लोहिया क्यों मानते थे कि 9 अगस्त की अहमियत 15 अगस्त से ज्यादा है – आनंद कुमार

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नौ अगस्त 1942 से सारे देश में क्रांति-पर्व शुरू हुआ था। इस साल 2021 में इसकी 79वीं जयंती मनायी गयी। स्वतन्त्रता आन्दोलन के अंतिम महासंग्राम अर्थात
 ‘भारत छोडो आन्दोलन’ के प्रमुख सूत्रधारों में जयप्रकाश नारायणडॉ. राममनोहर लोहियाअच्युत पटवर्धनयूसुफ मेहर अलीअरुणा आसफ अलीउषा मेहतासुचेता कृपालानीसेनापति बापटविजया पटवर्धनरामनंदन मिश्रयशवंत राव चव्हाणसूरज नारायण सिंह आदि का नाम आदर से लिया जाता है। इस आन्दोलन में देश के अलग-अलग हिस्सों में अपना बलिदान देनेवालों के स्मारक सरकारी उपेक्षा के बावजूद आज भी प्रेरणा-स्रोत हैं। इन शहीद स्मारकों पर हर 9 अगस्त को पुष्पांजलि देनेवाले देशभक्त स्त्री-पुरुष जुटते हैं और ‘अंग्रेजोभारत छोडो!’ की पराक्रम कथाएं याद की जाती हैं।

इस जनक्रांति के एक महानायक डॉ. राममनोहर लोहिया की मान्यता थी कि भावी भारत के लिए 9 अगस्त ‘जन दिवस’ के रूप में 15 अगस्त के स्वतन्त्रता दिवस से ज्यादा महत्त्व की तिथि होगी। उन्होंने 9 अगस्त– क्रांति दिवस- पर मुंबई में होनेवाले स्वतन्त्रता-सेनानी समागम के लिए समाजवादी स्वतन्त्रता सेनानी डॉ. जी.जी. पारिख को लिखे शुभकामना पत्र (2 अगस्त1967) में लिखा भी था कि : 15 अगस्त राज का दिवस है। 9 अगस्त जन-दिवस  है। कोई एक दिन ऐसा जरूर आएगा कि जब 9 अगस्त के आगे 15 अगस्त फीका पड़ेगा और हिन्दुस्तानी अमरीका और फ़्रांस की तरह 4 जुलाई और 14 जुलाई, जो जन दिवस हैं, की तरह 9 अगस्त को मनाएंगे। यह भी हो सकता है कि हिन्दुस्तानी अपना बंटवारा खतम करें और उसी के साथ–साथ या उससे पहले 15 अगस्त को भूल जाने की कोशिश करें…।

9 अगस्त का असाधारण महत्त्व 

आखिर 9 अगस्त का भारत के ताजा इतिहास में इतना महत्त्व क्यों हैयह तो सब जानते हैं कि 8 अगस्त1942 को देश की आजादी के लिए गांधीजी द्वारा दिये गये ‘करो या मरो!’ के महामंत्र से प्रेरित होकर देशभर में जबरदस्त लहर उठी। अपने प्रस्ताव में कांग्रेस ने आह्वान किया था कि देशभक्त बिना जान की परवाह किये अपने को आजाद नागरिक मानें। अंग्रेजों से देश को अहिंसक तरीकों से छुड़ाने में जुटें। किसान अंग्रेजभक्त जमींदारों को लगान न दें। पुलिस और सेना स्वतन्त्रता की मांग के लिए सत्याग्रह कर रहे स्त्री-पुरुषों के साथ जुल्म और बर्बरता न करे। देशी राजा और नवाब जनहितकारी बनें और विदेशी राज के खतम होने में सहायक बनें।

