क्रांति का बिगुल : चौथी किस्त

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— अनिल सिन्हा —

बलिया की आजाद सरकार
प्ताह भर भी नहीं चली बलिया की सरकार उग्रता और विद्रोह में एक इतिहास बना गयी। आजादी के आंदोलन में 1857 के समय से ही सक्रिय बलिया में कांग्रेस, समाजवादी और कम्युनिस्ट, सभी विचारधारा के लोग सक्रिय थे। यहां किसान आंदोलन का भी अच्छा असर था। युद्ध की शुरुआत में ही कौमी सेवा दल के नाम से कांग्रेस ने युवाओं को अहिंसक मार्ग की सैनिक ट्रेनिंग देना शुरू कर दिया था। गांवों में भी ग्राम रक्षा दल का गठन जारी था ताकि युद्ध के प्रतिरोध पर होनेवाले दमन का मुकाबला किया जा सके।

आजाद हिंद फौज में बलिया के सैनिकों की अच्छी संख्या थी और उनके अभियान का भी भारी असर हो रहा था। लोग जोश से भरे थे।

बाकी जगहों की तरह, यहां के समाजवादी नेता भी पहले से ही आंदोलन की तैयारी में लगे थे। दस्तावेजों के मुताबिक बंबई में कांग्रेस महासमिति की बैठक के दस दिन पहले समाजवादी नेता संपूर्णानंद ने समाजवादी रासबिहारी सिंह को बलिया भेज कर लोगों को आगाह कर दिया था कि बंबई की जनसभा के पहले ही गिरफ्तारी हो सकती है, इससे बचना है और भूमिगत होकर काम करना है। कांग्रेस के नरमपंथी कार्यकर्ताओं का इसपर कुछ असर नहीं हुआ और वहां के वरिष्ठ नेता चित्तू पांडेय समेत कई लोग गिरफ्तार हो गये।

बंबई में के गांधीजी के भाषण को लेकर लोग दुविधा में थे क्योंकि ‘करो या मरो’ के साथ गांधीजी ने अहिंसा के पालन की बात कही थी।

‘‘आखिर में एक धुंधली खबर बम्बई से निकली जिससे यह मालूम हुआ कि महात्मा गांधी जी ने अहिंसात्मक आन्दोलन के साथ-साथ इस बात की भी इजाजत दे दी है कि भारत की आजादी के लिए प्रत्येक भारतवासी अपना पथ प्रदर्शक स्वयं बने, स्वविवेक से काम लेकर आन्दोलन को आगे बढ़ाए, बलिया में हिलोरें ले रही बगावत के लिए इतना संकेत काफी था,’’ बलिया की जनक्रांति के इतिहासकार शिवकुमार सिंह कौशिकेय लिखते हैं।

गांधीजी की गिरफ्तारी की खबर नौ अगस्त को देर रात तक ही पुष्ट हो पायी। कार्यकर्ताओं ने रात में ही टीन का भोंपा बनाकर शहर में यह खबर फैला दी और दूसरे दिन की हड़ताल की तैयारी में जुट गये। जगह-जगह छोटी सभाएं भी हुईं। दस अगस्त को भारी जुलूस निकला और पूरे शहर को बंद कराया गया। स्कूल-कॉलेज के छात्र आंदोलन में शामिल हो गये।

11 अगस्त को भी जुलूस और सभा का भारी दौर चला। प्रशासन ने जन-उत्तेजना को देखकर कचहरी और सरकारी कार्यालयों में ताले लगा दिये। आंदोलन के कई जुझारू नेताओं को भारत रक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया।

बलिया के क्रांतिकारियों ने आगे के तीन.चार दिनों में रेल पटरियों, टेलीफोन के तार और संचार के दूसरे साधनों में तोड़-फोड़ कर उसे बेकार किया। महिलाओं के जुलूस न्यायालयों तक ले जाये गये।

आंदोलन जिले के गांवों में पहुंच गया और लोगों ने प्रशासन को वहां भी पंगु कर दिया। सरकारी कार्यालयों पर तिरंगा फहराया गया। कई जगहों पर रेलवे स्टेशन, माल गोदाम और डाकघरों में आग लगा दी गयी। मालगाड़ी लूट ली गयी और एक रेलगाड़ी पर कब्जा कर उसका नाम आजाद हिंद ट्रेन रख दिया गया। 15 अगस्त को एक स्टेशन भी जला दिया गया। उन्होंने थाने पर कब्जा कर उसपर तिरंगा फहरा दिया। रेवती थाने के लोगों ने पटरियां उखाड़कर और डाकघर जलाकर कार्यालयों को कब्जे में ले लिया। सिपाही भाग गये और लोगों ने खुद को आजाद कर लिया। चोरी-डकैती के खिलाफ सख्त कार्रवाई होने लगी।

सप्ताह भर में बलिया जिले के ज्यादातर थानों पर क्रांतिकारियों का कब्जा हो गया और प्रशासन को लोगों ने अपने हाथ में ले लिया और स्वराज सरकार का गठन कर लिया। इन संघर्षों में 32 लोग शहीद हो गये।

