विभाजन की विभीषिका को याद करने का मकसद क्या है

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— श्रवण गर्ग —

स्वतंत्रता दिवस (पंद्रह अगस्त) के एक दिन पूर्व यानी चौदह अगस्त का दिन अब देश में ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के रूप में मनाया जाएगा। पाकिस्तान इस दिन को अपनी आजादी के दिन के तौर पर मनाता है। अगर तालिबान के अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में प्रवेश करने और वहाँ के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी के कायरना तरीके से देश छोड़कर संयुक्त अरब अमीरात भाग जाने के दिन पंद्रह अगस्त को ही हिंसक कट्टरपंथी भी अपने नये इस्लामी अमीरात की आजादी का दिन घोषित कर देते हैं तो तारीखों को लेकर ही कई तरह की बहसें छिड़ जाएँगी। और भी कुछ देश होंगे जो पंद्रह अगस्त को ही अपना स्वतंत्रता/स्थापना दिवस मनाते होंगे।

हमारे चौदह अगस्त के अब तक खाली पड़े दिन के नये उपयोग को लेकर अभी सिर्फ घोषणा भर हुई है। उसका विस्तृत ब्योरा सार्वजनिक किया जाना अभी शेष है। मसलन यह दिन किस तरह से मनाया जाएगा! किस तरह के भाषण होंगे, किस तरह के पर्चे-पोस्टर बांटे और लगाए जाएंगे और क्या इस सिलसिले में राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ा आयोजन होगा, आदि। उसे समारोहपूर्वक तो निश्चित ही नहीं मनाया जा सकेगा। इस दिन के अवकाश को लेकर भी किसी निर्णय की जानकारी अभी सामने नहीं आयी है।

देश के पचहत्तरवें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से दिये गये अपने उद्बोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेशी राजनयिकों की उपस्थिति में भारत की जनता को यह जानकारी दी थी कि : अब से हर वर्ष 14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के रूप में याद किया जाएगा। आजादी के 75वें स्वतंत्रता दिवस पर ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस का तय होना विभाजन की त्रासदी झेलनेवाले लोगों को हर भारतवासी की तरफ से आदरपूर्वक श्रद्धांजलि है।’

प्रधानमंत्री की उक्त घोषणा को लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से उसी दिन जारी ट्वीट में उनकी भावनाओं को इन शब्दों में व्यक्त किया गया : हम आजादी का जश्न मनाते हैं, लेकिन बँटवारे का दर्द आज भी हिंदुस्तान के सीने को छलनी करता है। यह पिछली शताब्दी की सबसे बड़ी त्रासदी में एक है। कल (14 अगस्त ) ही देश ने एक भावुक निर्णय लिया है। अब से 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में याद किया जाएगा।’

अखंड भारत के विभाजन की यादें निश्चित ही बहुत भयावह हैं। इन यादों के भुक्तभोगी और प्रत्यक्षदर्शी अब लाखों-करोड़ों की संख्या में नहीं बचे होंगे। वर्ष 1947 में अविभाजित भारत की कुल आबादी लगभग छत्तीस करोड़ थी। उपलब्ध आँकड़ों के मुताबिक, विभाजन के दौरान हुई साम्प्रदायिक हिंसा और मची अफरा-तफरी में कोई बीस लाख लोगों की जानें गयी थीं और एक से दो करोड़ के बीच लोग विस्थापित हुए थे। ‘सीने को छलनी’ करनेवाले विभाजन की विभीषिका को देखने और भोगनेवाले जो भी लोग इस वक्त जीवित होंगे उनकी उम्र पचासी-नब्बे के करीब या उससे ऊपर ही होगी।

चौदह अगस्त के दिन विभाजन के पीड़ादायक क्षणों का स्मरण कराने के वास्तविक उद्देश्य का जीवंत अनुभव करने के लिए अभी साल भर प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। इस दौरान नागरिक व्यक्तिगत और सामूहिक स्तरों पर छोटे या बड़े नये भावनात्मक विभाजनों से भी गुजर सकते हैं।