यह भी स्कूली पाठ्य-पुस्तकों में है कि इस निर्णायक आन्दोलन से एक रात पहले ही गांधीनेहरूपटेलमौलाना आजादसरोजिनी नायडूनरेन्द्रदेव समेत कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों के साथ ही हज़ारों नेता बंदी बना लिये गये थे और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक गैर-कानूनी संस्था घोषित कर दी  गयी थी। फिर तो अगले कुछ महीनों में देश भर से कुल एक लाख से ज्यादा स्त्री-पुरुष गिरफ्तार किये गये। दो बरस तक के रोमांचक घटनाक्रम के बाद ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन 1944 तक मंद हो गया। लेकिन जेलों में बंद देशभक्तों के साथ किये जा रहे अत्याचारों से गुस्सा बढ़ता जा रहा था। इसी क्रम में 1943 से 1945 के बीच नेताजी सुभाष बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज की सिंगापुर और रंगून से लेकर अंडमान–निकोबार तक सफलताओं की कहानियों ने देश में आजादी की भूख को कम नहीं होने दिया। इस सब के फलस्वरूप स्वराज के प्रति भरोसा और अंग्रेजी राज के प्रति आक्रोश का भाव गहराता जा रहा था।

किन्तु इसकी चर्चा कम होती है कि ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन से कांग्रेस समेत समूचे राष्ट्रीय आन्दोलन में एक नयी एकता पैदा हो गयी। यह सही है कि अंग्रेजों ने आन्दोलनकारियों को पूरी बर्बरता से जेलों  में भर दिया। फिर भी उनको यह आभास हो गया कि अब भारत के जन-साधारण में आजादी की बेचैनी फैल चुकी है और स्वतन्त्रता आन्दोलन में अभूतपूर्व एकजुटता पैदा हो गयी है। इसलिए नौकरशाहीपुलिसफौज और ब्रिटिश राज के समर्थकों के भरोसे भारत को कब्जे में रखना नामुमकिन होता जा रहा है।

इसका एक ज्वलंत उदाहरण शीघ्र ही सामने आ भी गया। 6 और 9 अगस्त1945 को हिरोशिमा-नागासाकी पर अमरीका द्वारा महानाशकारी बम वर्षा में दो लाख निर्दोष नागरिकों की मौत के कारण जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया और आजाद हिन्द फौज बेबस हो गयी।  ब्रिटिश सरकार ने नेताजी सुभाष की इस बेमिसाल फौज के सभी सैनिकों को गिरफ्तार करके दिल्ली के लाल किले में नवम्बर1945 में देशद्रोह का मुकदमा चलाया। इस मुकदमे में कांग्रेस से जुड़े नामी वकीलों ने भी आजाद हिन्द फौज के वीरों की पैरवी की। फिर भी इसके तीन सेनापतियों– सहगलढिल्लों और शाहनवाज़ ख़ान- को फांसी की सजा सुनाई गयी। इससे पूरे देश में नया उबाल आ गया– ‘ढिल्लोंसहगलशाहनवाज़ – इन्कलाब जिंदाबाद’, ‘लाल किले को तोड़ दोआजाद हिन्द फौज को छोड़ दो’ जैसे नारे लगाए जाने लगे। इससे मजबूर होकर वायसराय को फांसी रोकनी पड़ी।

इसी के समांतर अंग्रेजी राज ने 1945 में वार्ता शुरू करने के बावजूद ‘अगस्त क्रांति’ के नायकों को ‘बेहद खतरनाक’ कैदी मानते हुए रिहा नहीं किया था।  गांधीजी 1944 में रिहा किये गये। जयप्रकाश और लोहिया लाहौर किले की जेल से आगरा जेल स्थानान्तारित किये गये लेकिन उनकी रिहाई 11 अप्रैल, ‘46 को, गांधीजी के अड़ने के बाद ही, संभव हुई। सतारा को आजाद बनाये रखनेवाले ‘सतारा के शेर’ अच्युत पटवर्धन तो अंग्रेजों की हर कोशिश के बावजूद आखिर तक गिरफ्तार नहीं किये जा सके थे। बिहार-नेपाल की सीमा के हनुमान नगर में आजाद दस्ता का प्रशिक्षण केंद्र चलवाने वाले और जिला अधिकारी के आवास पर हमला करके जयप्रकाश और लोहिया को  रिहा करानेवाले कई दर्जन नेपाली नागरिक भी 1945 में गांधीजी के हस्तक्षेप से ही बाहर आ सके थे।

