— गोपेश्वर सिंह —
(दूसरी किस्त)
भारत का विशाल भू-भाग, शस्य श्यामला धरती और यहां की पुरानी अच्छी बातें उन्हें भाती हैं। इस अर्थ में वे सच्चे देश-प्रेमी हैं। इसलिए वे औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति की बात जोरदार ढंग से उठाते हैं। कांग्रेस और महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चलनेवाले राष्ट्रीय आन्दोलन की जोरदार वकालत करते हैं। इस विषय पर लिखते हुए उनका राष्ट्रवादी रुझान और उनकी राष्ट्रीयता पूरी बुलंदी पर है। इसलिए ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ जैसी भावना प्रधान देशभक्तिपूर्ण कहानी हो या ‘कर्मभूमि’ जैसा स्वाधीनता संग्राम के झंझावतों से भरा उपन्यास, ‘देशी चीजों का प्रसार कैसे बढ़ सकता है’ (1905) और ‘स्वदेशी आन्दोलन’ (1905) जैसे प्रारम्भिक वैचारिक लेख हों या आर्य समाज, गाँधीवाद और मार्क्सवाद जैसी विचारधाराओं के प्रभाव से गुजरने के बाद अंतिम दिनों के लेख, प्रेमचंद साम्राज्यवाद से भारत की मुक्ति के हमेशा पक्षधर हैं।
भारत की मुक्ति की भावना राष्ट्रीयता की भावना से भरी हुई है। लेकिन मुक्ति से प्रेरित प्रेमचंद की राष्ट्रीयता सिर्फ कुछ प्रतीकों तक सीमित नहीं है। वे सिर्फ अपनी सरकार बन जाने से संतुष्ट होनेवाले राष्ट्रप्रेमी नहीं हैं। राष्ट्र, जो मेहनतकश जनता से बनता है, वे उस राष्ट्र की मुक्ति के पक्षधर हैं। इसलिए ऐसे राष्ट्रवादियों को जिनके एजेंडे में भेदभाव मिटाना नहीं है, फटकार लगाते हुए वे कहते हैं “राष्ट्रीयता की पहली शर्त है, साम्य का दृढ़ होना। इसके बिना राष्ट्रीयता की कल्पना ही नहीं की जा सकती।” (वही, पृ.471)
सच्ची राष्ट्रीयता का विकास कब होगा? जब समतामूलक समाज बनेगा, जब जाति-भेद न होगा। प्रेमचंद हिंदी के इस अर्थ में अकेले लेखक हैं जो जीवन भर जातिप्रथा का विरोध करते रहे। उनका सारा साहित्य जातिप्रथा के विरुद्ध सतत संघर्ष का साहित्य है। सामाजिक समता के लिए संघर्ष करते हुए वे कभी आर्थिक गैर-बराबरी को नहीं भूलते। इसीलिए वे ‘स्वराज्य’ के साथ-साथ ‘आर्थिक स्वराज्य’ का प्रश्न उठाते हैं।
अपनी एक टिप्पणी ‘आर्थिक स्वराज्य’ (1933) में वे आर्थिक और राजनैतिक स्वराज्य दोनों को एक-दूसरे का पूरक मानते हुए दिखायी देते हैं। उसी वर्ष की अपनी एक दूसरी टिप्पणी ‘अविश्वास’ में वे यही बात और साफ तरीके से कहते हुए दिखायी देते हैं। वे लिखते हैं “अधिकांश भारतीय स्वराज्य इसलिए नहीं चाहते कि अपने देश के शासन में उनकी आवाज ही पहले सुनी जावे, पर स्वराज्य का अर्थ उनके लिए आर्थिक स्वराज्य होता है। अपने प्राकृतिक साधनों पर अपना अधिकार, अपनी प्राकृतिक उपजों पर अपना नियंत्रण, अपनी वस्तुओं का स्वच्छंद उपभोग और अपनी पैदावार पर अपनी इच्छानुसार मूल्य लेने का स्वत्व- यही उनकी सबसे बड़ी, सबसे पहली, सबसे उत्कृष्ट माँग है। यह माँग स्वराज्य का अंग नहीं, स्वराज इसी माँग का अंग है।” (वही, पृ.152)
इस तरह प्रेमचंद का स्वराज्य, उनके भारत का सपना, आर्थिक आत्मनिर्भरता से अलग नहीं था। भारत में आज भी किसानों-मजदूरों और आदिवासियों की आर्थिक पर निर्भरता, उनके अपने ही साधनों पर अपने अधिकार न होने पर हिंदी के कितने लेखक चिंतित दिखायी देते हैं? प्रेमचंद स्वराज्य के साधन के रूप में सबसे पहला स्थान इसीलिए ‘स्वावलंबन’ को देते हैं। (वही, पृ.272) उनके अनुसार असली स्वाधीनता तभी मिलेगी जब हम अपनी जरूरतों के लिए दूसरे लोगों और देशों के मुँहताज न होंगे।
