर बैंकों से लेकर दूसरी संस्थाओं में तमाम घोटाले करवा रहा है। नोटबंदी से लेकर कोरोना काल में पैदा हुई बेरोजगारी और असमानता इसके उदाहरण हैं।

अब यह रस्म बन गई है कि हर सरकार दावा करती है कि आर्थिक सुधार की प्रक्रिया जारी रहेगी। लेकिन वह इस बात पर गौर नहीं करती कि इस बीच कोविड के आरंभ में हर घंटे 1,70,000 लोग बेरोजगार हुए हैं और अरबपतियों की संपत्ति में 35 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। जाहिर सी बात है कि आर्थिक सुधार की इस प्रक्रिया को पहले उपभोक्तावाद और मध्यवर्ग को सपने दिखाकर चलाया जाता था और अब इसे चलाने का तरीका धर्म और राष्ट्रवाद आधारित व्यवस्था ही है। वह पारदर्शी तरीके से और न्यायपूर्ण तरीके से नहीं चल सकती। यह बात कोरोना काल में और भी मजबूती से साबित हो गई है।

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