(‘हिंदू बनाम हिंदू’ लोहिया के प्रसिद्ध प्रतिपादनों में से एक है। भारत के इतिहास के गहन अनुशीलन से वह बताते हैं कि हिंदू धर्म या समाज में कट्टरता और उदारता का द्वंद्व हमेशा चलता रहा है लेकिन जब उदारता हावी रही है तभी भारत भौतिक, सांस्कृतिक और नैतिक रूप से ऊपर उठा है, आगे बढ़ा है। यानी कट्टरता का दौर जब भी रहा, स्वयं हिंदू धर्म और समाज के लिए अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारनेवाला साबित हुआ। आज जब भारत में हिंदुत्व के नाम पर कट्टरवाद सिर उठाये हुए है तो लोहिया के उपर्युक्त प्रतिपादन को याद करना और याद कराना और जरूरी हो गया है। इसी तकाजे से इसे कुछ किस्तों में प्रकाशित किया जा रहा है।)
मैं बेहिचक कह सकता हूं कि मुझे सड़ने की अपेक्षा झगड़े से मरना ज्यादा पसंद है। लेकिन विचार और व्यवहार के क्या यही दो रास्ते मनुष्य के सामने हैं? क्या खोज की वैज्ञानिक भावना का एकता की रागात्मक भावना से मेल बैठाना मुमकिन नहीं है? जिसमें एक दूसरे के अधीन न हों और समान गुणों वाले दो कर्मों के रूप में दोनों बराबरी की जगह पर हों। वैज्ञानिक भावना वर्ण के खिलाफ और स्त्रियों के हक में, संपत्ति के खिलाफ और सहिष्णुता के हक में काम करेगी और धन पैदा करने के ऐसे तरीके निकालेगी जिससे भूख और गरीबी दूर होगी। एकता की सृजनात्मक भावना वह रागात्मक शक्ति पैदा करेगी जिसके बिना मनुष्य की बड़ी-से-बड़ी कोशिशें लाभ, ईर्ष्या, शक्ति और घृणा में बदल जाती हैं।
यह कहना मुश्किल है कि हिंदू धर्म यह नया दिमाग पा सकता है और वैज्ञानिक और रागात्मक भावनाओं में मेल बैठ सकता है या नहीं। लेकिन हिंदू धर्म दरअसल है क्या? इसका कोई एक उत्तर नहीं, बल्कि कई उत्तर हैं। इतना निश्चित है कि हिंदू धर्म कोई खास सिद्धांत या संगठन नहीं है न विश्वास और व्यवहार का कोई नियम उसके लिए अनिवार्य ही है। स्मृतियों और कथाओं, दर्शन और रीतियों की एक पूरी दुनिया है जिसका कुछ हिस्सा बहुत ही बुरा है और कुछ ऐसा है जो मनुष्य के काम आ सकता है। इन सबसे मिलकर हिंदू दिमाग बनता है जिसकी विशेषता कुछ विद्वानों ने सहिष्णुता और विविधता में एकता बतायी है। हमने इस सिद्धांत की कमियां देखीं और यह देखा कि दिमागी निष्क्रियता दूर करने के लिए कहां उसमें सुधार की जरूरत है।
इस सिद्धांत को समझने में आमतौर पर यह गलती की जाती है कि उदार हिंदू धर्म हमेशा अच्छे विचारों और प्रभावों को अपना लेता है चाहे वे जहां से भी आए हों, जबकि कट्टरता ऐसा नहीं करती। मेरे खयाल में यह विचार अज्ञानपूर्ण है। भारतीय इतिहास के पन्नों में मुझे ऐसा कोई काल नहीं मिला जिसमें आजाद हिंदू ने विदेशों में विचारों या वस्तुओं की खोज की हो। हिंदुस्तान और चीन के हजारों साल के संबंध में मैं सिर्फ पांच वस्तुओं के नाम जान पाया हूं जिनमें सिंदूर भी है, जो चीन से भारत लायी गयी। विचारों के क्षेत्र में कुछ भी नहीं आया।
