1942 में समाजवादियों के योगदान का ठीक से मूल्यांकन होना अभी बाकी है – आनंद कुमार

0

ह जनक्रांति कई संगठनों की अवसरवादिता के कारण अत्यंत प्रतिकूल राजनीतिक परिस्थितियों में संपन्न हुई। यह अविश्वसनीय सत्य है कि ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का कांग्रेस को छोड़कर सभी उल्लेखनीय दलों और मंचों ने विरोध किया था। इसमें मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, देशी रजवाड़े और कम्युनिस्ट सबसे उल्लेखनीय थे। एक तरफ अग्रेज गांधी के नेतृत्व में ‘भारत छोड़ो’ के लिए आंदोलित कांग्रेस को अवैध घोषित कर रहे थे और दूसरी तरफ कम्युनिस्ट पार्टी पर लगा प्रतिबंध हटा दिया गया। वायसराय की केन्द्रीय काउंसिल में मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, देशी रियासतों और परिगणित जाति महासंघ के नेता सदस्य बनकर जुड़ गये। ब्रिटिश पुलिस, सेना और इंडियन सिविल सर्विस (आई.सी.एस.) ने भी अपनी पूरी ताकत ब्रिटिश राज के पक्ष में लगायी थी। कांग्रेस द्वारा दलितों के हितों की अनदेखी से असंतुष्ट अखिल भारतीय परिगणित जाति महासंघ भी इसका विरोधी था। हालांकि इससे गांधी के अस्पृश्यता उन्मूलन से जुड़े दलित नेताओं और कार्यकर्ताओं पर विशेष असर नहीं पड़ा। 1946 में बम्बई में हुआ नौसैनिक विद्रोह भी एक प्रशंसनीय अपवाद था।

मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग ने तो 1940 से ही कांग्रेस की हर कोशिश के खिलाफ अंग्रेजों का खुला साथ दिया। उन्होंने ‘पाकिस्तान’ बनाने की मांग के लिए सौदेबाजी की और ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौरान ब्रिटिश वायसराय की दमनकारी नीतियों का आँख मूंदकर समर्थन करते रहे। यह भी याद रखना होगा कि मुस्लिम लीग की ब्रिटिश राज की मदद के बावजूद मौलाना आजाद, ख़ान अब्दुल गफ्फार ख़ान, रफ़ी अहमद किदवई, फरीदुल हक़ अंसारी जैसे नेताओं ने गांधी की अगुआई में अगस्त क्रांति को अपना पूरा समर्थन दिया और बंदी जीवन कबूल किया। वस्तुत: ‘भारत छोड़ो (क्विट इंडिया)’ का सम्मोहक नारा भी मुंबई के तेजस्वी समाजवादी जननायक यूसुफ मेहर अली द्वारा ही सुझाया गया था जिसे गांधीजी ने अपने 8 अगस्त के ऐतिहासिक भाषण में देश को अर्पित किया।

इसी के समांतर, हिन्दू महासभा और उसके अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकर ने भी ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के दौरान अंग्रेजों का साथ देने का अभियान चलाया। कांग्रेस ने देशभर में युद्ध-विरोधी माहौल बनाते हुए ‘न एक भाई, न एक पाई!’ का नारा दिया था। इसके खिलाफ हिन्दू महासभा के नेताओं ने हिन्दुओं की सैनिक सामर्थ्य बढ़ाने के लिए ब्रिटिश फौज में भर्ती होने की अपील की। उनके अनुसार सभी को अंग्रेजी राज की मजबूती के लिए पूरी वफादारी के साथ काम करना चाहिए – ‘स्टिक टु योर पोस्ट!’ हिन्दू महासभा के बंगाल के सबसे बड़े नेता डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अंग्रेज शासन को लिखा कि  गांधी और कांग्रेस के आह्वान से चौतरफा अव्यवस्था जरूर होगी लेकिन उनका अंग्रेजों के साथ सहयोग बना रहेगा। उन्होंने 26 जुलाई, 1942 को लिखे बहुचर्चित सहयोग-पत्र में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ को बंगाल और देश में विफल करने के लिए अनेकों उपाय भी सुझाए। 1939 में कांग्रेस ने युद्ध विरोधी अभियान में सरकारों और विधायिका से इस्तीफा दिया और हिन्दू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर बंगाल, सिंध और उत्तर-पश्चिम प्रांत में सरकारें चलायीं। इससे ‘पाकिस्तान’ की मांग कर रही देशतोड़क ताकतों को मजबूती मिली।

