— कश्मीर उप्पल —
हम जानते हैं कि पूंजीवाद शब्द की व्युत्पत्ति ‘पूंजी’ शब्द से हुई है। अतः हम पूंजीवाद को धन के शास्त्र के रूप में देखते हैं। अब यह पूर्णतः गलत साबित हो चुका है।
पूंजीवाद का एक तत्त्व पूंजी है परन्तु यह इसके अन्य तत्त्वों के बिना एक तरह से निष्क्रिय रहता है। पूंजी के अन्य घटकों में मशीनें, टेक्नोलॉजी, ऊर्जा के साधन, कच्चा माल और ज्ञान विज्ञान का स्तर है। आजकल इन सभी तत्त्वों में टेक्नोलॉजी सबसे प्रमुख बन गयी है। अमरीका और यूरोप से टेक्नोलॉजी ही है जो दूसरे देशों में कच्चे माल और बाजार की खोज में घूम रही है, जहां धन है पर टेक्नोलॉजी नहीं है।
पूंजीवाद की पहली अवस्था में कोलंबस की ‘खोज’ के फलस्वरूप गुलामों के सस्ते श्रम से ही यूरोप में कृषि और यातायात का विकास तेजी से शुरू हुआ था। सर्वप्रथम पूंजीवाद का अर्थ दो ऐसी पुस्तकों के माध्यम से चर्चित हुआ था जो अपनी अवधारणा में परस्पर विरोधी हैं। एडम स्मिथ की पुस्तक ‘वेल्थ आफ नेशंस’ पूंजीवादी व्यवस्था की आधारशिला मानी जाती है। एडम स्मिथ ने सरकार की भूमिका को कानून व्यवस्था और जनकल्याण तक सीमित कर आर्थिक क्रियाकलापों से दूर रखा था। उनके अनुसार राज्य का काम शासन करना है न कि व्यापार करना। इस तरह पूंजीवाद में केवल निजी क्षेत्र आर्थिक कार्यकलाप संपन्न करता है।
प्रसिद्ध लेखक मारिस डॉब के अनुसार, पूंजीवादी प्रणाली की सर्वप्रथम चर्चा के लिए मूलतः कार्ल मार्क्स जिम्मेदार हैं। कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा 1848 में ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ में पूंजीवाद के विभिन्न स्वरूपों की चर्चा की गयी थी। इसी घोषणापत्र के माध्यम से पहली बार दुनिया के सामने ‘पूंजीवाद का सत्य’ उजागर हुआ था।
‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ में पूंजीवाद के संबंध में कहा गया है कि पूंजीपति से मतलब आधुनिक पूंजीपति वर्ग से अर्थात सामाजिक उत्पादन के साधनों के स्वामियों और उजरती श्रम के मालिकों से है। सर्वहारा से मतलब आधुनिक उजरती मजदूरों से है, जिनके पास उत्पादन का अपना खुद का कोई साधन नहीं होता, इसीलिए वे जीवित रहने के लिए अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए विवश होते हैं।
मार्क्स की इस परिभाषा से यह बात समझ में आनी चाहिए कि महात्मा गांधी चरखे को क्यों इतना महत्त्व देते थे। गांधीजी ने उजरती मजदूरों, जिनके पास उत्पादन का अपना खुद का साधन नहीं होता, को चरखे के तौर पर उत्पादन का एक साधन प्रदान किया था। गांधी लघु एवं कुटीर उद्योगों के माध्यम से भी उजरती मजदूरों को जीवन की सुरक्षा प्रदान करना चाहते थे। गांधीजी के इन प्रयोगों के फलस्वरूप ही श्रमिक जीवित रहने के लिए अपनी श्रमशक्ति बेचने को बाध्य नहीं होते हैं।
पूंजीवाद में मजदूरों के एक बहुत बड़े वर्ग को उत्पत्ति के साधनों के स्वामित्व से अलग कर दिया जाता है। इस स्थिति में प्रतीत होता है कि श्रमिकों की जीविका भूमि, कच्चे माल और बैंकों आदि के स्वामियों पर निर्भर करती है। इसलिए देश के अधिकांश लोगों की जीविका, सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता देने वालों के रूप में पूंजीपतियों की भूमिका किसी राष्ट्र की भूमिका से बड़ी दीखने लगती है। पूंजीवाद में दो वर्ग होते हैं। एक, उत्पादन के साधनों के स्वामी, और दूसरा, उजरती मजदूरों का।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री सोम्बार्ट ने अपने अध्ययन में मध्यकाल में संपत्ति के कुछ हाथों में एकत्रीकरण का अध्ययन किया था। उनके अनुसार, रोम के पोप और सामंतों के आदेश से कुलीन जागीरदारों और यूरोप के व्यापारिक केंद्रों के कुछ व्यक्तियों के हाथों में विशाल संपत्ति एकत्रित होने लगी थी।
