— मंथन —
दस वर्षीय जनगणना का दौर शुरू हो गया है और साथ ही इसपर बहस भी शुरू हो गयी है। जो दल पिछड़ों की राजनीति करते रहे हैं, उनकी यह मांग है कि जनगणना में जातियों खासकर पिछड़ी जातियों की गिनती अवश्य हो। और दूसरी तरफ केन्द्र की भाजपा सरकार अड़ी है कि अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति की गणना तो होगी, किन्तु पिछड़ी जाति की गणना नहीं होगी। आज की फासिस्ट भाजपा बनाम सेकुलर एवं अन्य डेमोक्रेटिक के राजनीतिक ध्रुवीकरण के माहौल में शायद ही कोई धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक व्यक्ति भाजपा सरकार की किसी भी राय के साथ दिखना चाहे। ऐसे में कुछ लोग मौन की राहत-भरी राह भी चुन सकते हैं। लेकिन बिहार छात्र आंदोलन से निकले छात्र युवा संघर्ष वाहिनी की पृष्ठभूमि वाले लोग अमूमन ज्वलंत सवालों पर मौन नहीं चुनते। धारा के खिलाफ जाकर भी अपनी राय बनाते और जाहिर करते रहे हैं।
जातीय जनगणना के प्रश्न पर इस धारा के लोगों की राय खास तौर पर अपेक्षित है, क्योंकि जातीय पहचान के मामले में उनका एक अलग ही आचरण रहा है। छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के साथी जाति-सूचक उपनाम नहीं लगाते रहे हैं और जातिभेद व धर्मभेदके आचरण से बचने की हर कोशिश करते रहे हैं। इसी धारा के एक संगठन जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी ने 2011 की जनगणना में जाति एवं धर्म से मुक्त पहचान का कॉलम बनाने या अलग से दर्ज करने की अनुमति देने के लिए जनगणना आयुक्त से इसकी मांग की थी। यह मांग मान्य हुई थी और 2011 की जनगणना में जसवा के साथियों तथा समर्थकों ने कोई जाति नहीं, कोई धर्म नहीं अपने विवरण में दर्ज भी कराया था।
इस कारण उनके बारे में यह सहज भ्रम बन सकता है कि वे जातीय जनगणना के पक्ष में नहीं होंगे। किंतु वाहिनी की धारा को नजदीक से जानने-समझने वाले इस भ्रम में नहीं पड़ेंगे। उन्हें बस जिज्ञासा होगी कि इनकी इस बारे में क्या राय है, क्या भूमिका है। क्योंकि छात्र युवा संघर्ष वाहिनी की विरासत के लोग सामाजिक व शैक्षिक आधार पर, एक तरह से कहें तो जातीय आधार पर वंचित लोगों को हर क्षेत्र में, हर संस्थान में आरक्षण देने के पक्ष में हमेशा स्पष्टता और दृढ़ता से डटे रहे हैं। यह मानते रहे हैं कि जाति आधारित आरक्षण से जातीयता बढ़ेगी नहीं, बल्कि जातीय विषमता और भेदभाव घटेंगे।
अब जातीय जनगणना के मसले पर केन्द्रित होकर बातें करें। संघर्ष वाहिनी की वैचारिकता में दीक्षित होने के नाते मेरी अपनी समझ है कि जातीय जनगणना सही और जरूरी है।
जातीय जनगणना और 2011 में हो चुकी जातीय जनगणना के नतीजों को जारी करने से बचने की कोशिश असल में जातिगत विषमता की सच्चाई को छिपाने, एक नकली या खोखली धार्मिक एकता गढ़ने और सवर्ण या कुछ दबंग जातियों के वर्चस्व को बरकरार रखने की कोशिश है ।
इसके पक्ष में सबसे बड़ा तर्क तो सच जानने की कोशिश करने और उजागर सच को सार्वजनिक तौर पर बताने और स्वीकार करने का है। सच अगर अवांछनीय हो, तो भी उसे पूरा का पूरा जानना-समझना जरूरी है। किसी बीमारी, किसी कमजोरी को छिपाकर, उससे अनजान रहकर या बनकर उस कमजोरी या बीमारी से छुटकारा नहीं मिल सकता। अगर जातीय विभाजन सही है तो बताने में कोई दिक्कत ही नहीं होनी चाहिए। और गलत है, तो गलती दूर करने के लिए उस गलती की परत-दर-परत, हर परत जाननी चाहिए। आरक्षण को सही ढंग से जारी रखने या उसमें प्रभावी सुधार लागू करने के लिए भी अद्यतन जातीय जनगणना उपयोगी होगी।