देशी रियासतों में से भी अधिकांश राजा और नवाब गांधी और कांग्रेस के इस निर्णायक संघर्ष में ब्रिटिश राज के साथ थे। उन्होंने अंग्रेजों के युद्ध कोष के लिए अपनी प्रजा से धन एकत्रित किया और अंग्रेजी राज को खुलकर चंदा दिया। देश-विदेश में ब्रिटिश राज का गुणगान किया। जबकि ब्रिटिश प्रधानमन्त्री विंस्टन चर्चिल ने साफ किया था कि ब्रिटेन किसी भी कीमत पर भारत की जनता की स्वराज की मांग को नहीं स्वीकार करेगा। लेकिन इन नवाबों और राजाओं के विपरीत अधिकांश देशी रियासतों में  गांधी के प्रति आकर्षित और कांग्रेस से प्रेरित प्रजामंडलों की अगुआई में अनेकों प्रकार से भारत छोड़ो आन्दोलन को सहायता मिली।

साम्प्रदायिक और सामंती ताकतों और अंग्रेजी राज का यह अपवित्र गठबंधन अंतरराष्ट्रीय कारणों से 1941 से 1945 तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सहयोग पाकर और कठोर और दमनकारी बन गया। हिटलर और स्टालिन के बीच समझौते तक, 1939 और 1941 के बीच, भारत के कम्युनिस्ट ब्रिटिश राज के साथ नहीं थे। कम्युनिस्ट पार्टी एक प्रतिबंधित संगठन था क्योंकि सभी कम्युनिस्ट शुरू में द्वितीय विश्वयुद्ध को ‘साम्राज्यवादी युद्ध’ मानते थे। लेकिन रूस से हिटलर के उलझने के साथ ही कम्युनिस्ट इसे ‘जन युद्ध’ बताने लगे और अंग्रेजी राज के सहयोगी बन गये। देश की आजादी की निर्णायक लड़ाई में भी रूस-प्रेम के कारण अंग्रेजी राज की मजबूती में जुटने के कारण कांग्रेस के कार्यकर्ता उन्हें ‘इंडो-रशियंस’ ही कहने लगे थे। गांधी, कांग्रेस और ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ को गलत मानते हुए क्रांतिकारियों के खिलाफ पुलिस की मुखबिरी जैसे गंदे काम करने लगे। कांग्रेस द्वारा स्थापित जनसंगठनों पर कब्जा करने में जुट गये। इससे किसान आन्दोलन, मजदूर आन्दोलन, महिला आन्दोलन और विद्यार्थी-युवा आन्दोलन में बहुत कमजोरी आ गयी। ‘हिन्दू राष्ट्र’, ‘मुस्लिम राष्ट्र’, ‘सिख मुल्क’, ‘द्रविड़िस्तान’ जैसी मांग करनेवाली साम्प्रदायिक ताकतों और भारत-विभाजन की मांग करनेवालों को लाभ मिला।

इस शर्मनाक तस्वीर का एक अनुमान डॉ. लोहिया के 23 फरवरी ’47 को कलकत्ता से गांधीजी को लिखे एक पत्र से लगाया जा सकता है : ‘कलकत्ते में कुछ करने का प्रयत्न तो किया लेकिन नतीजा नहीं निकला। कुछ ऐसी भी जिम्मेदारियां बढ़ गयी हैं जिन्हें निभाना मुश्किल हो रहा है। मजदूर आन्दोलन पर तो हिन्द-रूसियों का बहुत जोर है। मुझे तो एक ही रास्ता दिखाई देता है। चार मोटी मांगों को लेकर 1. कम से कम मजूरी बंधे, 2. छंटनी हो तो दूसरा धंधा मिले, 3. मजूर संघ की मार्फत काम हो, 4. सरकारी या नीम-सरकारी मकान बने, सभी 50 लाख मजूरों को दिलाया जाए और एक नयी टीयूसी (ट्रेड यूनियन कांग्रेस) बनायी जाए। पहले 6-8 महीने तो 50 में से कम से कम 20 लाख को भर्ती करें और फिर इन मांगों के लिए एक आम हड़ताल की नोटिस दी जाए। इस तरह मजूर आन्दोलन बढ़े, राष्ट्रीय बने और हिन्द-रूसियों का भी असर खतम हो। कुछ विद्यार्थियों में भी मैंने इसी कुछ रचना की और संगठन की बातें कही हैं….।’

यह अलग बात है कि एक अरसे बाद की आत्म-समीक्षा में कम्युनिस्टों ने माना कि गांधी और ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन का विरोध करना, नेताजी सुभाष बोस और आजाद हिन्द फौज की निंदा करना और जर्मनी से रूस की रक्षा के इरादे से भारत में ब्रिटिश राज की मदद करना ‘एक ऐतिहासिक भूल’ थी।

अरुणा-लोहिया-जयप्रकाश : इन्कलाब जिंदाबाद!

