अरण्य संस्कृति में ही गड़ी है हम सबकी गर्भनाल

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— जयराम शुक्ल —

क पत्रकार के नाते जल-जंगल-जमीन और जन पर लिखना-पढ़ना मुझे हमेशा से सुभीता रहा है। वनवासियों पर मेरी समझ किताबों के जरिए नहीं बनी, इस समाज को आंखों से जितना देखा और उनके बीच जाकर जो जाना बस उतना ही ज्ञान है, उससे ज्यादा कुछ नहीं। अलबत्ता एलविन वेरियर और वाल्टर जी ग्रिफिथ्स को पढ़ा है।

दोनों ने ही मध्यभारत की जनजातियों पर विशद और वैज्ञानिक अध्ययन किया है। स्वाभाविक तौर पर इन महापुरुषों के अध्ययन का आधार वैदिक काल की वह अरण्य संस्कृति नहीं रही जिसमें यह समाज पला-बढ़ा और आज यहाँ तक पहुंचा, पढ़कर यही एक खोट महसूस हुआ। वेरियर और ग्रिफिथ्स मेरे लिए महज एक विद्वान व अकादमिक सूचना संसाधन मात्र हैं। मेरी जो भी समझ बनी वह उनके बीच जाकर उनके हाल देखकर ही बनी।

जाहिर है, जनजातियों के मसले समझने का मेरा नजरिया एक पत्रकार का है और इस हिसाब से आप मुझे इस विषय के बारे सतही जानकार घोषित करने के लिए स्वतंत्र हैं।

अनुसूचित जनजाति की समस्याएं और उनके समाधान की बात करने से पहले यह जानना जरूरी है कि ये हैं कौन? क्या कारण है कि इन्हें मुख्य समाज से अलग करके देखा जाता है?

इतिहासकारों ने इन्हें आदिवासी कहकर संबोधित किया। जैसा कि अर्थ से ही स्पष्ट है यहाँ के आदि निवासी। इससे यह स्वमेव ध्वनित होता है कि इनके अलावा जो भी हैं वे इस देश के आदि.. वासी नहीं हैं अन्यत्रवासी थे। इतिहासकारों की इसी स्थापना की पीठ पर आर्यों और अनार्यों की थ्योरी गढ़ी गयी। यह एक बड़ी साजिश का हिस्सा थी, वो इसलिए कि जिससे विशाल भारतीय समाज में इसे आधार बनाकर आगे विभेद पैदा किया जा सके।

विभेद की ये कोशिशें हो भी रही हैं, कभी महिषासुर महोत्सव के जरिए, कभी यह बताकर कि ये भारतीय सनातन समाज के हिस्से नहीं हैं, इनका धर्म व इनकी मान्यताएं अलग हैं। राजनीतिक तुष्टीकरण इस मसले को और भी गंभीर बना देता है। मेरा मानना है कि इसे वनवासी समाज कहना ही सही और न्यायोचित होगा। इतिहास से आदिवासी शब्द सदा के लिए विलोपित कर दिया जाना चाहिए क्योंकि अंग्रेज और उनके वैचारिक वंशधरों ने आदिवासी शब्द ही सोची-समझी और दूरगामी परिणाम देनेवाली साजिश के चलते गढ़ा था।

अब विचार करने की जरूरत है कि ये वनवासी ही क्यों रहे आए जबकि अरण्य संस्कृति का विस्तार ग्राम्य और नागर संस्कृति तक हुआ। वनों से दूर एक नया समाज बना और वह आज उत्तरोत्तर आधुनिकता की दौड़ में इतना आगे पहुंच गया कि इस धरती से भी दूर नये ग्रहों पर बसने की सोचने लगा है।

मेरा ऐसा मानना है कि आदिमयुग के बाद जब सभ्यताओं के विकास का क्रम शुरू हुआ, मेधा का विकास द्रुतगति से होने लगा तो उस समाज में दो समानांतर वर्ग पनपे, उसका आधार और कुछ नहीं अपितु प्रवृत्ति और मनोवृत्ति थी। एक वर्ग में असुरक्षा बोध, भविष्य की चिंता और संग्रह की वृत्ति जनमी। यह अन्वेषक और नवाचारी वर्ग था जो वन-प्रांतरों से अलग एक दूसरी दुनिया के बारे में सोचने लगा। दूसरा वर्ग यथास्थिति से ही संतुष्ट रहा। वह प्रकृति को ही आदि से अंत तक अपना पालक और आराध्य मानता रहा। इन दोनों वर्गों में क्रमशः दूरियां बढ़ती गयीं।