भारत छोड़ो’ आन्दोलन – गांधीजी का सर्वोच्च अभियान    

1939-45 के विनाशकारी द्वितीय महायुद्ध में ब्रिटेन-फ़्रांस-रूस-अमरीका के संयुक्त अभियान की जर्मनी-जापान-इटली के गठजोड़ पर विजय के बावजूद साम्राज्यवाद का सूरज अस्त हो गया। जहां अबतक साम्राज्यवादी ताकतें ‘बांटो और राज करो’ के सूत्र के जरिये एशियाअफ्रीका और दक्षिण अमरीका में उपनिवेशों का विस्तार कर रही थीं वहीं अब इन्होने ‘बांटो और हटो’ की अंतिम शरारत की। जर्मनीकोरियावियतनाम से लेकर हिन्दुस्तान तक को इन ताकतों ने बांटने का षड्यंत्र किया।

इसी नए सूत्र के तहत अंग्रेजों ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग समेत विभिन्न राजनीतिक संगठनों से बातचीत चलाकर पहले हिन्दुस्तान का बंटवारा और फिर भारत और पाकिस्तान के रूप में दो टुकड़े करके 1947 में अपना बोरिया-बिस्तर समेटा। तब से पाकिस्तान में 14 अगस्त को और भारत में 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाते हैं। वैसे ब्रिटिश इतिहासकार और राजनीतिज्ञ इसे अपनी किताबों में ‘सत्ता का हस्तांतरण (ट्रांसफर ऑफ पॉवर) ही बताते हैं। इस विमर्श में ‘बांटो और हटो’ की कुटिल नीति से हुए भारत-विभाजन को ‘भारत छोडो’ आन्दोलन और गांधी की विफलता से जोड़ा जाता है। इस झूठ को मौलाना अबुल कलाम आजाद की ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’, प्यारेलाल की ‘ महात्मा – द लास्ट फेज’ और राममनोहर लोहिया की ‘भारत विभाजन के गुनहगार’ जैसी किताबों को न पढ़ने के कारण कई नादान भारतीय और पाकिस्तानी बुद्धिजीवी और राजनीतिज्ञ दुहराते रहते हैं।

कुछ रहस्यमय कारणों से अधिकांश भारतीयों को ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन से जुड़े तथ्यों की पूरी जानकारी नहीं है। जैसे, पढ़े-लिखे लोग भी नहीं जानते कि गांधी की दृष्टि से यह स्वराज के लिए उनकी 1917 में चंपारण में शुरू हुई लम्बी स्वराज-साधना की सबसे बड़ी आहुति थी। इस आन्दोलन के प्रस्ताव को उन्होंने अपने प्रमुख सहयोगियों के विरोध के बावजूद आगे बढ़ाया था। इसी आन्दोलन में हुई कैद के दौरान उनके सबसे विश्वसनीय सहयोगी महादेव देसाई का 15 अगस्त 1942 को और धर्मपत्नी कस्तूरबा का 22 फरवरी 1944 को देहांत हो गया। दोनों का अंतिम संस्कार बंदी गांधी ने किया। गांधी ने स्वयं 10 फरवरी 1943 से 21 दिनों का लंबा अनशन करके अपने प्राण को दांव पर लगा दिया। ब्रिटिश राज तो उनकी मृत्यु को निश्चित मान चुका था। गांधी के शवदाह की तैयारी होने लगी थी। 1942 से 1944 के इस आयाम का सजीव चित्रण सुशीला नायर की पुस्तक ‘कारावास की कहानी’ में उपलब्ध है जो स्वयं गांधी और कस्तूरबा के साथ जेल में कैद थीं।

वस्तुत: ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ गांधी के सिद्धांतों और कांग्रेस की रणनीति की अग्नि-परीक्षा था। गांधी के एकादश व्रतों से चरित्र निर्माण में जुटे स्वतन्त्रता सेनानियों के आत्मबल का इम्तहान था। 1921 के असहयोग आन्दोलन की कोख से जनमे गुजरातदिल्लीउत्तर प्रदेश और बिहार में स्थापित राष्ट्रीय विद्यापीठों द्वारा किये गये नेतृत्व निर्माण को यह मोर्चा सँभालना था। रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिये लोकशक्ति का निर्माण करने के लिए 1923 से समर्पित गांधी सेवा संघ द्वारा बरसों से  देशभर में संचालित दर्जनों रचनात्मक संगठनों का जनता में बने प्रभाव की जांच का समय आ गया था। इससे पहले कांग्रेस का 1937-39 का प्रादेशिक स्तर पर सीमित मताधिकार से स्थापित अल्पशासन ब्रिटिश राज के असहयोग के कारण बाधाग्रस्त हो चुका था। इसके बाद 1940 का युद्ध-विरोधी व्यक्तिगत सत्याग्रह और अंग्रेजों का क्रिप्स मिशन दोनों ही विफल हो चुके थे। व्यक्तिगत सत्याग्रह में अक्टूबर1940 और फरवरी1941 के बीच कुल 45,000 लोगों ने गिरफ्तारी दी थी। इससे बड़े और निर्णायक सत्याग्रह के लिए इंडिया इंडिपेंडेंस लीगकांग्रेस सोशलिस्टों और अन्य वैचारिक समूहों का दबाव बढ़ने लगा।