समाजवादियों के लिए ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन अपने समर्पण और पराक्रम को आजमाने का स्वर्णिम अवसर था। इनके द्वारा आन्दोलन के नीति निर्धारण, संगठन, और प्रचार-प्रसार का रोमांचक काम संचालित किया गया।  इसके नामकरण में यूसुफ मेहरअली  द्वारा महात्मा गांधी की मदद करने से लेकर सभी नेताओं की गिरफ्तारी के बावजूद 9 अगस्त को मुंबई के गवालिया टैंक मैदान में पुलिस के भारी बंदोबस्त के बीच अरुणा आसफ अली द्वारा तिरंगा फहराने तक समाजवादियों ने इसके शुभारम्भ में योगदान किया। अरुणा आसफ अली की देखादेखी देशभर में महिलाओं ने इस आन्दोलन को अपना विविध योगदान दिया। समाजवादी महानायक द्वय जयप्रकाश नारायण और डॉ राममनोहर लोहिया की 11 अप्रैल ’46 को आखिरी ‘बेहद खतरनाक’ आन्दोलनकारियों के रूप में आगरा जेल से रिहाई और चौतरफा इन महावीरों का जन-अभिनंदन इस आन्दोलन की अंतिम कड़ी बनी।

यह अस्वाभाविक नहीं है कि इतनी लम्बी अवधि तक इतने विशाल राष्ट्र में गतिमान रहे जन-आन्दोलन में समाजवादियों के बहुआयामी योगदान को कुछ पंक्तियों और कुछ पृष्ठों में समेटना असंभव है। यह तो एक व्यवस्थित राष्ट्रीय अध्ययन टोली के द्वारा ही संभव होनेवाला है। यहाँ यह याद दिलाना उपयोगी होगा कि ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन की 40वीं जयंती पर ‘नया संघर्ष’ मासिक पत्रिका ने 1982 में 400 पृष्ठों से अधिक का ‘अगस्त क्रान्ति विशेषांक’ तैयार किया था। लेकिन प्रो. विनोद प्रसाद सिंह जैसे अनुभवी और समाजवादी बुद्धिजीवी के सम्पादक होने के बावजूद सिर्फ बिहार और उत्तरप्रदेश की घटनाओं का वर्णन सामने लाने में भी सफलता नहीं मिल पायी। इस आलेख में भी लोहिया, जेपी और अच्युत पटवर्धन से जुड़े कुछ यादगार प्रसंगों का ही जिक्र करके रुकना होगा।

इस क्रम में बम्बई से डॉ लोहिया के मार्गदर्शन में 13 अगस्त से 14 नवम्बर 1942 के बीच 94 दिनों तक मुंबई के स्वतंत्रता सेनानियों की मदद से ‘कांग्रेस रेडियो’ का संचालन करना बुनियादी महत्त्व का योगदान था। इसमें उषा मेहता के साहस की पूरे देश में प्रशंसा हुई। इसी तरह से ‘करेंगे या मरेंगे’ भूमिगत बुलेटिन की शुरुआत भी लोहिया की प्रेरणा से हुई। लोहिया ने बम्बई और कलकत्ता से आन्दोलन को गति दे रहे विविध समूहों को भी एकजुट किया। लोहिया के लिखे पर्चों और रेडियो भाषणों ने दिशा दी। ‘मार्क्स के बाद का अर्थशास्त्र’ (इकोनॉमिक्स आफ्टर मार्क्स) नामक प्रसिद्ध सैद्धांतिक निबंध भी इसी अवधि की रचना है। इससे राष्ट्रीय सन्दर्भ और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों की पूरी समझ मिलती थी। कोलकाता में लोहिया ने कई जमीनी कार्रवाइयों का भी संयोजन किया। इसमें कोलकाता के मानिकतल्ला डाकघर को लूटना बहुचर्चित दिलेरी का उदाहरण बना।