यह सही है कि प्रेमचंद भारत के लिए जिस स्वराज्य का स्वप्न देखते थे, वह ‘आर्थिक स्वराज्य’ से भिन्न न था। लेकिन वे उसके आगे सोशलिज्म का समर्थन करते हुए भी देखे जाते हैं।
प्रेमचंद अपनी एक टिप्पणी ‘रूस में समाचार पत्रों की उन्नति’ (1933) में जहाँ सोवियत संघ की प्रशंसा करते हैं, वहीं वे भारत के नेताओं में जवाहरलाल नेहरू की उनके समाजवादी विचारों के लिए खुलकर तारीफ करते हैं। नेहरू के एक व्याख्यान की चर्चा करते हुए लिखते हैं, जैसे नेहरू उनके ही मन की बात कह रहे हों। प्रेमचंद के शब्द हैं, “श्री जवाहरलाल नेहरु ने अपने व्याख्यानों में वैज्ञानिक साम्यवाद (साइंटिफिक सोशलिज्म) शब्द का प्रयोग किया। आपका अभिप्राय यह था कि वर्तमान समाज में मनुष्य-मनुष्य में जो भीषण असमानता है, वह दूर हो। यह ठीक नहीं है कि एक मनुष्य के पास अथाह धन भरा पड़ा हो और दूसरा मनुष्य भूखा मरता हो। समाज का इस प्रकार संगठन होना चाहिए जिससे कोई मनुष्य भूखा न रहने पावे, सबको पर्याप्त अन्न और वस्त्र मिले और सबको उन्नति करने का समान अवसर हो।” (वही, पृ.222) 1930 के दशक में जवाहरलाल नेहरू की जो छवि जनता में थी वह प्रेमचंद के उक्त कथन में दिखती है।
प्रेमचंद की राष्ट्रीय भावना कभी अंध-राष्ट्रवाद का रूप ग्रहण नहीं करती। वे अपने राष्ट्र से प्रेम तो करते हैं, पर विश्वबंधुत्व को तिलांजलि देकर नहीं। वे राष्ट्रीय आन्दोलन के समर्थक हैं, लेकिन उस अंध-राष्ट्रवाद के समर्थक नहीं हैं जो विश्वबंधुत्व का शत्रु है। इसीलिए वे अंध-राष्ट्रवाद की आलोचना करते हैं और अंतरराष्ट्रीयता को भारत के पुरातन सन्देश ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ से जोड़कर देखते हैं।
राष्ट्र की सेवा, उसकी स्वतंत्रता आदि सवालों को प्रेमचंद राष्ट्रीय भावना के अंतर्गत रखते हैं, लेकिन जब हमारा राष्ट्रीय हित पड़ोसी मुल्क के हित के खिलाफ हो जाए, दूसरे देशों के अस्तित्व के लिए खतरा हो जाए तो वह अंध-राष्ट्रवाद में बदल जाता है। प्रेमचंद ऐसी अन्ध-राष्ट्रीयता के विरोध में हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता’ (1933) में वे अंध-राष्ट्रीयता की तुलना मध्ययुगीन साम्प्रदायिकता से करते हैं।
प्रेमचंद लिखते हैं : “राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। साम्प्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर पूर्ण शांति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होना था। राष्ट्रीयता भी अपने अपरिमित क्षेत्र के अन्दर रामराज्य का आयोजन करती है। उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है। सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बँटा हुआ है और सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक संदेह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अंत न होगा संसार में शांति का होना असंभव है। जागरूक आत्माएं संसार में अंतरराष्ट्रीयता का प्रचार करना चाहती हैं और कर रही हैं। लेकिन राष्ट्रीयता के बंधन में जकड़ा हुआ संसार उन्हें ड्रीमर या शेखचिल्ली समझकर उनकी उपेक्षा करता है।” (वही, पृ.334)
अंतरराष्ट्रीयता को मानव संस्कृति का ऊँचा आदर्श घोषित करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं “इसमें तो कोई संदेह नहीं कि अंतरराष्ट्रीयता मानव संस्कृति और जीवन का बहुत ऊँचा आदर्श है और आदि से संसार के विचारकों ने इसी आदर्श का प्रतिपादन किया है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ इसी आदर्श का परिचायक है।”