बलिया की आजादी की निर्णायक लड़ाई 19 अगस्त को लड़ी गयी। उस दिन जनता की भारी भीड़ कलक्टर कार्यालय पर पहुंची। जिले के बाकी हिस्सों की स्थिति देखकर अधिकारियों ने यही उचित समझा कि जेल में बंद कांग्रेस के नेताओं को रिहा कर दिया जाए और उनके हाथ में नेतृत्व सौंप दिया जाए। नेताओं को रिहा कर दिया गया और कलेक्टर तथा अधिकारियों ने नेताओं को प्रशासन सौंप दिया। अधिकारियों ने खुद को सिविल लाइंस तक सीमित कर लिया। 20 अगस्त को बलिया भारत में एक आजाद द्वीप बन गया और प्रजातांत्रिक स्वराज सरकार का गठन किया गया जिसके जिलाधिकारी चित्तू पांडेय बने।

थानों और कार्यालयों पर कब्जे के बाद कब्जे में आये अधिकारियों-कर्मचारियों कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया और न ही उनके परिवार वालों के साथ कोई बदसलूकी हुई। 22 अगस्त को ब्रिटिश अधिकारी नेदरसोल को बलिया भेजा गया। उसने फौज की टुकड़ी की मदद से बलिया पर फिर से अंग्रेज शासन बहाल किया। उसने हत्या, लूट, आगजनी और महिलाओं पर अत्याचार की मिसाल कायम की। कई लोग बुरी तरह घायल हुए। सैकड़ों लोगों को जेल में डाल दिया गया। इसमें 50 से अधिक लोगों को फांसी पर चढ़ा दिया गया। कुछ को पीट-पीटकर मारा गया और कई की जानें जेल के अत्याचार ने ले लीं।

जेल से रिहा होने के बाद नेहरू, जयप्रकाश नारायण और डॉ लोहिया ने अलग-अलग यहां की यात्रा की और यहां के लोगों को उनकी बहादुरी के लिए बधाई दी। नेहरू ने 1945 में एक बड़ी सभा की थी। यहां के संघर्ष का नेतृत्व समाजवादियों और कांग्रेस के उग्र दल ने किया जबकि कांग्रेस का नेतृत्व नरम बना रहा और इसने आंदोलन में ज्यादा हिस्सा नहीं लिया।

मिदनापुर : तामलुक जातीय सरकार

अगस्त क्रांति के इतिहास में मिदनापुर की जातीय सरकार एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। असहयोग आंदोलन और सिविल नाफरमानी के समय से ही राजनीतिक रूप से सजग, इस क्षेत्र में युद्ध के खिलाफ सक्रिय प्रतिरोध चल रहा था और लोगों ने इलाके से चावल ले जाने के ब्रिटिश सरकार के कदम के विरोध में संघर्ष किया था, इसमें एक व्यक्ति की जान भी गयी थी। यहां भी अगस्त क्रांति की लड़ाई लड़ने के लिए पहले से तैयारी थी। इसलिए बंबई में भारत छोड़ो का प्रस्ताव पास होते ही ब्रिटिश राज के चिह्नों और संचार के साधनों- टेलीफोन, डाक और सड़क- को साम्राज्य से अलग करने का काम शुरू हो गया। लोगों की भीड़ ने थानों को कब्जे में लेना शुरू कर दिया। ऐसे ही तामलुक के जिला मुख्यालय के थाने पर गये एक ऐतिहासिक जुलूस का नेतृत्व करते हुए कांग्रेस की नेता मातांगनी हाजरा 29 सितंबर, 1942 को शहीद हो गयीं। इस जुलूस में महिलाएं हजारों की संख्या में थीं।

जिले भर में साम्राज्य के चिह्नों को मिटाने और संचार साधनों पर हो रहे हमले को रोकने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने भारी दमनचक्र चलाया जिससे मुकाबले के लिए 17 दिसंबर, 1942 को तामलुक जातीय सरकार बनी। यह सरकार करीब-करीब दो साल तक चली और 1944 में गांधीजी की अपील पर इसे भंग कर दिया गया। तामलुक की जातीय सरकार सतारा की प्रति-सरकार की तरह ही अहिंसा के गांधीजी के तरीकों से अलग हिंसक और अहिंसक, दोनों उपायों का सहारा ले रही थी, लेकिन यह सब गांधीजी के नाम पर ही हो रहा था। गांधी उनके प्रेरणा-स्रोत थे। यहां की एक और खास बात थी कि वे सुभाष बोस के बहादुराना कार्यों से भी काफी प्रेरित थे और उन्हें लगता था कि आजाद हिंद फौज समुद्र के रास्ते से आकर मिदनापुर को मुक्त कराएगी।

दस्तावेज बताते हैं कि जातीय सरकार के लोग जयप्रकाश नारायण के संपर्क में भी थे। उनकी एक बैठक आनंदा प्रसाद चौधरी ने करायी थी, इसका जिक्र मिलता है।

महात्मा गांधी 1945 में तामलुक आए और उन्होंने प्रार्थना सभा की। गांधी ने लोगों के साहस और बलिदान की तारीफ की, लेकिन हिंसा के इस्तेमाल को गलत बताया। नेहरू और जेपी ने भी इस इलाके का दौरा किया। मातांगनी हाजरा की मूर्ति कलकत्ते और तामलुक दोनों जगहों पर लगी।

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