भूमिगत जीवन की घटनाओं में आजाद दस्ता की तैयारी में नेपाल में जयप्रकाश के साथ गिरफ्तारी और फिर नेपाली पुलिस के कब्जे से छूटने की घटना भी बहुत रोमांचक थी। 20 मई, ’44 को मुंबई में लोहिया की गिरफ्तारी हुई। उन्हें जान-बूझकर तकलीफ देने के लिए ही कुख्यात लाहौर किला जेल में बंदी रखा गया। जेल जीवन की यातनाओं ने उनको आजीवन ह्रदय रोग से पीड़ित किया। जेल में की जा रही बर्बरता के बारे में लोहिया के ब्रिटिश लेबर पार्टी के अध्यक्ष हेरोल्ड लास्की और ब्रिटिश वायसराय लिनलिथगो को लिखे पत्रों ने देश में सनसनी पैदा कर दी थी।

अगस्त क्रान्ति के मंच पर जयप्रकाश नारायण (जेपी) का नवम्बर, ’42 में चौंका देनेवाले अंदाज में प्रवेश हुआ। जयप्रकाश नारायण द्वारा पांच अन्य वीर समाजवादियों – रामनंदन मिश्र, सूरज नारायण सिंह, योगेन्द्र शुक्ल, शालिग्राम सिंह और गुलाबचंद गुप्ता – के साथ  दीवाली की रात (9 नवम्बर, ’42) हजारीबाग केन्द्रीय कारागार की उंची दीवाल लांघकर आजाद हो जाना और पूरे देश में भूमिगत संगठन बनाना बहुत रोमांचक घटना थी। हजारीबाग जेल से आजाद होते ही जेपी और रामनंदन मिश्र गया होते हुए बनारस पहुंचे। काशी विद्यापीठ और काशी विश्वविद्यालय के सहयोगियों की मदद से कई महत्त्वपूर्ण परिपत्र जारी किये गये। देशभर में संपर्क बना। इस प्रकार इस आन्दोलन में बनारस- कोलकाता, दिल्ली और मुंबई के त्रिकोण के बीच- एक मध्य-बिंदु जैसा बन गया।

जेपी ने अप्रैल,’43 में बिहार-नेपाल सीमा स्थित बनरझूला (हनुमान नगर) में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल, दिल्ली और पंजाब के सक्रिय कार्यकर्ताओं का सफल सम्मेलन किया। इसके बाद आजाद दस्ता की स्थापना की गयी और 18 स्वयंसेवकों के साथ एक प्रशिक्षण केंद्र की शुरुआत हुई। इसके मुख्य प्रशिक्षक  नेताजी सुभाष बोस की आजाद हिन्द फौज से जुड़े रह चुके सरदार नित्यानंद थे।

लेकिन ब्रिटिश जासूसों को कुछ हफ्तों बाद इस साहसिक पहल की जानकारी मिल गयी और नेपाल की राणाशाही पर दबाव डालकर 23 मई, ’43 को नेपाली पुलिस ने इस शिविर पर छापा मारा  और ब्रिटिश सरकार को सौंपने के इरादे से जेपी और लोहिया को गिरफ्तार किया। इसकी खबर मिलते ही सूरज नारायण सिंह के नेतृत्व में आजाद दस्ता के कई दर्जन नेपाली समर्थकों के साथ हनुमान नगर के जिलाधिकारी आवास पर रात के अँधेरे में हमला करके इन दोनों क्रांति नायकों को छुड़ाने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद लोहिया और जेपी अगले एक बरस तक ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन का नेतृत्व करने में सफल रहे।

लेकिन जेल तोड़कर भारतीय क्रांतिकारियों को आजाद कराने की इस लोमहर्षक कार्रवाई में भाग लेनेवाले रामेश्वर सिंह और अन्य अनेकों नेपालियों को राणाशाही द्वारा तत्काल गिरफ्तार करके लम्बे समय तक जेल में रखा गया। इसमें कृष्णवीर कामी और अब्दुल मियाँ की कैद में ही मौत हो गयी। लम्बी कैद की सजाओं में बंदी बाकी लोगों को 1945 में महात्मा गांधी के हस्तक्षेप से रिहा किया गया। आज भी भारत-नेपाल मैत्री में हनुमान नगर की घटना को सबसे चमकदार प्रसंग माना जाता है। इधर के दिनों में नेपाल में भारतीय राजदूत मंजीव सिंह पुरी ने हिन्दुस्तान टाइम्स में 16 अगस्त, 2019 को एक लेख लिखकर इसे भारत की आजादी की लड़ाई में नेपाल के लोगों के सबसे मूल्यवान योगदान के रूप में याद कराया है।