अंतरराष्ट्रीयता के सम्बन्ध में प्रेमचंद की यह धारणा अचानक नहीं बनती है। देश में जो स्वाधीनता संघर्ष चल रहा था उसका लक्ष्य निश्चित रूप से स्वतंत्रता की प्राप्ति था। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना का जागरण आवश्यक था। किन्तु हमारे राष्ट्र नायकों ने दूसरे राष्ट्रों की कीमत पर अपने राष्ट्र की मुक्ति और उन्नति की कामना नहीं की। उसका प्रभाव भारतीय साहित्य और हिंदी साहित्य पर भी पड़ा।
हिंदी साहित्य की चेतना स्वस्थ राष्ट्रीयता के साथ उदार अंतरराष्ट्रीयता से निर्मित हुई। प्रेमचंद की राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता उसी चेतना की उपज है।
इस सम्बन्ध में प्रेमचंद के पूर्ववर्ती महावीर प्रसाद द्विवेदी के भी विचारों को देखना उचित होगा। राष्ट्र-प्रेम जब संकुचित होकर दूसरे देश के विरोध में चला जाए, इसको द्विवेदी जी ‘धूर्तों के भयंकर ढोंग’ के अंतर्गत रखते हुए अंतरराष्ट्रीयता को प्रमुखता से रेखांकित करते हैं और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के प्राचीन भारतीय आदर्श को आधुनिक सन्दर्भ में प्रासंगिक बताते हैं।” (महावीर प्रसाद रचना संचयन; संपा. भारत यायावर, ‘समस्या’ शीर्षक निबंध) द्विवेदी जी ने ठीक ही इस सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ ठाकुर को भी याद किया है जिनका चिंतन राष्ट्रीयता के साथ अंतरराष्ट्रीयता के विचारों को पुष्ट करता है। द्विवेदी जी अंधराष्ट्रीयता को यूरोप की देन मानते हैं और इसे भारत की स्वाभाविक वृत्ति नहीं मानते। कहने की जरूरत नहीं कि प्रेमचंद उसी धारा से निकले हिंदी चेतना के मुखर स्वर हैं।
एक तरफ काँग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन चल रहा था तो दूसरी तरफ मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की सांप्रदायिक राजनीति थी। प्रेमचंद लीग और सभा दोनों की सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करते हैं और कांग्रेस के नेतृत्व में चलनेवाले मुक्ति संघर्ष के पक्ष में खड़े रहते हैं।
साम्प्रदायिकता को प्रेमचंद राष्ट्रीयता का शत्रु मानते हैं और सभी सम्प्रदायों के बीच मेल मुहब्बत का माहौल बनाने में अपनी सारी लेखकीय उर्जा झोंक देते हैं। वे धर्म के आधार पर आधुनिक राष्ट्र-राज्य की कल्पना के विरुद्ध हैं।
अपनी एक टिप्पणी ‘पाकिस्तान की नयी उपज’ (1933) में प्रेमचंद न सिर्फ मुहम्मद इकबाल के धर्म के आधार पर पाकिस्तान के निर्माण संबंधी प्रस्ताव का विरोध करते हैं, बल्कि यह भी कहना नहीं भूलते कि धर्म राष्ट्र-निर्माण का आधार नहीं हो सकता। (विविध प्रसंग; भाग-2, पृ.409-10) दुर्भाग्य से प्रेमचंद की यह बात सही नहीं निकली। पाकिस्तान बना, लेकिन धर्म आधारित होने के कारण क्या वह सचमुच आधुनिक राष्ट्र-राज्य के दर्जे में गिने जाने लायक है? प्रेमचंद इसीलिए आजीवन साम्प्रदायिकता से संघर्ष करते रहे। वे धर्म के ऊँचे भावों का सम्मान करते ही हैं, उसे जीवन में उतारने की बात करते हैं, लेकिन उसके संकीर्ण अर्थ का हमेशा विरोध करते हैं।
सांप्रदायिक दंगों पर, हिन्दू-मुस्लिम समस्याओं पर उन्होंने जितनी अधिक मात्रा में जोरदार टिप्पणियां लिखी हैं, उतनी और वैसी हिन्दी के किसी दूसरे लेखक ने शायद ही लिखी हों।