मध्यकाल में सर्वप्रथम दस्तकारी पूंजीवाद प्रारंभ हुआ था। इसमें व्यापारी अग्रिम राशि देकर कारीगरों का माल खरीद लेते थे। इस माल को व्यापारियों द्वारा दुनिया के बाजारों में ऊंची कीमत पर बेचा जाता था। सोलहवीं शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक आर्थिक विकास में व्यापारियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी। इतिहासकार इसका उल्लेख व्यापारिक क्रांति के रूप में करते हैं। इसमें मजदूरों की यथास्थिति बनी रही और लाभ के रूप में अतिरिक्त पूंजी व्यापारियों के हाथ में केंद्रित होती रही।
पश्चिम यूरोप के देशों में धर्म ने भी पूंजीवाद के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रोटेण्ट सुधारों के फलस्वरूप संपत्ति का अधिकार, उत्तराधिकार का नियम, अनुबंध की स्वतंत्रता, स्वतंत्र बाजार, साख प्रणाली और राजनैतिक संगठनों ने पूंजीवाद के विकास हेतु आवश्यक आधार स्थापित किया था। धार्मिक केंद्रों द्वारा धन अर्जित करने वाले साहसिक कार्यों का सम्मान किया जाने लगा था। इसके फलस्वरूप लोगों में अधिकतम धन अर्जित करने की भावना उत्पन्न हुई।
औद्योगिक क्रांति कोई अचानक होने वाली घटना नहीं थी। पंद्रहवीं शताब्दी के बाद लगभग डेढ़ सौ वर्षों में इसका विकास फैला हुआ था।
युद्ध और व्यापार में विजय पाने के लिए ‘व्यापारिक पूंजीवाद’ ने विज्ञान को प्रोत्साहन दिया। सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में नए बाजारों (देशों) पर अधिकार के प्रश्न पर कई युद्ध हुए। ब्रिटेन ने अपनी सामुद्रिक शक्ति के बल पर पुर्तगाल, स्पेन, हालैण्ड और फ्रांस पर विजय प्राप्त की थी। आर्थर बर्नी के अनुसार, ब्रिटिश साम्राज्यवादी राज्य को प्रारंभ में अमरीका और बाद में भारत पर अधिकार से विशाल शक्ति प्राप्त हुई थी। भारत की आर्थिक लूट से प्राप्त संपत्ति से ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति की नींव रखी गयी थी।
यूरोप के देश ब्रिटेन, फ्रांस, पुर्तगाल, स्पेन और हालैण्ड आदि जिस समय नए नए उपनिवेश स्थापित कर रहे थे, उस समय वे आपस में युद्धों में भी व्यस्त थे। इसी अवधि में यूरोप में दो तरह की क्रांतियां हो रही थीं। एक वैज्ञानिक और दूसरी वैचारिक।
हाब्सन के अनुसार, पूंजीवाद के विकास में सबसे प्रमुख भौतिक घटक मशीनें थीं। जेम्स वाट द्वारा भाप से मशीनें चलाने के आविष्कार के फलस्वरूप ब्रिटेन संसार का सबसे अधिक शक्तिशाली राष्ट्र बन गया था। जेम्स वाट और मैथ्यू वाल्टन ने 1785 और 1800 के बीच 280 भाप के इंजन बनाये थे। इनका उपयोग कई उद्योगों और भाप से चलने वाले जहाजों में किया गया था। भाप से चलने वाले इंजनों की ताकत से ही ब्रिटेन ने फ्रांस, स्पेन और हालैण्ड आदि को युद्ध और व्यापार में हराया था। औद्योगिक क्रांति के दौरान ही ब्रिटेन की अधोसंरचना स्थापित हुई थी। इसके अंतर्गत महत्त्वपूर्ण नगरों, बंदरगाहों, आंतरिक जल, रेल, सड़क आदि के साधनों का विकास हुआ था।
ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति में ‘के’ का फ्लाइंग शटल, हारग्रीब्ज की स्पिनिंग जैनी, रिचर्ड आर्कराइट का वाटरफ्रेम, क्रोम्पटन का म्यूलर, एडमंड कार्टराइट का पावरलूम आदि प्रमुख थे। इन मशीनों के चलन से ही कारखाना-पद्धति उत्पादन प्रणाली की नींव पड़ी थी।
औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप औद्योगिक क्षेत्रों का विकास, बैंक और बीमा संस्थानों का जन्म, संयुक्त पूंजी कंपनियों का उदय और कृषि का यंत्रीकरण जैसे परिवर्तन हुए। औद्योगिक क्रांति से एक और बड़ा परिवर्तन हुआ। इसके फलस्वरूप राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय व्यापार का कार्य व्यापारियों के हाथों से निकलकर उद्योगपतियों के हाथों में आ गया।
इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति 1760 में शुरू हुई थी जबकि यूरोप के अन्य देशों में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इसका प्रभाव पड़ना शुरू हुआ था। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में अमरीका, जर्मनी और जापान ने ब्रिटेन के औद्योगिक नेतृत्व को चुनौती दी।
सन 1776 में संयुक्त राज्य अमरीका ने अपने को ब्रिटेन की सत्ता से मुक्त कर लिया था। स्वतंत्रता के बाद नई पूंजी मुख्यत: राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय यातायात और व्यापार में लगाई गई। अमरीका के समुद्री जहाजों ने सर्वप्रथम ब्रिटेन की सामुद्रिक शक्ति को चुनौती दी थी।
अमरीका में सन 1869 में अमरीकी महाद्वीप के एक कोने से दूसरे कोने तक जाने वाली पहली रेल लाइन बनकर तैयार हो गई थी। अमरीका में भी आर्थिक विकास के लिए एक सुदृढ़ आर्थिक ढांचा बनकर तैयार हो गया था। वर्तमान में अमरीका ही पूंजीवादी देशों का नेतृत्व कर रहा है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक अमरीका ने औद्योगिक क्षेत्र में प्रत्येक यूरोपीय देश को पीछे छोड़ दिया था। यह कहा जाता है कि पूंजीवाद की जड़ें ब्रिटेन की भूमि में हैं परन्तु वह अपने वास्तविक स्वरूप में अमरीका में जीवित है। अमरीका को पूंजीवाद का ‘नर्व सेंटर’ माना जाता है।
पूंजीवाद को प्रथम विश्वयुद्ध ने प्रमुख रूप से प्रभावित किया है। जॉन वैजे के अनुसार, पूंजीवाद का भविष्य निरंतर बदलती टेक्नोलॉजी में निहित है। पूंजीवाद की विशाल उत्पादन क्षमता की एक प्रकार से प्रशंसा कार्ल मार्क्स ने भी की है। कार्ल मार्क्स के अनुसार, “मुश्किल से अपने एक शताब्दी के शासनकाल में पूंजीपति वर्ग ने जितनी शक्तिशाली और जितनी प्रचंड उत्पादन शक्तियां उत्पन्न की हैं उतनी तमाम पिछली पीढ़ियों ने मिलाकर भी उत्पन्न नहीं की हैं।
आज पूंजीवादी व्यवस्था उभार पर भी है और संकट में भी। बैंक, बीम और रीयल एस्टेट के संकट नए हैं। इन संकटों को अमरीकी सहायता के द्वारा दूर करने की कोशिश समाजवादी व्यवस्था के मॉडल का अनुकरण करने की प्रक्रिया लगती है। पूंजीवादी व्यवस्था में सरकारी नियंत्रण कोई नई बात नहीं है।
पूंजीवादी व्यवस्था में सुधार लाने के लिए कई तरह के नियंत्रणों का उपयोग किया जाता है पर इन नियंत्रणों को केंद्रीय नियोजन नहीं कहा जा सकता है। उदाहरणस्वरूप अमरीका में 1934 तक संरक्षणात्मक तटकर लगाया गया। राष्ट्रपति निक्सन ने सन 1991में स्वर्णकोषों में निरंतर कमी को रोकने तथा मुद्रा प्रसार में कमी करने के लिए मजदूरी और कीमतों पर प्रभावी नियंत्रण लगा दिए थे। आज अमरीका विकासशील देशों के इन्हीं कदमों का विरोध करता है।
अमरीका और यूरोप के पूंजीवादी देशों में औद्योगीकरण केवल इन देशों के आर्थिक विकास में परिवर्तन का साधन नहीं रह गया है। आज के पूंजीवाद ने एक देश के भीतर और बाहर की दुनिया को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से बदलना शुरू कर दिया है।
पूंजीवाद के प्रथम चरण में बड़े पैमाने के उत्पादन ने बाहरी बाजारों की खोज को आवश्यक बनाया था। पूंजीवाद के दूसरे चरण में बड़े पैमाने के उत्पादन के साथ-साथ तकनीकी एकाधिकार ने बाहरी बाजारों पर नियंत्रण को स्थापित कर दिया है। इसी ‘खोज’ और ‘नियंत्रण’ में विश्व के संकट के बीज छिपे हैं।
विश्व की वर्तमान स्थिति पर महान साहित्यकार आक्तोवियो पाज का यह कथन सर्वोत्तम टिप्पणी है : “विचारधाराएं समाज के चेहरे पर पड़ा हुआ छद्म परदा हैं और यह परदा धीरे धीरे उठ रहा है। विचारधाराओं का युग समाप्त हो रहा है और अब हम यथार्थ को अधिक निकट से देख सकते हैं।”