(समाजवादी आंदोलन को अमूमन पिछड़ों के उभार से जोड़कर देखा जाता रहा है। लेकिन समाजवादी आंदोलन ने दलितों-आदिवासियों के लिए कौन-सी लड़ाइयां लड़ीं, इसकी जानकारी दूसरों को क्या, अब समाजवादी धारा के भी कम लोगों को है। लिहाजा, यहां समाजवादी आंदोलन के इस अपेक्षया ओझल इतिहास को सामने लाने की एक संक्षिप्त कोशिश की गयी है। लेख का पहला हिस्सा कल छपा था। दूसरे हिस्से में दलित प्रसंग में समाजवादियों के कुछ और आंदोलनों की जानकारी देने के अलावा, समाजवादी पृष्ठभूमि के लोगों के एक खासे हिस्से में बाद में आयी फिसलन को भी चिह्नित किया गया है। साथ ही बाबासाहेब आंबेडकर के उस आह्वान की तरफ भी ध्यान खींचा गया है कि दलित बुद्धिजीवी अपने प्रश्नों तक ही सीमित न रहें।)
दलित-आदिवासी महिलाओं को प्रत्याशी बनाना
मध्यप्रदेश और राजस्थान के दलितों और आदिवासियों के बीच महिला नेतृत्व के विकास के लिए भी चुनाव प्रक्रिया का प्रभावशाली इस्तेमाल किया गया। इसमें मामा बालेश्वर दयाल के मार्गदर्शन में 1952 के चुनाव में बाँसवाड़ा (राजस्थान) से जसोदा बहन और झाबुआ (मध्यप्रदेश) से जमुना बहन की विजय आकर्षक उदाहरण थे। जबकि कांग्रेस ने राजवंश से उम्मीदवार उतारा था और प्रचार में स्वयं प्रधानमंत्री नेहरू आये। आगे इन दोनों महिला नेताओं ने आदिवासियों के बीच फैल रही दहेज प्रथा के खिलाफ कानूनी बंदिश लगवायी और 1956 के शराबबंदी सत्याग्रह का नेतृत्व किया।
इसी प्रकार 1962 के आमचुनाव में सोशलिस्ट पार्टी ने महारानी ग्वालियर विजया राजे सिंधिया के विरुद्ध सफाई कर्मचारी सुक्खोरानी को चुनाव लड़ाकर देश को चौंका दिया था। स्वयं डॉ. राममनोहर लोहिया ने सुक्खोरानी का प्रचार करते हुए उनकी उम्मीदवारी को प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू के विरुद्ध अपनी उम्मीदवारी से महत्त्वपूर्ण बताया। इस उम्मीदवारी के जरिये समाजवादियों ने शताब्दियों से जारी विषमताओं और अन्यायों के कारक वर्ग और पीड़ित वर्ग के प्रतीकों को आमने सामने किया और ‘रानी बनाम मेहतरानी’ के सच का साक्षात्कार कराने में सफलता पायी। उनका दावा था कि इस मुकाबले से जातिप्रथा की सामंतवादी चट्टान टूटेगी नहीं लेकिन दरकेगी जरूर। मात्र चार दशक के अंतराल पर सुक्खोरानी की तीसरी पीढ़ी की महिलाओं ने ग्वालियर ही नहीं मध्यप्रदेश की राजनीति की पहली कतार में जगह बनाने का कौशल दिखाया।
वंचित जमातों में नेतृत्व निर्माण के इसी क्रम में समाजवादियों ने स्वतंत्रता सेनानी फरीदुल हक़ अंसारी, महिला नेता सरला भदौरिया और आंध्रप्रदेश की कापू जाति के समाजवादी युवा नेता गौडे मुराहरि को उत्तर प्रदेश से राज्यसभा का सांसद भी बनाया। मुराहरि बाद में राज्यसभा के उपाध्यक्ष भी बने। समाजवादियों की वंचित समाज के प्रति विशेष अवसर की नीति से प्रभावित होकर झारखंड क्षेत्र के लोकप्रिय आदिवासी नेता जयपाल सिंह और आंबेडकरवादी नेता बुद्धप्रिय मौर्य भी लोहिया के निमंत्रण पर समाजवादियों के संसदीय दल के सदस्य बन गए थे।
सफाई कर्मचारियों के आन्दोलन (इटावा, उ.प्र.; 1953-1954)
समाजवादियों द्वारा सफाई कर्मचारी के रूप में जीवन निर्वाह करनेवाले दलितों की समस्याओं के लिए अनेकों अभियान भी चलाये जाते रहे है। इनमें इटावा में 1953-54 में समाजवादी नेता कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया, देवी दयाल दुबे और सरला भदौरिया के नेतृत्व में हुए दो आन्दोलन विशेष महत्त्व की घटनाएं थीं।