आजाद हिंदुस्तान का आमतौर पर बाहरी दुनिया से एकतरफा रिश्ता होता था जिसमें कोई विचार बाहर से नहीं आते थे और वस्तुएं भी कम ही आती थीं, सिवाय, चांदी आदि के। जब कोई विदेशी समुदाय आकर यहां बस जाता और समय बीतने पर हिंदू धर्म का ही एक अंग या वर्ण बनने की कोशिश करता तब जरूर कुछ विचार और कुछ चीजें अंदर आतीं। इसके विपरीत गुलाम हिंदुस्तान और उस समय का हिंदू धर्म विजेता की भाषा, उसकी आदतों और उसके रहन-सहन की बड़ी तेजी से नकल करता है। आजादी में दिमाग की आत्मनिर्भरता के साथ गुलामी में पूरा दिमागी दिवालियापन मिलता है। हिंदू धर्म की इस कमजोरी को कभी नहीं समझा गया और यह खेद की बात है कि उदारवादी हिंदू अज्ञानवश, प्रचार के लिए इसके विपरीत बातें फैला रहे हैं।
आजादी की हालत में हिंदू दिमाग खुला जरूर रहता है, लेकिन केवल देश के अंदर होनेवाली घटनाओं के प्रति। बाहरी विचारों और प्रभावों के प्रति तब भी बंद रहता है। यह उसकी एक बड़ी कमजोरी है और भारत के विदेशी शासन का शिकार होने का एक कारण है। हिंदू दिमाग को अब न सिर्फ अपने देश के अंदर की बातों बल्कि बाहर की बातों के प्रति भी अपना दिमाग खुला रखना होगा और विविधता में एकता के अपने सिद्धांत को सारी दुनिया के विचार और व्यवहार पर लागू करना होगा।
आज हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता की लड़ाई ने हिंदू-मुसलमान झगड़े का ऊपरी रूप ले लिया है लेकिन हर ऐसा हिंदू जो अपने धर्म और देश के इतिहास से परिचित है, उन झगड़ों की ओर भी उतना ही ध्यान देगा जो पांच हजार साल से भी अधिक समय से चल रहे हैं और अभी तक हल नहीं हुए। कोई हिंदू मुसलमानों के प्रति सहिष्णु नहीं हो सकता जब तक कि वह उसके साथ ही वर्ण और संपत्ति के विरुद्ध और स्त्रियों के हक में काम न करे।
उदार और कट्टर हिंदू धर्म की लड़ाई अपनी सबसे उलझी हुई स्थिति में पहुंच गई है और संभव है कि उसका अंत भी नजदीक ही हो। कट्टरपंथी हिंदू अगर सफल हुए तो चाहे उऩका उद्देश्य कुछ भी हो, भारतीय राज्य के टुकड़े कर देंगे न सिर्फ हिंदू-मुस्लिम दृष्टि से बल्कि वर्णों और प्रांतों की दृष्टि से भी। केवल उदार हिंदू ही राज्य को कायम कर सकते हैं। अतः पांच हजार वर्षों से अधिक की लड़ाई अब इस स्थिति में आ गयी है कि एक राजनैतिक समुदाय और राज्य के रूप में हिंदुस्तान के लोगों की हस्ती ही इस बात पर निर्भर है कि हिंदू धर्म में उदारता की कट्टरता पर जीत हो।
धार्मिक और मानवीय सवाल आज मुख्यतः एक राजनैतिक सवाल है। हिंदू के सामने आज यही एक रास्ता है कि अपने दिमाग में क्रांति लाए या फिर गिर कर दब जाए। उसे मुसलमान और ईसाई बनना होगा और उन्हीं की तरह महसूस करना होगा। मैं हिंदू-मुस्लिम एकता की बात नहीं कर रहा क्योंकि वह एक राजनैतिक, संगठनात्मक या अधिक से अधिक सांस्कृतिक सवाल है। मैं मुसलमान और ईसाई के साथ हिंदू की रागात्मक एकता की बात कर रहा हूं, धार्मिक विश्वास और व्यवहार में नहीं, बल्कि इस भावना में कि “मैं वह हूं”। ऐसी रागात्मक एकता हासिल करना कठिन मालूम पड़ सकता है, या अकसर एक तरफ हो सकता है और उसे हत्या और रक्तपात की पीड़ा सहनी पड़ सकती है।
