(‘हिंदू बनाम हिंदू’ लोहिया के प्रसिद्ध प्रतिपादनों में से एक है। भारत के इतिहास के गहन अनुशीलन से वह बताते हैं कि हिंदू धर्म या समाज में कट्टरता और उदारता का द्वंद्व हमेशा चलता रहा है लेकिन जब उदारता हावी रही है तभी भारत भौतिक, सांस्कृतिक और नैतिक रूप से ऊपर उठा है, आगे बढ़ा है। यानी कट्टरता का दौर जब भी रहा, स्वयं हिंदू धर्म और समाज के लिए अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारनेवाला साबित हुआ। आज जब भारत में हिंदुत्व के नाम पर कट्टरवाद सिर उठाये हुए है तो लोहिया के उपर्युक्त प्रतिपादन को याद करना और याद कराना और जरूरी हो गया है। इसी तकाजे से इसे कुछ किस्तों में प्रकाशित किया जा रहा है।)
भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई हिंदू धर्म में उदारवाद और कट्टरता की लड़ाई पिछले पांच हजार सालों से भी अधिक समय से चल रही है और उसका अंत अभी भी दिखायी नहीं पड़ता। इस बात की कोई कोशिश नहीं की गयी, जो होनी चाहिए थी कि इस लड़ाई को नजर में रखकर हिंदुस्तान के इतिहास को देखा जाए। लेकिन देश में कुछ होता है, उसका बहुत बड़ा हिस्सा इसी के कारण होता है।
सभी धर्मों में किसी न किसी समय उदारवादियों और कट्टरपंथियों की लड़ाई हुई है। लेकिन हिंदू धर्म के अलावा वे बंट गए, अकसर उनमें रक्तपात हुआ और थोड़े या बहुत दिनों की लड़ाई के बाद वे झगड़े पर काबू पाने में कामयाब हो गये। हिंदू धर्म में लगातार उदारवादियों और कट्टरपंथियों का झगड़ा चला आ रहा है जिसमें कभी एक की जीत होती है कभी दूसरे की और खुला रक्तपात तो कभी नहीं हुआ है, लेकिन झगड़ा आज तक हल नहीं हुआ और झगड़े के सवालों पर एक धुंध छा गया है।
ईसाई, इस्लाम और बौद्ध, सभी धर्मों में झगड़े हुए। कैथोलिक मत में एक समय इतने कट्टरपंथी तत्त्व इकट्ठा हो गये कि प्रोटेस्टेंट मत ने, जो उस समय उदारवादी था, उसे चुनौती दी। लेकिन सभी लोग जानते हैं कि सुधार आंदोलन के बाद प्रोटेस्टेंट मत में खुद भी कट्टरता आ गयी। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट मतों के सिद्धांतों में अब भी बहुत फर्क है लेकिन एक को कट्टरपंथी और दूसरे को उदारवादी कहना मुश्किल है। ईसाई धर्म में सिद्धांत और संगठन का भेद है तो इस्लाम धर्म में शिया-सुन्नी का बंटवारा इतिहास के घटनाक्रम से संबंधित है। इसी तरह बौद्ध धर्म हीनयान और महायान के दो मतों में बंट गया और उनमें कभी रक्तपात तो नहीं हुआ, लेकिन उसका मतभेद सिद्धांत के बारे में है, समाज की व्यवस्था से उसका कोई संबंध नहीं।
हिंदू धर्म में ऐसा कोई बंटवारा नहीं हुआ। अलबत्ता वह बराबर छोटे-छोटे मतों में टूटता रहा है। नया मत उतनी ही बार उसके ही एक नये हिस्से के रूप में वापस आ गया। इसीलिए सिद्धांत के सवाल कभी साथ-साथ नहीं उठे और सामाजिक संघर्षों का हल नहीं हुआ। हिंदू धर्म नये मतों को जन्म देने में उतना ही तेज है जितना प्रोटेस्टेंट मत, लेकिन उन सभी के ऊपर वह एकता का एक अजीब आवरण डाल देता है जैसी एकता कैथोलिक संगठन ने अंदरूनी भेदों पर रोक लगाकर कायम की है। इस तरह हिंदू धर्म में जहां एक ओर कट्टरता और अंधविश्वास का घऱ है, वहां वह नयी-नयी खोजों की व्यवस्था भी है।