चौदह अगस्त 1947 को याद करने के पीछे कई उद्देश्यों की कल्पना की जा सकती है। जैसे कि उस दौरान की पीड़ाओं को याद करते हुए देशवासियों से इस आशय के संकल्प करवाए जाएँ कि वे नागरिक जीवन में अपने बीच धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर किसी भी तरह का बँटवारा नहीं होने देंगे। राजनीतिक अथवा साम्प्रदायिक स्तरों पर किये जानेवाले ऐसे किसी भी प्रयास का वे समर्थन नहीं करेंगे।

इसके विपरीत अगर ‘स्मृति दिवस’ को अनियंत्रित रूप से मनाने के लिए छोड़ दिया गया तो उसके परिणाम नागरिक जीवन के लिए पीड़ादायक भी बन सकते हैं। वह यूँ कि विभाजन की त्रासदी का इतिहास नये सिरे से लिखवाकर पेश किया जाए या विभाजन के दौरान घटी घटनाओं और भोगी गयी व्यथाओं का साम्प्रदायिक शृंगार कर दिया जाए। उस वक्त की घटनाओं के सामूहिक पारायण के दौरान श्रोताओं की आँखों से बजाय आँसू बहने के, क्रोध और घृणा की चिनगारियाँ फूटने लगें। चौदह अगस्त को विभाजन की विभीषिका के स्मृति दिवस के रूप में शालीनतापूर्वक मनाने की सरकार की किसी भी मंशा के विपरीत ‘सबका साथ, सबका विश्वास’ से परहेज करनेवाले विघ्न-संतोषी तत्त्व स्थापित इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर कुछ नये बँटवारों की जमीन भी इस अवसर पर तैयार कर सकते हैं।

आजादी के वक्त हुए विभाजन की विभीषिका का ईमानदार नीयत से किया जानेवाला कोई भी स्मरण उन आंतरिक विभाजनों को नियंत्रित करेगा जो नागरिकों को अलग-अलग समूहों में बाँटकर उन्हें अपनी स्वतंत्रता के प्रति आशंकित कर सकते हैं।

इतना तो निश्चित है कि अब कोई भी नया विभाजन एक सम्पूर्ण भौगोलिक इकाई अथवा किन्हीं सीमाओं को चिह्नित की जा सकनेवाली रेखाओं की शक्ल में नहीं नजर आएगा। अब होनेवाले सारे ही विभाजन इमोशनल होंगे, टुकड़ों-टुकड़ों में होंगे और राजधानी दिल्ली से लगाकर भारत माता के साढ़े छह लाख से अधिक गाँवों तक बिखरे पड़े मिलेंगे। सत्ता का सम्पूर्ण विकेंद्रीकरण चाहे कभी भी सम्पन्न नहीं हो पाये, आंतरिक विभाजन का विकेंद्रीकरण लगातार होता रहेगा। यह सर्वथा अदृश्य होगा। अगस्त 1947 की तरह ऊपरी तौर पर किसी भी प्रकार का रक्तपात नहीं दिखाई पड़ेगा। रक्त और आंसू व्यक्ति और देश की आत्माओं के भीतर ही भीतर रिसते रहेंगे।

जब कोई व्यक्ति या देश अपने अंदर से विभाजित होता है तो वह विभाजन भौगोलिक सीमाओं के बँटवारों की तरह नजर नहीं आता। और इस तरह से होनेवाले विभाजनों की विभीषिकाओं को कोई भी राष्ट्र अपने स्मृति दिवसों के रूप में नहीं मना सकता। या तो देश ही नहीं जानना चाहता या फिर उसे जान-बूझकर बताया नहीं जा रहा है कि एक सौ पैंतीस करोड़ नागरिकों को स्वतंत्रता-प्राप्ति के पचहत्तर सालों के बाद एक पीड़ादायक और विभाजित अतीत की स्मृतियों की ओर क्यों धकेला जा रहा है जबकि उनकी आँखों में सपने तो भविष्य में निर्मित होनेवाले किसी चमकीले भारत के पिरोये गये हैं!

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