1953 में इटावा के सफाई कर्मचारियों की कार्य-दशा में सुधार के लिए एक प्रयास किया गया। पहले भंगी-मेहतर समुदाय के सवालों पर जनमत बनाने के लिए जन-सभाएं की गयीं। पर्चे बांटे गए। इसके फलस्वरूप जनपद के सामाजिक और राजनीतिक संगठनों द्वारा समर्थन की घोषणाएं होने लगीं। घबराये जिला प्रशासन ने आन्दोलन की घोषित तिथि के एक दिन पहले 7 फरवरी, 1953 को इटावा के 30 प्रमुख समाजवादियों और 100 से अधिक सफाई कर्मचारियों को गिरफ्तार कर लिया।
अगले दिन पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी आचार्य कृपालानी का इटावा आगमन हुआ। समाजवादी कार्यकर्ताओं की सफाई कर्मचारी आन्दोलन के सन्दर्भ में गिरफ्तारी से उनकी जनसभा का आयोजन नहीं हो सका। आचार्य कृपालानी समाजवादी कार्यकर्ताओं और सफाई कर्मचारी आन्दोलन के नेताओं से मिलने श्रीमती सरला भदौरिया के साथ इटावा जिला जेल पहुँच गये। उन्होंने आन्दोलन की मांगों की जानकारी ली। फिर तत्काल मुख्यमंत्री गोविन्दवल्लभ पंत से बात की। परिणामस्वरूप अगले दिन जेल में बंद रखे गये सभी आन्दोलनकारियों की बिना शर्त रिहाई हुई।
अगले वर्ष, 1954 में उत्तर प्रदेश सफाई कर्मचारी यूनियन के आह्वान पर इटावा में एक और आन्दोलन हुआ। सांसद भगवानदीन बाल्मीकि उ.प्र. सफाई कर्मचारी यूनियन के अध्यक्ष थे। लगातार 10 दिनों तक चली हड़ताल में समाजवादियों ने विशेष हिस्सेदारी की थी। अर्जुन सिंह भदौरिया, सरला भदौरिया और देवीदयाल दुबे की अगुआई में पूरे इटावा शहर में जनसभाओं के जरिये प्रबल समर्थन का वातावरण बना दिया गया। सफाई कर्मचारियों के साथ प्रतिदिन प्रदर्शन और सत्याग्रहियों की गिरफ्तारी का सिलसिला चला।
इसमें तीस से ज्यादा समाजवादियों और एक सौ से ज्यादा सफाई कर्मचारी स्त्री-पुरुषों को जेल में डाल दिया गया। गिरफ्तार होनेवाले समाजवादी नेताओं में देवीदयाल दुबे, राजेन्द्रनाथ द्विवेदी, सरला भदौरिया और अर्जुन सिंह भदौरिया प्रमुख थे। गिरफ्तारी के बाद जेल में अर्जुन सिंह भदौरिया ने अनशन शुरू कर दिया। अनशन के पांचवें दिन भदौरिया जी की हालत बिगड़ने पर एक डॉक्टर और परिचारक के साथ भदौरिया दम्पति का इलाहाबाद स्थानान्तरण कर दिया गया। देवीदयाल दुबे को बनारस जेल में स्थानांतरित किया गया। इलाहाबाद कारागार में सरला भदौरिया ने अपने दो बरस के पुत्र सुधीन्द्र के साथ गिरफ्तारी के बावजूद 17 दिनों तक अनशन किया और दो महीने तक बंदी रखी गयीं। इस दौरान इलाहाबाद के समाजवादियों ने विजयदेव नारायण साही, सालिगराम जायसवाल, छुन्नन गुरु आदि के नेतृत्व में इस आन्दोलन के पक्ष में वातावरण बनाया। उनके समर्थन में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के जत्थे भी जेल में मिलने आया करते थे।
इस हड़ताल से पूरे शहर में बढ़ रही गंदगी और कूड़े के अम्बार से इटावा प्रशासन उग्र हो गया। इसी क्रम में एक दिन अपराह्न में प्रदर्शन के दौरान झाड़ू-पंजे के साथ नारे लगा रही जमादारिनों के प्रति एक पुलिस अधिकारी ने अभद्र भाषा का प्रयोग किया और भद्दी बातें कहीं। इसपर समाजवादियों की अगुआई में सभी महिलाएं पुलिस अधिकारी पर टूट पड़ीं और उसकी पिटाई हो गयी। पुलिस अधिकारी से इस करतूत के लिए महिलाओं से माफ़ी की मांग करते हुए पूरे शहर में जुलूस घूमा और अधिकारी के खिलाफ नारेबाजी हुई। इन सभी प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारी हुई और कोतवाली में रात 12 बजे मजिस्ट्रेट के सामने पेश करके जेल भेज दिया गया।