हिंदू धर्म अब तक अपने अंदर उदारवाद और कट्टरता के झगड़े का हल क्यों नहीं कर सका, इसका पता लगाने की कोशिश करने के पहले, जो बुनियादी दृष्टि-भेद हमेशा रहा है, उस पर नजर डालना जरूरी है। चार बड़े और ठोस सवालों, वर्ण, स्त्री, संपत्ति और सहनशीलता के बारे में हिंदू धर्म बराबर उदारवाद और कट्टरता का रुख बारी-बारी से लेता रहा है।
चार हजार साल या उससे भी अधिक समय पहले कुछ हिंदुओं के कान में दूसरे हिंदुओं के द्वारा सीसा गलाकर डाल दिया जाता था और उनकी जबान खींच ली जाती थी क्योंकि वर्ण-व्यवस्था का नियम था कि कोई शूद्र वेदों को पढ़े या सुने नहीं। तीन सौ साल पहले शिवाजी को यह मानना पड़ा था कि उनका वंश हमेशा ब्राह्मणों को ही मंत्री बनाएगा ताकि हिंदू रीतियों के अनुसार उनका राजतिलक हो सके। करीब दो सौ वर्ष पहले, पानीपत की आखिरी लड़ाई में, जिसके फलस्वरूप हिंदुस्तान पर अंग्रेजों का राज्य कायम हुआ, एक हिंदू सरदार दूसरे सरदार से इसलिए लड़ गया कि वह, अपने वर्ण के अनुसार, ऊंची जमीन पर तंबू लगाना चाहता था। करीब पंद्रह साल पहले एक हिंदू ने हिंदुत्व की रक्षा करने की इच्छा से महात्मा गांधी पर बम फेंका था, क्योंकि उस समय वे छुआछूत का नाश करने में लगे थे। कुछ दिनों पहले तक, और कुछ इलाकों में अब भी हिंदू नाई अछूत हिंदुओं की हजामत बनाने को तैयार नहीं होते, हालांकि गैर-हिंदुओं का काम करने में उन्हें कोई एतराज नहीं होता।
इसके साथ ही प्राचीन काल में वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ दो बड़े विद्रोह हुए। एक पूरे उपनिषद् में वर्ण-व्यवस्था को सभी रूपों में पूरी तरह खत्म करने की कोशिश की गयी है। हिंदुस्तान के प्राचीन साहित्य में वर्ण-व्यवस्था का जो विरोध मिलता है, उसके रूप, भाषा और विस्तार से पता चलता है कि ये विरोध दो अलग-अलग कालों में हुए- एक आलोचना का काल और दूसरा निंदा का। इस सवाल को भविष्य की खोजों के लिए छोड़ा जा सकता है, लेकिन इतना साफ है कि मौर्य और गुप्त वंशों के स्वर्ण-काल वर्ण-व्यवस्था के एक व्यापक विरोध के बाद हुए।
लेकिन वर्ण कभी पूरी तरह खत्म नहीं होते। कुछ कालों में बहुत सख्त होते हैं और कुछ अन्य कालों में उनका बंधन ढीला पड़ जाता है। कट्टरपंथी और उदारवादी वर्ण-व्यवस्था के अंदर ही एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं और हिंदू इतिहास के दो कालों में एक या दूसरी धारा के प्रभुत्व का ही अंतर होता है। इस समय उदारवादी का जोर है और कट्टरपंथियों में इतनी हिम्मत नहीं है कि वे गौर कर सकें। लेकिन कट्टरता उदारवादी विचारों में घुस कर अपने को बचाने की कोशिश कर रही है। अगर जन्मना वर्णों की बात करने का समय नहीं तो कर्मणा जातियों की बात की जाती है। अगर लोग वर्ण-व्यवस्था का समर्थन नहीं करते तो उसके खिलाफ काम भी शायद ही कभी करते हैं और एक वातावरण बन गया है जिसमें हिंदुओं की तर्कबुद्धि और उनकी दिमागी आदतों में टकराव है। व्यवस्था के रूप में वर्ण कहीं-कहीं ढीले हो गये हैं लेकिन दिमागी आदत के रूप में अभी भी मौजूद हैं। इस बात की आशंका है कि हिंदू धर्म में कट्टरता और उदारता का झगड़ा अभी भी हल न हो।
