— डॉ शुभनीत कौशिक —
भारत में जाति के प्रश्न पर जो अकादमिक लेखन हुआ है, वह मुख्यतः इतिहास, राजनीति और समाजशास्त्रीय दृष्टि से ही लिखा गया है। जाति और सामाजिक विषमता के आर्थिक पहलू की पड़ताल कम ही की गई है। अर्थशास्त्री अश्विनी देशपांडे की किताब ‘द ग्रामर ऑफ़ कास्ट’ (ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस) इस कमी की भरपाई करती है।
अश्विनी देशपांडे एक अर्थशास्त्री के नज़रिए से समकालीन भारत में जातिगत विषमता के विभिन्न आयामों, विशेषकर उसके आर्थिक पक्ष की गहन पड़ताल करती हैं। अकारण नहीं कि इस पुस्तक में जहाँ एक ओर वैश्विक स्तर पर विषमता की आर्थिक पड़ताल करने वाले केनेथ गैरो, गैरी बेकर और जॉर्ज एकरलॉफ़ सरीखे अर्थशास्त्रियों द्वारा दी गई धारणाओं से संवाद किया गया है। वहीं दूसरी ओर भारतीय संदर्भ में जातिगत विषमता की बात करते हुए जोतिबा फुले, अम्बेडकर और पेरियार के विचारों से भी यह किताब संवाद करती है।
अश्विनी जाति के अर्थशास्त्र की पड़ताल करने के साथ ही जाति और सामाजिक विषमता की सैद्धांतिकी की भी चर्चा करती हैं। वे जाति और जेंडर के नज़रिए से भारतीय समाज में विषमता और वंचना के सामाजिक यथार्थ की परतों को खोलती हैं। उनके अध्ययन का एक प्रमुख हिस्सा विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले दलित छात्रों की आकांक्षाओं, नौकरी के लिए होने वाले साक्षात्कारों में उनके साथ होने होने वाले विभेदों पर केंद्रित है, जिसे सभी को पढ़ना चाहिए।
वर्ष 2007 में कैथरीन न्यूमैन के साथ मिलकर अश्विनी ने एक शोध-सर्वेक्षण जेएनयू, जामिया और दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों पर किया था। इसमें पढ़ाई पूरी होने के बाद उन छात्रों की रोज़गार सम्बन्धी अपेक्षाओं, साक्षात्कार में उन्हें होने वाले अनुभवों और उनकी प्राथमिकताओं का सर्वेक्षण शामिल था। इस शोध में यह बात सामने आई कि इन प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़ने वाले दलित छात्रों की रोज़गार सम्बन्धी प्राथमिकताएँ सामान्य/अनारक्षित श्रेणी के छात्रों से अलग थीं।
जहाँ 45 फ़ीसदी दलित छात्रों ने कहा कि वे प्रशासनिक सेवाओं में जाना चाहते हैं वहीं अनारक्षित वर्ग के केवल 12 फ़ीसदी छात्रों ने कहा कि प्रशासनिक सेवा उनकी पहली पसंद है। 28 फ़ीसदी दलित छात्रों ने अकादमिक क्षेत्र में ही शिक्षक या शोधकर्ता के रूप में करियर बनाने की बात कही। इसे अश्विनी भारत में एफ़र्मेटिव एक्शन के सकारात्मक प्रभाव के रूप में देखती हैं, जिसकी वजह से दलित छात्र सार्वजनिक क्षेत्र को वरीयता देते हैं।
आरक्षण के प्रावधानों से अछूता निजी क्षेत्र जो ‘मेरिट’ को तवज्जो देने की बात करता है, इसकी असल सच्चाई भी अश्विनी देशपांडे, सुखदेव थोरात, न्यूमैन और एटवेल आदि के शोध में सामने आती है। अभ्यर्थियों के नामों के आधार पर उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि का अंदाज़ा लगाकर निजी क्षेत्र किस तरह से योग्य दलित उम्मीदवारों के साथ भेदभाव करता है, यह इन शोधों में बख़ूबी उजागर हुआ है। सामाजिक नेटवर्क और सांस्कृतिक पूँजी किस तरह एक समान योग्यता रखने वाले दलित और अनारक्षित श्रेणी के छात्रों में विषमता की खाईं पैदा करते हैं, यह बात भी इस किताब में उभरकर आती है।
अश्विनी यह दर्शाती हैं कि आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने जातिगत विषमता को कम करने की बजाय उसमें बढ़ोतरी ही की है। वे आरक्षण के प्रावधानों के सकारात्मक प्रभाव चर्चा करने के साथ ही उसकी सीमाओं की भी रेखांकित करती हैं। उनके अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों के बहुसंख्यक दलितों का जीवन इन प्रावधानों से अप्रभावित रहा है। इसके लिए वे ग्रामीण इलाक़े में भूमि-सुधारों की महत्ता को खास तौर पर रेखांकित करती हैं।
अश्विनी इस किताब में जाति विकास सूचकांक (कास्ट डिवेलपमेंट इंडेक्स) की भी चर्चा करती हैं। अश्विनी द्वारा बनाए गए इस सूचकांक से विभिन्न जाति समूहों के जीवनयापन के स्तर में आते व्यापक बदलावों और निरंतरता के तत्त्वों को मापा जा सकता है। ज़रूर पढ़ें यह किताब।