आपसी मतभेद के कारण प्रादेशिक स्तर पर सफाई कर्मचारी आन्दोलन सफल नहीं हो सका और हड़ताल वापस ले ली गयी। लेकिन इटावा में सफाई कर्मचारियों ने बंदी नेताओं की रिहाई की मांग की और सभी के कारागार से बाहर आने पर ही काम पर लौटने को तैयार हुए।
आदिवासियों का ‘घेरा डालो’ आन्दोलन (पलामू, 1958)
1958 में छोटा नागपुर का पूरा आदिवासी इलाका भयंकर अकाल की चपेट में था। अन्न और जल दोनों का अकाल था। इससे बिहार के पलामू (अब झारखंड राज्य में) से लेकर मध्यप्रदेश के भीलवाड़ा तक ‘दुष्काल’ की समस्या ने मनुष्यों से लेकर पशु-पक्षी तक का जीवन दूभर कर दिया था। इसके बारे में कुछ मांगों को लेकर समाजवादियों ने आदिवासियों की सभा बुलायी। एक बड़े आन्दोलन के लिए जनमत बनाने की योजना थी। कार्यक्रम के मुख्य आकर्षण आदिवासियों के बीच स्वतंत्रता सेनानी समाजवादी नेता मामा बालेश्वर दयाल थे। 1956 में काशी विश्वनाथ मंदिर प्रवेश सत्याग्रह के लिए जेल सजा पूरी करके आदिवासियों के काम में जुटे कृष्णनाथ मुख्य आयोजक थे। बालेश्वर दयाल ने उन्हें बंगाल, उत्तर प्रदेश और बिहार के झारखंड अंचल के लिए जिम्मेदारी दी थी। काशी विद्यापीठ में शिक्षित केशव शास्त्री, पूरन चंद, और बिलाल सिद्दीकी प्रमुख सहयोगी थे।
जब सभा विसर्जित हुई तो आदिवासियों ने घेर लिया कि कोई कार्रवाई करके मांगें पूरी करायी जाएँ क्योंकि इनको पूरा किये बिना जीवन संभव नहीं है। हम वापस कहाँ जायं? क्या खाएं, क्यां पीएं? समाजवादी नेताओं ने बड़े आन्दोलन के लिए तैयारी की जरूरत बतायी। इसपर आन्दोलन की आशा से जुटे आदिवासी स्त्री-पुरुषों ने दबाव डाला कि जो कुछ करना है आज ही करना है। विचार-विमर्श से यह तय हुआ कि अन्न और जल का जिम्मा प्रखंड विकास अधिकारी का होता है इसलिए बी.डी.ओ. के यहाँ चलें। वह अधिकारी नहीं थे तो भीड़ ने कहा कि अफसर नहीं है तो उनके परिवार को घेरेंगे। समझाने पर तय हुआ कि स्थानीय पुलिस थाने पर चला जाए। क्योंकि तब तक थाना बिहार में सरकार का एक प्रतिनिधि जैसा था। जब अकाल पीड़ित आदिवासियों की अधनंगी भीड़ रंका थाना पहुंची तो पुलिसवालों में खलबली मच गयी। कुछ रायफलें बरामदे में पड़ी थीं जिसको लूटने की बात भीड़ में चलने लगी। समाजवादी कार्यकर्ताओं ने अहिंसा की मर्यादा बनाये रखते हुए इसके लिए सख्त मनाही की और हथियारों को यथावत रखकर प्रदर्शनकारी भीड़ बरामदे से नीचे उतर गयी। हथियारों का लूटा जाना गलत था। आखिर समाजवादियों का तरीका तो गांधी का रास्ता है और उसमें हथियार के लिया कोई गुंजाइश नहीं है।
रंका का थानेदार स्वयं एक स्थानीय आदिवासी था। उसने हमदर्दी दिखाते हुए भी कुछ सहायता न कर पाने की विवशता प्रकट की। यह एक दुर्गम इलाके का दुर्गम खंड था। पलामू जिले की गढ़वा तहसील का रंका थाना। पुलिस का एक संदेशवाहक आखिरी बस से तहसील भेजा गया। रातभर थाने पर घेरा डाला गया। इसकी जानकारी पूरे क्षेत्र में फैली। दूसरे दिन सुबह अफसरों का दल रंका पहुँच गया। आन्दोलनकारियों से बातचीत करके पानी के टैंकर की व्यवस्था से लेकर राहत के लिए कार्ड जारी करने की सहमति बनी। लेकिन आदिवासियों ने विपदा के समाधान के लिए सरकारी मजदूर बनने के प्रस्ताव को इनकार कर दिया। अन्न और पानी के ठोस समाधान के बिना घेरा जारी रखने का इरादा बनाया। उनकी तरफ से कहा गया कि हम जंगल के राजा हैं। आप कहते हैं कि विपदा से मजबूर होकर हम सड़क कूटें और मिट्टी डालें। क्या यह राजा का काम है? हमें ‘राहत कार्ड’ की बजाय स्थायी समाधान दीजिए।