हजारीबाग की जेल से फरार होकर और नेपाली पुलिस के कब्जे से छूटकर भी जेपी जान हथेली पर लेकर सारे देश में घूमते रहे। इसमें विजया पटवर्धन (अच्युत पटवर्धन की छोटी बहन) ने उनका साहसिक सहयोग किया। जहां जेपी पहुँचते वहीं स्वतन्त्रता सेनानियों में नयी जान आ जाती थी। जेपी, लोहिया और अच्युत पटवर्धन ने यह विचार दिया कि मानव हत्या को छोड़कर बाकी सभी संभव तरीके से ब्रिटिश राज को ठप करने का सिलसिला चलाना चाहिए। इसके मुताबिक़ संचार व्यवस्था को तोड़ना, रेल और सड़क यातायात व्यवस्था को अवरुद्ध करना, हथियार ढोनेवाली रेलगाड़ियों को बारूद लगाकर उड़ाना और सरकारी कामकाज की जगहों पर कब्जा करके नष्ट करना मुख्य लक्ष्य बनाये गये। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यूसुफ मेहरअली की रचित ‘क्विट इंडिया’, लोहिया की ‘जन्गजू, आगे बढ़ो!’ पुस्तिका और जयप्रकाश के क्रांतिकारी पत्रों के प्रकाशन और वितरण से आन्दोलन की वैचारिकी मजबूत हुई।

अच्युत पटवर्धन की भूमिका का तो कोई मुकाबला नहीं था। उनके साहस और सूझबूझ से बम्बई प्रेसिडेंसी के सतारा (वर्तमान महाराष्ट्र प्रदेश के सतारा और सांगली) में तो समानांतर सरकार बन गयी। काशी विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र का अध्यापन छोड़कर ‘अगस्त-क्रांति’ में कूदे अच्युत पटवर्धन को इस पूरी अवधि में अंग्रेज सरकार गिरफ्तार नहीं कर सकी और वह पूरे देश में ‘सतारा के शेर’ के नाम से मशहूर हो गये।  ‘क्रान्ति-सिंह’ के नाम से मशहूर नाना पाटिल के नेतृत्व में स्थापित ‘प्रति-सरकार’ पूरे 44 महीनों तक चलायी गयी। नाना पाटिल 1932-’44 के बीच आठ बार अंग्रेजों द्वारा कैद में रखे जा चुके थे। इस सरकार ने 500 गाँवों में प्रशासन और न्याय-व्यवस्था का प्रशंसनीय संचालन किया। इस क्रांतिकारी परिवर्तन से गरीब परिवारों, महिलाओं, और किसानों में नयी आशा जगी। अंग्रेजी राज के कब्जे को हटाकर ‘प्रति-सरकार’ ने न्याय-समितियों का गठन करके सूदखोरों, बलात्कारियों और दूसरों की संपत्ति हड़पने वालों को सजा देने तक की जिम्मेदारियां सँभाली।

 इसीलिए इस आन्दोलन के समापन के बाद 1945 के आगे स्वतंत्रता सेनानी समारोहों में तीन पुराने नारे तो लगते ही थे – ‘भारतमाता की जय!’, ‘वन्दे मातरम!’ और ‘महात्मा गांधी की जय!’, इनमें तीन नारे और जुड़ गए –  नेताजी सुभाष की आजाद हिन्द फौज का जय-घोष ‘जय हिन्द!’ और ‘अगस्त क्रांति’ की वीरता से पैदा ‘अरुणा-लोहिया-जयप्रकाश : इन्कलाब जिंदाबाद!’ और ‘गूँजे धरती और आकाश – अच्युत, लोहिया, जयप्रकाश!’.

उपसंहार 

लेकिन  यह चिंताजनक सच स्वीकारना चाहिए कि ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो!’ और ‘करेंगे या मरेंगे!’ के मन्त्रों से पैदा राष्ट्रव्यापी आत्म-विश्वास और पुरुषार्थ के महत्त्व का अभी तक पूरा मूल्यांकन नहीं हो सका है। देश-विदेश में  बर्लिन (जर्मनी) और रंगून (म्यांमार) से लेकर हनुमान नगर (नेपाल) में मिली मदद का विस्तृत विवरण भारत की स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगाँठ के उत्सव के दौरान सामने आना चाहिए। यह याद रखना चाहिए कि 1942-46 के बीच की ‘अगस्त-क्रांति’ के दौरान देश की जनशक्ति के निर्माण में हर प्रदेश में समाजवादियों समेत सभी स्वातंत्र्य वीरों-वीरांगनाओं के योगदान की कहानी का लिखा जाना बाकी है। भारत की आजादी की लड़ाई में 9 अगस्त के महत्त्व को पहचानना और इसे राष्ट्रीय उत्सव में बदलना अभी भी आधा –अधूरा है।

Leave a Comment