— हिमांशु जोशी —
गुलज़ार साहब की कुछ लाइनों से शुरू हुई ये किताब आपको बस उन चंद शब्दों से किताब का सार समझा देती है।
इसके बाद ‘द हिन्दू’ के पूर्व प्रधान संपादक एन. राम ने प्रधानमंत्री द्वारा पहले लॉकडाउन की घोषणा करने से 1232 किमी कथा बनने तक के सफर को कुछ इस तरह समझाया है कि आपकी बंद हो चुकी आंखों में लॉकडाउन की कहानी फिर घूमने लगेगी। यह प्रस्तावना आपको फिल्मों के ऐसे ट्रेलर की तरह लगेगी जो मिनटों में ही लाखों बार देख लिया जाता है।
अब आपको मार्ग मानचित्र दिखाया गया है जिसका सफर आप किताब पढ़ने के साथ पूरा करेंगे। भूमिका में लेखक ने सीधे पाठकों से मुखातिब हो लॉकडाउन की कुछ ऐसी कहानियां बतायी हैं जिनसे आप विचलित हो उठेंगे। यहां लेखक इस कहानी को लिखने के दौरान बनाये गये खुद के नियमों पर बात करते यह भी कहते हैं कि इस यात्रा को पढ़ने के बाद ‘मजदूर’ शब्द के प्रति पाठकों का नजरिया बदल जाएगा।
भूमिका के बाद लेखक ने किताब को आभार सहित 11 हिस्सों में बांटा है, जो आकर्षित करनेवाले शीर्षकों से शुरू होते हैं।
‘बेचेहरा और बेनाम’ भाग से इस सफर की शुरुआत की गयी है। यह किताब पढ़ते हुए शुरुआत से ही हमें यह लगने लगता है कि विनोद कापड़ी सामने बैठ लॉकडाउन की दिल डुबा देनेवाली कहानी सुना रहे हैं, इस बीच लेखक की उन सात मजदूरों से हुई शुरुआती बातचीत भी किताब में पढ़ने को मिलती है।
‘पुलिस की उस मरी हुई आत्मा के घेरे को कैसे पार करें जहां एक मजदूर उसे इनसान तक नहीं दिखता है’ जैसी पंक्ति लॉकडाउन के दौरान का पुलिस का अमानवीय चेहरा हमारे सामने लाती है। किताब को आगे पढ़ते हुए आपको मकानमालिकों के रवैये, मजदूरों द्वारा चोरी तक करने के बने हालात और फिर उनकी यात्रा में हुई मुश्किलों के बारे में पता चलेगा। जिस तरह के खतरे उठा यह यात्रा करी जा रही थी, उसके बारे में पढ़ आप यह जरूर सोचने लगेंगे कि क्या सभी मजदूर ऐसे ही खुशनसीब रहे होंगे।
गंगा नदी वाला वाकया किताब की जान है। कुछ ऐसी ही घटनाओं की वजह से किताब आधुनिक भारत का सबसे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज बन गयी है, जो समाज को उसकी सच्चाई दिखा समाज के बनावटी मुंह पर तमाचा भी है।
मजदूरों के घर की कहानी सुन लेखक का अपने बचपन को याद करना भावुक कर देता है। ‘जातियों से आगे बढ़ अब छुआछूत कोरोना तक आ पहुंचा है’ किस्सा बिल्कुल नया नवेला है।
मजदूरों द्वारा मॉब लिंचिंग कर मारे जाने का विचार आनेवाली बात भी कई नये सवाल उठाती है, ऐसी बातें इसी कहानी पर बनी फिल्म के जरिए समझ पाना मुश्किल था और ऐसे सवाल किताब पढ़ ही बन सकते हैं। ‘अशरफ’ साइकिल वाले का किस्सा हिन्दू-मुस्लिम जपनेवालों को लाख बार पढ़ना चाहिए।
‘सब दिन होत न एक समान’ में लेखक इस यात्रा में अपनी बदलती भूमिका पर बात करते हैं जो आपको भी लेखक के साथ इस यात्रा के बहाव में बहाते लेकर चली जाती है।
‘ये जो आप हमारा वीडियो बना रहे हैं, इससे हमारी दशा में सुधार होगा क्या?’ लेखक के पास इसका जवाब नहीं था पर शायद किताब अपने पाठकों पर इसका जवाब छोड़ गयी है।
शाहजहांपुर जिले की पुलिस वाली घटना किताब पढ़ते पहली बार हंसने का मौका देती है। सरकार की सहायता से खाना मिलना और फिर ट्यूबवेल में नहाने वाला किस्सा पढ़ आप मज़दूरों की समस्या खत्म होती देखेंगे और खुद भी एक राहत सी महसूस करेंगे.