उन्हीं दिनों डॉ. राममनोहर लोहिया बिहार का दौरा कर रहे थे। उन्होंने इस आन्दोलन की जानकारी मिलते ही पटना, आरा, सासाराम, बक्सर और आसपास के इलाकों में भाषण करके उन इलाकों में इसके लिए समर्थन पैदा कर दिया। उन्होंने कहा कि अकाल के खिलाफ ‘घेरा डालो आन्दोलन’ शुरू हो चुका है और यह तब तक नहीं रुकेगा जब तक भूख की समस्या का समाधान नहीं होता।
शीघ्र ही रंका थाने का घेरा डालो आन्दोलन बिहार और मध्यप्रदेश के अकाल पीड़ित क्षेत्रों के बारे में टिकाऊ उपायों की शुरुआत का कारण बना। सत्याग्रह के जरिये बनी आदिवासियों और समाजवादियों की एकजुटता आगे के लिए मिसाल भी हो गयी। इस आन्दोलन ने साठ के दशक में बंगाल में कम्युनिस्टों की पहल पर ‘घेराव’ का रूप लिया।
बकेवर गोलीकांड (इटावा, उ.प्र., 12 सितम्बर,1968)
12 सितम्बर 1968 को इटावा (उत्तर प्रदेश) में राष्ट्रपति शासन के दौरान एक दलित महिला के साथ हुई पुलिस बर्बरता के खिलाफ उत्पन्न जन-आक्रोश के दमन के लिए बकेवर पुलिस थाने से हुई गोलीवर्षा ने पूरे प्रदेश और देश को झकझोर दिया था। इसमें पांच लोग शहीद हुए और 14 लोग गोली लगने अस्पताल ले जाये गये। एक सौ से अधिक सार्वजनिक कार्यकर्ता गिरफ्तार करके लम्बे अरसे तक जेल में बंद रखे गए। सबकी उच्च न्यायालय से ही जमानत हो पायी। इसकी गूँज देश की संसद में हुई। इटावा जिला वकील संघ से लेकर सर्वदलीय संघर्ष समिति (कांग्रेस और जनसंघ को छोड़कर) ने न्यायिक जांच की मांग की। समाजवादियों ने प्रदेश स्तर पर ‘बकेवर कांड दिवस’ का आयोजन किया। राजधानी में प्रधानमन्त्री इंदिरा गाँधी को ज्ञापन दिया गया। राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन से हस्तक्षेप की अपील की गयी।
इसकी पृष्ठभूमि में क्रूर सामंतों द्वारा निर्धन दलितों की फसल की बर्बादी और उनके इशारे पर पुलिस द्वारा एक दलित मां के साथ पाशविक व्यवहार का प्रसंग जुड़ा हुआ था। इटावा के बकेवर थाने के अंतर्गत सारंगपुर नगला अड्डा गाँव की पांचो देवी ने गाँव के दबंगों के मवेशियों द्वारा अपनी फसल की बर्बादी को लेकर कई बार आरजू-मिन्नतें की थीं। उसकी सुनवाई करके रोकथाम के बजाय थानेदार ने उस असहाय महिला को अपने बेटे के साथ थाने बुलाकर बंद कर दिया। फिर महिला को निर्वस्त्र करके उसके बेटे को मां के साथ बलात्कार करने के लिए रात भर प्रताड़ित किया गया। अगले दिन इस बर्बर कांड की जानकारी पूरे क्षेत्र में आग की तरह फैल गयी।
इसकी एक नागरिक जांच समिति द्वारा पुष्टि होते ही सामाजिक कार्यकर्ताओं और दलित वर्ग के युवकों में आक्रोश होना स्वाभाविक था। समाजवादियों की पहल पर सर्वोदय से लेकर कम्युनिस्ट संगठनों के कार्यकर्ताओं की एक जन संघर्ष समिति गठित की गयी जिसने दोषी पुलिसवालों को दंडित करने की मांग की। सांसद सरला भदौरिया ने प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी से मुलाकात की। समाजवादी नेता अर्जुन सिंह भदौरिया ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री रामसेवक यादव (सांसद) और प्यारेलाल तालिब (पूर्व सांसद) के साथ केन्द्रीय मंत्रियों से इसके बारे में भेंट की। प्रतिदिन बकेवर थाना के निकटवर्ती गाँवों में सभाएं की गयीं। जिलेभर में पर्चा वितरण हुआ। 16 अगस्त से 9 दिसम्बर के बीच क्रमश: जिलाधिकारी, राष्ट्रपति और पुन: जिलाधिकारी को पत्र लिखे गये। अंतत: 12 सितम्बर को जन-प्रदर्शन किया गया।