देश में युद्ध के कारण अन्न का अभाव और बेतहाशा महंगाई थी। फिर भी वायसराय ने अगस्त1940 में युद्ध सहयोग समिति में शामिल होने का प्रस्ताव रखा और स्वराज के लिए संविधान बनाने की मांग को ‘धार्मिक और राजनीतिक अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा’ के बहाने युद्ध की समाप्ति तक टाल दिया। पूर्वी सीमाओं पर जापान की सेनाओं का दबाव बढ़ रहा था। नेताजी सुभाष बोस ने मई1939 में ही कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देकर स्वामी सहजानंद आदि के सहयोग से  फॉरवर्ड ब्लाक की स्थापना के जरिये गांधी–नेहरू-पटेल-मौलाना आजाद-राजेंद्र प्रसाद-आचार्य कृपालानी के नेतृत्व से अपने को अलग कर लिया था। क्रिप्स मिशन के प्रस्तावों को अस्वीकारने के कारण राजाजी जैसे कई राष्ट्रीय नेता कांग्रेस से इस्तीफ़ा दे चुके थे। 19 जनवरी1941 को नेताजी सुभाष बोस अंग्रेजों की कैद से निकल कर अफगानिस्तान के रास्ते जर्मनी-आस्ट्रिया के लिए निकल गये। यहाँ यह भी जोड़ना चाहिए कि गांधी और सुभाष के बीच का यह अल्पकालीन और बहुचर्चित मतभेद अगले दो बरस में  1942-45 के बीच प्रबल प्रेम में परिणत हो चुका था।

भारत छोड़ो’ के दौरान नेताजी सुभाष और आजाद हिन्द फौज  

अंग्रेजों की कैद से फरार होकर अफगानिस्तान के रास्ते जर्मनी पहुँचने में सफल नेताजी सुभाष ने 1941 में ही बर्लिन में देशभक्त भारतीयों को एकजुट करके ‘इंडिया लीग’ की स्थापना कर दी थी। 1942 में जर्मनी से आजाद हिन्द रेडियो का हिंदीतमिलबंगालीमराठीपंजाबीउर्दू और पश्तो में साप्ताहिक प्रसारण होने लगा था। बाद में आजाद हिन्द रेडियो ने 1943-45 के बीच सिंगापुर और रंगून से भारत की आजादी के अभियान में योगदान जारी रखा।

नेताजी सुभाष ने 4 जुलाई1943 को सिंगापुर में रासबिहारी बोस के निमंत्रण पर 60,000 से अधिक भारतीय युद्धबंदी सैन्य-बल वाली आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व स्वीकार किया और 21 अक्टूबर1943 को सिंगापुर में ही आजाद हिन्द सरकार की स्थापना का ऐलान हुआ। जर्मनीजापानचीनकोरियाफिलीपीन्सइटली और आयरलैंड ने इसे मान्यता भी दी। इस बीच नेताजी द्वारा रानी झाँसी ब्रिगेडगांधी ब्रिगेडनेहरू ब्रिगेडमौलाना आजाद ब्रिगेड और सुभाष ब्रिगेड का गठन किया गया।