वनों से दूर मैदानी हिस्से में नदियों के किनारे सभ्यताएं फलने लगीं। संग्रह वृत्ति के साथ पूंजीवाद शुरू हुआ और जंगल के बाहर का यह समाज नयी डगर पर चल पड़ा। उसकी बुद्धि और बाहुबल ने प्रकृति को ही अपनी पूंजी का संसाधन मान लिया। जो वनों में रह गये उन्होंने अपना भविष्य प्रकृति के ही हवाले छोड़ दिया। इस दृष्टि से देखें तो जो आज वनों में रह रहे हैं वो, और जो गांव व शहरों में बसते हैं वो, दोनों ही मूल रूप से एक हैं। यह थोपी हुई थ्योरी है कि वे आदिवासी हैं और जो शेष हैं वे बाहर से आए हुए आक्रांता।

वेद हमारी अरण्य संस्कृति की अमूल्य निधि हैं। इन्हें रचने में वनवासी समाज का भी उतना ही योगदान है।

वनवासियों के देवी-देवताओं और मान्यताओं पर भी विमर्श चलते रहते हैं। यह बात तो इतिहासकार भी मानते हैं कि शिव परिवार और हनुमानजी मूलतः अरण्य देवता हैं। वेदों में प्रकृति को ही देवता माना गया है। वैदिक देवता व्यक्त और व्यापक हैं। वे साक्षात हैं। वेदों में पंचभूतों को देवता माना गया है। वृक्ष, नदियां, पर्वत, पशु-पक्षी सभी के प्रति दैवीय भाव है। वनवासियों के प्रायः सभी देवी-देवता प्रकृति का प्रतिनिधित्व करते हैं।

भगवान शंकर जैव विविधता और प्रकृति के घनीभूत तेजपुंज हैं। वनवासियों के मंत्रोच्चार जो कि प्रायः आपदा-विपदा के समय या झाड़फूंक के लिए प्रयोग में लाये जाते हैं उनमें से प्रायः सभी में हनुमान जी या शंकर जी की दुहाई दी जाती है। शिव परिवार तो प्रकृति में सहअस्तित्व का अनुकरणीय प्रादर्श है जिसे वनवासी समाज आज भी जीता है। शिव वनवासियों के आदिदेव हैं। ग्राम्य व नागर संस्कृति के जनों ने तो काफी बाद में इनके अस्तित्व व महत्त्व को स्वीकार किया।

डॉ.राममनोहर लोहिया वानरों को बंदर नहीं मानते, अपितु इन्हें मनुष्य ही मानते हैं जो वन में रहते थे। वानर से ऐसा शब्दबोध भी होता है, वन-नर=वानर।

रामायण कथा वनवासियों के पराक्रम और अतुल्य सामर्थ्य की कथा है जिसमें उन्होंने राम के नेतृत्व में पूंजीवादआतंकवाद के पोषक साम्राज्यवादी रावण को पराजित कर सोने की लंका को धूलधूसरित कर दिया। रामकथा यथार्थ में वनवासियों के मुक्ति संघर्ष और विजय की अमरकथा है। इस कथा के नायक ने स्वयं वनवासी बनना स्वीकारा और तमाम वनवासियों को अपनी बराबरी में खड़ा करके समाज को समत्व की नयी परिभाषा दी।

सो इसलिए ये वनवासी सनातन से चले आ रहे भारतीय कुल परिवार के अभिन्न और अविभाज्य जन हैं। यदि कोई विभेद है तो वह है जीवन और विचार शैली का; परंपरा, परिवेश और पर्यावास का। वो प्रकृति के साथ गुंथे हैं और ये प्रकृति को भी वस्तु संपदा की दृष्टि से देखते हैं। यह विभेद भी महत्त्व का है क्योंकि यहीं से इनकी समस्याओं का समाधान सूझेगा।

औद्योगिकीकरण ने प्रकृति को संपदा का संसाधन मान लिया। वनवासियों की मुसीबत की शुरुआत यहीं से होती है। प्रकृति की नेमतें भी कभी-कभी उसकी दुश्मन बन जाती हैं। कस्तूरी मृगों के, और मणि उन सर्पों के नाश का कारण बन गयी जिनके फन में यह शोभित होता। जंगल-वन प्रांतरों का रत्नगर्भा होना उसके नाश का कारण है।

वनवासियों के समक्ष अपने अस्तित्व को बचाये रखने का संघर्ष है। पूरे देश के वनों से वनवासी जिन प्रमुख वजहों से बेदखल किये जा रहे हैं उनमें से पहली बड़ी वजह है खदानें।