‘सांप्रदायिकता और संस्कृति’ नामक अपने प्रसिद्ध निबंध में प्रेमचंद ने साफ शब्दों में कहा है : “सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रौब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं।” (krantiswarablogspot.in)
सांप्रदायिकता, अंधविश्वास आदि की आलोचना करते हुए प्रेमचंद आगे लिखते हैं : “ये जमाना सांप्रदायिक अभ्युदय का नहीं है। ये आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी आर्थिक समस्याओं को हल कर सके, जिससे ये अंधविश्वास और ये धर्म के नाम पर किया गया पाखंड या नीति के नाम पर गरीबों को दुहने की कथा मिटाई जा सके।” (वही)
भेदमूलक राजनीति और उस राजनीति से पोषित राष्ट्र प्रेमचंद के सपनों का राष्ट्र नहीं था। जातिभेद, सांप्रदायिकता और गरीबी के विरुद्ध लड़नेवाले वे हिन्दी के सबसे बड़े योद्धा थे। वे जिस स्वतंत्र भारत का सपना देखते थे, उनमें इन बुराइयों की कल्पना भी नहीं करते थे। महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू के प्रति उनके निबंधों और टिप्पणियों में जो सम्मान है, वह अकारण नहीं है। वे भारत को जिस राष्ट्र-राज्य के रूप में देखना चाहते थे, उन्हें लगता था कि वे दोनों उसके सच्चे प्रहरी हैं।
कांग्रेस में तरह-तरह के लोग थे। जमींदारपरस्त और सांप्रदायिक मनोवृत्ति के कांग्रेसियों के प्रेमचंद सदा आलोचक रहे, लेकिन गाँधी और साथ ही नेहरू की ओर आशा भरी निगाहों से देखते रहे। अछूतोद्धार, जातिभेद का विरोध, सांप्रदायिकता का खात्मा, पर्दा प्रथा का विरोध, स्त्री शिक्षा पर जोर और स्वावलंबी भारत की परिकल्पना आदि विषयों पर लिखते हुए वे गाँधी से कदमताल करते हुए दिखते हैं।
आधुनिक भारत के निर्माण के लिए जो कार्य गाँधी अपने रचनात्मक कार्यों के जरिए कर रहे थे वही काम प्रेमचंद अपने वैचारिक निबंधों के जरिए कर रहे थे।
प्रेमचंद का एक प्रसिद्ध वाक्य कहावत की तरह हिंदी समाज में लोगों की जुबान पर है, जो उनकी कहानी ‘आहुति’ का है : “ऐसे स्वराज का आना व्यर्थ है जिसमें जॉन की जगह गोविंद गद्दी पर बैठ जाए।” इससे पता चलता है कि उनके मन में ‘स्वराज’ और ‘राष्ट्र’ का जो चित्र था वह बहुत साफ था। वे सिर्फ पात्र परिवर्तन के नहीं, व्यवस्था परिवर्तन के हिमायती थे। वे भारत के लिए जिस स्वराज की बात करते थे, वह स्वावलम्बी तो था ही, जाति-भेद और संप्रदाय-भेद से भी मुक्त था।
वे जाति-भेद के सवाल पर आंबेडकर की तरह, संप्रदाय-भेद पर गाँधी की तरह और अमीरी-गरीबी के सवाल पर एक समाजवादी की तरह सोचते थे। जीवन, समाज और राष्ट्र के इतने व्यापक धरातल को छूने वाले वे हिंदी के सबसे बड़े लेखक थे।
गाँधी के नेतृत्व में काँग्रेस ने प्रस्ताव पारित कर स्वराज के जिस रूप का संकल्प लिया था, उस पर प्रेमचंद ने अपनी एक टिप्पणी ‘काँग्रेस’ (1931) में लिखा : “अब काँग्रेस का ध्येय राष्ट्र के सामने है। वह गरीबों की संस्था है, गरीबों के हितों की रक्षा उसका प्रधान कर्तव्य है। उसके विधान में मजदूरों, किसानों और गरीबों के लिए वही स्थान है जो अन्य लोगों के लिए। वर्ग, जाति, वर्ण आदि के भेदों को उसने एकदम मिटा दिया है।” (वही, पृ.75) प्रेमचंद की नजर में ‘स्वराज्य’ के लिए लड़नेवाली काँग्रेस का यही रूप था! अफसोस यह है कि यह देखने के लिए वे जीवित न रहे कि ‘स्वराज्य’ तो आया किन्तु भारत वैसा राष्ट्र-राज्य नहीं बन सका जिसका वे सपना देखते थे और जिसके लिए वे जीवन भर कलम से लड़ते रहे।
(समाप्त )