इस सर्वदलीय आह्वान पर 12 सितम्बर को पचास हजार से अधिक लोग बकेवर थाने के सामने एकत्रित हो गये। लेकिन प्रशासन ने उद्दंड पुलिसवालों के खिलाफ कार्रवाई की बजाय निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोली चलवा दी। इसमें एक दर्जन से अधिक लोगों को गोलियां लगीं और कई दर्जन पुलिस के प्रहार से आहत हुए। समूची घटना में शहीद हुए और घायल लोगों में दो तिहाई से अधिक दलित समुदाय के निर्दोष नागरिक थे। इस घटना ने उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार और राजस्थान के दलितों में एक नयी चेतना का संचार किया।
भारतीय दलित विमर्श में समाजवादियों के योगदान के वैचारिक आयाम, आंदोलनात्मक भागीदारी और विधायिका से जुड़ी चुनावी उपलब्धियों का 1934 से अबतक के नौ दशकों के विस्तार के बारे में जानना और समझना एक जरूरी बौद्धिक और राजनीतिक जिम्मेदारी है। लेकिन कई कारणों से दलित प्रश्नों से सक्रिय सरोकार रखनेवालों से लेकर समाजवादी आन्दोलन के मंचों से जुड़े लोगों में इसके बारे में जानकारी और दिलचस्पी का अभाव एक शोचनीय तथ्य रहा है।
पिछले सौ बरसों में भारतीय समाज, अर्थतंत्र और राजनीति में आये बड़े बदलावों का भी इसमें हाथ है। दलित विमर्श औपनिवेशिक सत्ता संसार में प्रतिनिधित्व की आशा से आगे बढ़कर संसदीय सत्ता में हिस्सेदारी के अभियान के रूप में विकसित हो गया है। वैश्वीकरण में निहित पूंजीवादी प्रवेश द्वार में भी संभावनाएं तलाशी जा रही हैं। इसलिए शिक्षा और साझेदारी से लैस हिस्सों में दलित होने का दंश कम हुआ है। वैसे अभी भी दलित पहचान से जुड़ी अधिकांश जातियों के वंचित और दमित स्त्री-पुरुषों के जीवन में संसदीय जनतंत्र के सात दशकों बाद भी निर्धनता और निरक्षरता के दो पाटों से निकलने के बहुत कम उपाय उपलब्ध हैं।
उधर समाजवादियों एक बड़े हिस्से ने समाजवाद की जाति-नीति, विशेषकर लोहिया के नाम को एक सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करने का कौशल सीख लिया है। दलितों और शूद्रों में, स्त्रियों और पुरुषों में, हिन्दुओं में और मुसलमानों में जलन बढ़ी है और दूरियां बढ़ी हैं। इससे राजनीतिकरण बढ़ने के साथ ही जातियां और जातीयता मजबूत हुए हैं। दोनों जाने-अनजाने आरक्षणवाद से आगे देखने की इच्छा और जरूरत के बारे में उदासीन हो गए हैं। जबकि डॉ. आंबेडकर का आह्वान था कि दलित बुद्धिजीवी केवल ‘अपने प्रश्नों’ तक सीमित न रहकर सार्वभौमिकता की जिम्मेदारी उठाएं। उदात्त जीवन मूल्यों को रेखांकित करें। जिससे गाँव में फैला अँधेरा दूर हो सके। उधर समाजवादी चिंतन में जाति और वर्ग के पीड़ितों की एकता के आधार पर न्याय और समता की लड़ियों को जोड़ने का संकल्प रहा है। इसके लिए उन्हें दलित विमर्श से अभिन्नता के लिए तत्पर होना चाहिए।
आइए, उम्मीद करें कि दलित विमर्श और समाजवादियों के परस्पर रिश्ते के ताजा इतिहास के महत्त्वपूर्ण पृष्ठों को पलटने से भविष्य के अध्याय रचना आसान हो सकेगा।