अगर मोहन भागवत मनमाने या ब्राह्मणी तरीके से नहीं, तथ्यात्मक एवं तार्किक तरीके से जारी आरक्षण की समीक्षा करना चाहते हैं, तब तो यह जनगणना अनिवार्य होगी। वे या उनके लोग अगमज्ञानी तो है नहीं।
दूसरा तर्क पहचान के अधिकार का है। हर नागरिक को अपनी पहचान रखने, बताने और उसे दर्ज कराने का अधिकार है और हमेशा होना चाहिए। अपनी पहचान के रूप में उसे अपना विश्वास, अपने समुदाय को बताने का अवसर होना चाहिए। उस व्यक्त पहचान को दर्ज करने और उसे जनगणना जैसे दस्तावेजों में जगह देकर उसे सार्वजनिक करने का दायित्व सरकार का बनता है।
इस तरह से कहें तो जो लोग जाति जनगणना की बात कर रहे हैं उनकी माँग को स्वीकृति मिलनी ही चाहिए। अर्थात जातीय जनगणना का मूल तार्किक आधार पहचानों की अभिव्यक्ति और उसकी सार्वजनिक सरकारी स्वीकृति के अधिकार से जुड़ा है। यहीं से बात थोड़ी और आगे बढ़ती है। सिर्फ जातीय पहचान ही एकमात्र पहचान नहीं है। बहुत सारे लोग जाति नहीं मानते, धर्म नहीं मानते। बहुत सारे लोग ऐसी धार्मिक पहचान रखते और चाहते हैं, जो अबतक सरकारी कागजों में दर्ज ही नहीं है। इन सबों को भी अपनी अलग पहचान के रूप में सार्वजनिक तौर पर दिखने का हक है। इन पहचानों के प्रति तो ज्यादा संवेदनशील बरताव मिलना चाहिए, क्योंकि सरकार तो क्या संगठित समुदाय और पहचानों की मुख्यधाराएं भी इन्हें नहीं मानना चाहतीं। उन्हें किसी पुराने नाम के खाँचे में ही बाँधे, जकड़े रखना चाहती हैं।
सामाजिक गतिशीलता और चल रही सामाजिक प्रक्रियाओं के सच को समझने के लिए इन नयी पहचानों की पुरानी सामुदायिक (जातीय, धार्मिक और अन्य) पृष्ठभूमि की जानकारी ली जा सकती है, पर उन्हें उस पुरानी पहचान में जबरन जकड़े नहीं रखा जा सकता।
जाहिर है, इन पहचानों को दर्ज करने के दरम्यान कई नयी सामाजिक पहचानें हमारे सामने आएंगी। उन नयी पहचानों की नयी खासियतों और समस्याओं से भी हमारा परिचय होगा। उनकी जरूरतों को भी हम सबको और सरकार को सम्बोधित करना होगा। इसमें अनेक वंचनाग्रस्त, आहत और उपेक्षित सामाजिक समूह भी होंगे। मसलन सामाजिक बहिष्कार झेल रहे अन्तर्जातीय, अन्तर्धार्मिक, अन्तर्सामुदायिक शादी करनेवाले लोगों का समूह। इसमें भी दलित या पिछड़े लड़के और सवर्ण लड़की, गैरहिन्दू लड़का और हिन्दू लड़की के विवाह वाले समूह। ऐसे समूहों को सामाजिक न्याय की हकदार नयी श्रेणी में शामिल करना होगा। उन्हें विशेष संरक्षण और विशेष अवसर की जरूरत है।
इस तरह नयी जनगणना में जातीय जनगणना होनी ही चाहिए। जातीय ही नहीं, सारी पहचानों को जगह देनेवाली जनगणना होनी चाहिए। कुछ जटिलता होगी, कई नये चौकोर या गोल खाने जोड़ने होंगे, कुछ खुले खाने भी नयी पहचानों को दर्ज करने के लिए रखने होंगे। लेकिन इससे क्या, सरकारें अपने हित में एक से एक जटिल साधन और योजनाएं थोपती रहती हैं। कुछ समाज का सच जानने और समाज की चाह पूरी करने के लिए भी जटिलता झेलें।
स्वतंत्रता, समता, न्याय के लिए तत्पर लोगों को वंचनाग्रस्त पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए तथा अन्य नयी वंचनाग्रस्त आहत पहचानों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण, अन्य विशेष अवसर की माँग ज्यादा से ज्यादा बुलन्द करते रहनी चाहिए। पचास फीसद आरक्षण की तथाकथित पवित्र और संवैधानिक सीमा का छल अमान्य करना चाहिए। यह संवैधानिक सीमा नहीं है, आरक्षण-वंचित न्यायपालिका का तथ्य-असंगत और सामाजिक रूप से संवेदनहीन अदालती हदबन्दी है।