मैं यहां अमरीकी गृह-युद्ध की याद दिलाना चाहूंगा जिसमें चार लाख भाइयों ने भाइयों को मारा और छह लाख व्यक्ति मरे लेकिन जीत की घड़ी में अब्राहम लिंकन और अमरीका के लोगों ने उत्तरी और दक्षिणी भाइयों के बीच ऐसी ही रागात्मक एकता दिखायी।
हिंदुस्तान का भविष्य चाहे जैसा भी हो, हिंदू को अपने-आपको पूरी तरह बदलकर मुसलमान के साथ ऐसी रागात्मक एकता हासिल करनी होगी। सारे जीवों और वस्तुओं की रागात्मक एकता में हिंदू का विश्वास भारतीय राज्य की राजनैतिक जरूरत भी है कि हिंदू मुसलमान के साथ एकता महसूस करे। इस रास्ते पर बड़ी रुकावटें और हारें हो सकती हैं, लेकिन हिंदू दिमाग को किस रास्ते पर चलना चाहिए, यह साफ है।
कहा जा सकता है कि हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता की इस लड़ाई को खत्म करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि धर्म से ही लड़ा जाए। यह हो सकता है लेकिन रास्ता टेढ़ा है और कौन जाने कि चालाक हिंदू धर्म, धर्म विरोधियों को भी अपना एक अंग बनाकर निगल न जाए। इसके अलावा कट्टरपंथियों को जो भी अच्छे समर्थक मिलते हैं, वह कम पढ़े-लिखे लोगों में और शहर में रहनेवालों में। गांव के अनपढ़ लोगों में तत्काल चाहे जितना भी जोश आ जाए वे उसके स्थायी आधार नहीं बन सकते। सदियों की बुद्धि के कारण पढ़े-लिखे लोगों की तरह गांव वाले भी सहिष्णु होते हैं। कम्युनिज्म या फासिज्म जैसे लोकतंत्रविरोधी सिद्धांतों से ताकत पाने की खोज में जो वर्ण और नेतृत्व के मिलते-जुलते विचारों पर आधारित हैं, हिंदू धर्म का कट्टरपंथी अंश भी धर्म-विरोधी का बाना पहन सकता है।
अब समय है कि हिंदू सदियों से इकट्ठा हो रही गंदगी को अपने दिमाग से निकाल कर उसे साफ करे। जिंदगी की असलियतों और अपनी परम सत्य की चेतना, सगुण सत्य और निर्गुण सत्य के बीच उसे एक सच्चा और फलदायक रिश्ता कायम करना होगा। केवल इसी आधार पर वह वर्ण, स्त्री, संपत्ति और सहिष्णुता के सवालों पर हिंदू धर्म के कट्टरपंथी तत्त्वों को हमेशा के लिए जीत सकेगा जो इतने दिनों तक उसके विश्वासों को गंदा करते रहे हैं और उसके देश के इतिहास में बिखराव लाते रहे हैं।
पीछे हटते समय हिंदू धर्म में कट्टरता अकसर उदारता के अंदर छिपकर बैठ जाती है। ऐसा फिर न होने पाए। सवाल साफ हैं। समझौते से पुरानी गलतियां फिर दुहराई जाएंगी। इस भयानक युद्ध को अब खत्म करना ही होगा। भारत के दिमाग की एक नयी कोशिश तब शुरू होगी जिसमें बौद्धिक का रागात्मक से मेल होगा, जो विविधता में एकता को निष्क्रिय नहीं बल्कि सशक्त सिद्धांत बनाएगी और जो स्वच्छ लौकिक खुशियों को स्वीकार करके भी सभी जीवों और वस्तुओं की एकता को नजर से ओझल न होने देगी।
– 1950, जुलाई
(समाप्त )