रामसुरेश यादव, जयविन्द और प्रत्यूष का किस्सा पढ़ लगता है कि ऐसे लोग पूरे भारत में होते तो यह किताब लिखने की जरूरत ही नहीं पड़ती, फिर यह भी ध्यान आता है कि क्या हमने कोरोना काल के बाद इन लोगों को फिर से याद किया!राजकुमार के बारे में पढ़ने से पता चलता है कि ख़ाकी पहने हर इंसान एक से नहीं होते। मजदूरों द्वारा मजदूरों को ही लूटने की घटना से दिल पसीज जाता है, अच्छा ही हुआ कि उन तंत्र के सताए मजदूरों के चेहरे डॉक्यूमेंट्री में नहीं दिखे।
बिहार पहुंचने के बाद कहानी एक अलग ही मोड़ ले लेती है और लेखक यहां पर मजदूरों से भावनात्मक रूप से कुछ ज्यादा ही जुड़े लगते हैं। मजदूरों की भीड़ का वर्णन हो या बिहार के सरकारी अमले द्वारा कोरोना रोकथाम के लिए किया गया कुप्रबंधन, लेखक ने सब कुछ यहां पर बेहतरीन तरीके से अपनी कलम के जरिए लिख दिया है।
मजदूरों कितने घण्टे भूखे रहे यह जान आपका तंत्र के प्रति विश्वास उठ सा जाएगा। किताब में लिखे गये कुछ दृश्य आपको डॉक्यूमेंट्री में देखने ही होंगे, उनमें बस के ऊपर वाला दृश्य मुख्य है।
किताब के अंत में इस यात्रा से जुड़ी कुछ तस्वीरें हैं। कोरोना काल के बाद दिल्ली वापस लौटे मजदूरों के साथ लेखक की चर्चा सवाल छोड़ जाती है कि कोरोना की तीसरी लहर आने पर मजदूर फिर सड़कों पर न दिखें, इसके लिए हम कितने तैयार हैं।
किताब के आवरण चित्र पर बात की जाए तो साइकिल पकड़े मजदूरों की तस्वीर से अच्छा उनकी भावनाओं को दर्शाता कोई चित्र दिखाया जाता तो थोड़ा बेहतर हो सकता था, किताब और इस पर बनी डॉक्यूमेंट्री में ऐसे बहुत से अवसर थे जिनकी एक यादगार तस्वीर आवरण चित्र पर लगायी जा सकती थी।
जब भविष्य में कृषि कानून पर सरकार का रुख क्या रहा होगा, यह समझ न आए तो एक बार मेहनतकशों पर सरकार के रुख को समझने के लिए विनोद कापड़ी का यह दस्तावेज़ खोल पढ़ा जा सकता है।
किताब आधुनिक भारत का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज बन गयी है, जो समाज को उसकी सच्चाई दिखा समाज के बनावटी मुंह पर तमाचा भी है।
किताब- 1232 KM
लेखक- विनोद कापड़ी
प्रकाशक- सार्थक
लिंक- https://www.amazon.in/dp/9390971276/ref=cm_sw_r_apan_glt_fabc_RB25AH4WXHRDC92TPDYW
मूल्य- 199 रुपए