युगों से तने घने वनों की भूमि के गर्भ में जो खनिज संचित है वह औद्योगिकीकरण के लिए चाहिए। ओड़िशा, झारखंड, बस्तर और मध्यप्रदेश के सिंगरौली इलाके में बड़ी संख्या में वनवासियों की बेदखली हुई और अभी भी बेदखली की योजना है।

जहां आज दुनिया के विकसित देश अपने वन पर्वत नदी झरने बचाने में लगे हैं वहीं हमारी खुदगर्ज व्यवस्था इनके सत्यानाश पर आमादा है। वैज्ञानिकों ने इंडोनेशिया की मृत्यु की घोषणा कर दी है। वहाँ अत्यधिक खनन से धरती का भूगोल ही बदल गया है। प्राकृतिक विपदाओं के लिए आज वह सबसे सुभेद्य देशों में से एक है। भारत के नीति नियंताओं ने नेहरूयुग से जो रफ्तार पकड़ी उसका एक्सीलेटर दबाये जा रहे हैं।

ओड़िशा में मेदांता को जिन वन-पर्वतों को खदानों के लिए दिया गया था वे वनवासियों की पहचान और अस्तित्व के साथ जुड़े थे। लंबा संघर्ष चला, कई वनवासियों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी तब कहीं जाकर सुप्रीम कोर्ट के दखल से वे वन पर्वत बच पाये। अपने सिंगरौली के साथ ऐसा नहीं हो सका। सिंगरौली में कोयला खदानों की श्रृंखला है। जैवविविधता से संपन्न वनों को खदानों के लिए बड़े औद्योगिक घरानों को दे दिया गया।

उद्योगपतियों ने मुआवजे के मोहजाल में फंसाकर वनवासियों को नर्क में धकेलने का काम किया है। सिंगरौली विस्थापन का क्रूर व कुटिल मॉडल है। इसी तर्ज पर देश के अन्य हिस्सों में हो रहा है। संस्कृति और पहचान की बात करें तो जो खैरवार वनवासी कभी समूचे सिंगरौली में राज करते थे वे आज या तो भिखारी हैं या फिर महानगरों के स्लम में रहनेवाले मजदूर।

वनवासियों को बेदखल करने और कंगाल बनाने की कथा हर सौ कोस में मिल जाएगी। कहीं बड़े बाँधों के लिए बेदखल किया जा रहा है तो कहीं नेशनल पार्क और अभयारण्यों के लिए। जंगल में जानवर की हिफाजत की चिंता है मनुष्य की नहीं। वह मनुष्य जो युगों से जानवरों और प्रकृति के साथ सहअस्तित्व का जीवन जी रहा था उसे आज जानवरों का दुश्मन करार कर दिया गया। जो राजे-रजवाड़े ने बाघों व अन्य जानवरों का शिकार करके लाट साहबों की पद्वियां पायीं आज उन्हीं के नुमाइंदे इस नीति के नियंता बने हुए हैं जो वनवासियों को विकास का बाधक मानते हैं।
योजनाएं वनवासियों के लिये बनती हैं पर कभी यह जानने की कोशिश नहीं होती कि वे खुद कैसा विकास चाहते हैं। थोपा हुआ विकास उन्हें विनाश की मझधार में ले जाकर छोड़ रहा है। 

वनवासियों की जीवनशैली, परिवेश और उनकी दृष्टि को जाने बिना हम सही दिशा में नहीं बढ़ सकते।

प्रकृति को लेकर जो उनका दृष्टिकोण है वही इस दुनिया को बचा सकता है। प्रकृति से हम उतना ही लें जितना फूल से भौंरा, जितना गाय से बछड़ा। प्रकृति का वध करके विकास की सोचेंगे तो हमें इस सृष्टि में कहीं सहारा ढ़ूंढ़े नहीं मिलेगा।

इस शताब्दी के महान वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंस यह चेतावनी दे चुके हैं- हमारा हर कदम विनाश की ओर बढ़ रहा है। हमें आत्महंता प्रवृत्ति छोड़नी होगी या फिर किसी दूसरे ग्रह को खोजना होगा जहां हम अपना डेरा जमा सकें क्योंकि विकास की आत्मघाती रफ्तार तेज और तेज होती जा रही है। वनवासियों से हम जीने की जीवनदृष्टि ले सकते हैं पर अभी तो फिलहाल उन्हीं के अस्तित्व के सत्यानाश में लगे हुए हैं।

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