आधुनिक साहित्य ने हमें यह बताया है कि केवल स्त्री ही जानती है कि उसके बच्चे का पिता कौन है, लेकिन तीन हजार वर्ष या उसके भी पहले जबाल को स्वयं भी नहीं मालूम था कि उसके बच्चे का पिता कौन है और प्राचीन साहित्य में उसका नाम एक पवित्र स्त्री के रूप में आदर के साथ लिया गया है। हालांकि वर्ण-व्यवस्था ने उसके बेटे को ब्राह्मण बनाकर उसे भी हजम कर लिया। उदार काल का साहित्य हमें चेतावनी देता है कि परिवारों के स्रोत की खोज नहीं करनी चाहिए क्योंकि नदी के स्रोत की तरह वहां भी गंदगी होती है। अगर स्त्री बलात्कार का सफलतापूर्वक विरोध न कर सके तो उसे कोई दोष नहीं होता क्योंकि इस साहित्य के अनुसार स्त्री का शरीर हर महीने नया हो जाता है। स्त्री को भी तलाक और संपत्ति का अधिकार है। हिंदू धर्म के स्वर्ण युगों में स्त्री के प्रति यह उदार दृष्टिकोण मिलता है जबकि कट्टरता के युगों में उसे केवल एक प्रकार की संपत्ति माना गया है जो पिता, पति या पुत्र के अधिकार में रहती है।
इस समय हिंदू स्त्री एक अजीब स्थिति में है, जिसमें उदारता भी है और कट्टरता भी। दुनिया के और भी हिस्से हैं जहाँ स्त्री के लिए सम्मानपूर्ण पद पाना आसान है लेकिन संपत्ति और विवाह के संबंध में पुरुष के समान ही स्त्री के भी अधिकार हों, इसका विरोध अब भी होता है। मुझे ऐसे पर्चे पढ़ने को मिले जिनमें स्त्री को संपत्ति का अधिकार न देने की वकालत इस तर्क पर की गयी थी कि वह दूसरे धर्म के व्यक्ति से प्रेम करने लगकर अपना धर्म न बदल दे, जैसे यह दलील पुरुषों के लिए कहीं ज्यादा सच न हो। जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े न हों, यह अलग सवाल है, जो स्त्री व पुरुष दोनों वारिसों पर लागू होता है, और एक सीमा से छोटे टुकड़ों के और टुकड़े न होने पाएं, इसका कोई तरीका निकालना चाहिए।
जब तक कानून या रीति-रिवाज या दिमागी आदतों में स्त्री और पुरुष के बीच विवाह और संपत्ति के बारे में फर्क रहेगा, तब तक कट्टरता पूरी तरह खत्म नहीं होगी।
हिंदुओं के अंदर स्त्री को देवी के रूप में देखने की इच्छा, जो अपने उच्च स्थान से कभी न उतरे, उदार से उदार लोगों के दिमाग में भी बेमतलब के और संदेहास्पद खयाल पैदा कर देती है। उदारता और कट्टरता एक-दूसरे से जुड़ी रहेंगी जब तक हिंदू अपनी स्त्री को अपने समान ही इंसान नहीं मानने लगता।
हिंदू धर्म में संपत्ति की भावना संचय न करने और लगाव न रखने के सिद्धांत के कारण उदार है। लेकिन कट्टरपंथी हिंदू कर्म-सिद्धांत की इस प्रकार व्याख्या करता है कि धन और जन्म या शक्ति में बड़े की शक्ति का स्थान ऊंचा है और जो कुछ है वही ठीक भी है। संपत्ति का मौजूदा सवाल कि मिल्कियत निजी हो या सामाजिक, हाल ही का है। लेकिन संपत्ति की स्वीकृत व्यवस्था या संपत्ति से कोई लगाव न रखने के रूप में यह सवाल हिंदू दिमाग में बराबर रहा है। अन्य सवालों की तरह संपत्ति और शक्ति के सवालों पर भी हिंदू दिमाग अपने विचारों को उनकी तार्किक परिणति तक भी नहीं ले जा पाया। समय और व्यक्ति के साथ हिंदू धर्म में इतना ही फर्क पड़ता है कि एक या दूसरे को प्राथमिकता मिलती है।
(दूसरी किस्त कल)