आजाद हिन्द फ़ौज के तीन बुनियादी आदर्श थे– इत्तेफाक (एकता)एतमाद (विश्वास) और कुर्बानी (बलिदान)। जब इस फौज ने 30 दिसम्बर 1943 को अंडमान और निकोबार द्वीपों को आजाद कराया तो उनका नया नामकरण किया गया – शहीद द्वीप और स्वराज द्वीप। 4 फरवरी, ’44 तक आजाद हिन्द फौज ने कोहिमा को ब्रिटिश राज से छुडा लिया था। उन्होंने ही 6 जुलाई 1944 को रंगून स्थित आजाद हिन्द रेडियो से अपने सन्देश में महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ (फादर ऑफ द नेशन) के रूप में संबोधित किया। इधर गांधीजी ने सुभाष बोस की देशभक्ति और वीरता का अभिनंदन करते हुए उन्हें ‘देशभक्तों का शिरोमणि’ (प्रिंस ऑफ पैट्रियोट्स) बताया। इस बीच आजाद हिन्द फौज के नारों में से ‘दिल्ली चलो!’ और ‘तुम मुझे खून दोमैं तुम्हें आजादी दूंगा!’ पूरे भारत में फैल गया था।

आजाद हिन्द फौज का रामसिंह ठकुरी रचित ‘प्रयाण-गीत’ भारत छोड़ो आन्दोलन के सत्याग्रहियों का नया ‘कौमी तराना’ था :

कदम-कदम बढ़ाये जाखुशी के गीत गए जा

ये जिन्दगी है कौम कीतू कौम पे लुटाये जा।

तू शेरे-हिन्द आगे बढ़ मरने से तू कभी न डर

उड़ा के दुश्मनों का सर जोश-ए-वतन बढ़ाये जा।

कदम-कदम बढ़ाये जा …..

ये जिन्दगी है कौम की …..

हिम्मत तेरी बढ़ती रहे खुदा तेरी सुनता रहे

जो सामने तेरे खड़े तू खाक में मिलाये जा।

कदम-कदम बढ़ाये जा….

ये जिन्दगी है कौम की….

चलो दिल्ली!’ पुकार के गार-ए-निशाँ सँभाल के

लाल किले पे गाड़ के लहराए जालहराए जा।

कदम-कदम बढ़ाये जाखुशी के गीत गाये जा,

ये जिन्दगी है कौम कीतू कौम पे लुटाये जा।

 

9 अगस्त की उपलब्धि : जनता में निडरता का उदय 

इस जन क्रांति के दौरान सबसे बड़ी बात जनता में अभय की प्रबलता थी। इस जन अभियान में पहली बार अधिकांश नेताओं को जेल में डालने के बावजूद 9 अगस्त से ब्रिटिश राज को ठप करने के इरादे से भारतीय जनता पूरी निडरता से सड़कों पर आ गयी। पुलिस और सेना की बर्बरता का मुकाबला करते हुए  10,000 से अधिक लोग शहीद हुए और महीनों तक ‘अंग्रेजो! भारत छोडो’ की गूँज बनी रही। इनमें पटना सचिवालय पर तिरंगा फहराने के लिए अपनी जान देनेवाले सात विद्यार्थियों का स्मारक आज भी एक पवित्र स्मारक है। ऐसे शहीद स्मारकों की पूरे देश में श्रृंखला जैसी है।

अगस्त क्रांति के दौरान ब्रिटिश राज के खिलाफ इतना प्रबल आक्रोश उमड़ा कि महाराष्ट्र में सताराबंगाल में पूर्वी मिदनापुरओड़िशा में तालचर (अंगुल जिला) और उत्तर प्रदेश में बलिया में समानांतर जन-सरकार स्थापित हो गयी। हर छात्र-युवा के लिए देश की आजादी के लिए कुछ न कुछ करने का मका हो गया। अधिकांश कॉलेजों-विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी आन्दोलन का हिस्सा बन गये। इन कारणों से काशी विश्वविद्यालय में तो सेना की छावनी ही बना दी गयी।

सिर्फ 9 अगस्त, ’42 और 21 सितम्बर, ’42 के छह सप्ताह की अवधि में कम से कम ढाई सौ रेलवे स्टेशन और साढ़े पांच सौ डाकखानों को जनता की बगावत का निशाना बनाया गया। 70 पुलिस स्टेशन और 85 प्रमुख सरकारी इमारतें क्षतिग्रस्त हुईं। ढाई हजार जगहों पर टेलीफोन व्यवस्था छिन्न-भिन्न की गयी। हालात की गंभीरता का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि ब्रिटिश फौजियों की 57 टुकड़ियों को जनता को काबू में लाने के लिए लगाया गया। 538 जगहों पर गोलीबारी और बमवर्षा की गयी।

(बाकी हिस्सा‌‌ कल)

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