(प्रस्तुत लेख प्रो राजकुमार जैन के विस्तृत लेख का पहला हिस्सा है। बाकी हिस्सा भी शीघ्र प्रकाशित किया जाएगा।)
सत्रह मार्च 2018 को कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के स्थापना दिवस पर दिल्ली में आयोजित समागम में देश के विभिन्न प्रांतों से आये सैकड़ों समाजवादी साथियों ने भाग लिया था। भविष्य में इसी तरह के समागम आयोजित करने का संकल्प लिया गया। 1977 में सोशलिस्ट पार्टी के जनता पार्टी में विलय के पश्चात यह पहला अवसर था जब कुछ साथियों की पहल पर बिना किसी पार्टी, संगठन, नेता के केवल वैचारिक लगाव के साथियों ने बिना किसी बाहरी आर्थिक सहायता के आपस में धन संग्रह करके समागम संपन्न किया। इस मौके पर एक सोशलिस्ट मेनिफेस्टो अंग्रेजी, हिंदी में जिसको विषय के जानकारों ने मेहनत करके समाजवादी दर्शन के आधार पर रचना की थी जिसमें वर्तमान तथा आनेवाली पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शन का प्रयास हुआ।
12-13 जुलाई 2019 को पुनः दिल्ली में ही समाजवादी समागम आयोजित किया गया। समागम के अवसर पर 314 पृष्ठ की “समाजवादी विचार-संकल्प बदलाव का” नामक पुस्तक का विमोचन भी किया गया जिसमें समाजवादी चिंतकों आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण, डॉ राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, प्रो. मुकुट बिहारी लाल, मधु लिमये, किशन पटनायक के लेखों के अतिरिक्त अनेक विद्वानों के समाजवाद से संबंधित विषयों पर लेख सम्मिलित किये गये।
हमारे एक साथी कुरबान अली ने 27 जुलाई 2019 को वरिष्ठतम समाजवादी नेता डॉ जी.जी. पारिख को एक पत्र लिखकर समाजवादी समागम पर अपने विचार व्यक्त किये- “हैरत की बात तो यह है कि इस समाजवादी समागम ने सांप्रदायिक शक्तियों से लड़ने का इरादा व्यक्त करना तो दूर की बात, उलटे उनके प्रवक्ताओं को आमंत्रित कर आरएसएस को महिमामंडित करने का घृणित कार्य किया और जब मैंने उसका विरोध किया तो उलटे मुझे खामोश कराया गया। इतना ही नहीं, सारे समाजवादी साथी आरएसएस या उसके कारिंदों द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में फख्र के साथ शामिल होते हैं…. यह विचारधारा पर अडिग रहने का दावा करनेवाले समाजवादियों का असली चरित्र है।”
समाजवादी समागम पर कुरबान अली झूठे, मनगढ़ंत आरोप लगा रहे हैं। दोनों दिन के वक्ताओं के आडियो-वीडियो प्रमाण के लिए सुरक्षित हैं। लगभग हर वक्ता ने आरएसएस-भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति तथा आर्थिक नीतियों का विरोध किया है। सम्मेलन में ज्यों ही श्री वेद प्रताप वैदिक ने आत्मप्रशंसा में अपने तथा आरएसएस के संबंधों को बताना शुरू किया, उनका विरोध हुआ। अध्यक्ष ने उनसे कहा कि आप कृपया लोहिया की भाषा नीति तथ विदेश नीति पर ही बोलें। इस घटना के अतिरिक्त पूरे सम्मेलन का तेवर संघ-भाजपा विरोधी था। समागम के अवसर पर छपी पुस्तक के किसी भी लेख में आरएसएस-भाजपा का गुणगान नहीं हुआ। समागम का आयोजन करनेवाले कार्यकर्ताओं ने अपना पूरा जीवन समाजवादी आंदोलन में लगाया है। अन्याय के विरोध, सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ लड़ते हुए केवल लफ्फाजी से नहीं, संघर्ष करते हुए, वर्षों जेलों के कारावास को भोगते हुए बिताया है।
कुरबान अली के इस पत्र को पढ़कर कोई हैरत नहीं हुई क्योंकि हम कार्यकर्ताओं की तो औकात ही क्या? जयप्रकाश नारायण, डॉ राममनोहर लोहिया तक पर आरोप लगाने का सुनियोजित अभियान इन्होंने चला रखा है।
कई साल पहले इन्होंने सामयिक वार्ता में लेख लिखा था, उसी लेख को इन्होंने पुनः छपवाया तथा इनकी हार्दिक इच्छा है कि ये लेख बार-बार प्रकाशित होता रहे। लोहिया की गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति पर इन्होंने नेहरू से व्यक्तिगत चिढ़ तथा लोकसभा चुनाव जीतने के लिए जनसंघ से सौदेबाजी करने का आरोप लगाया है। वे लिखते हैं, “1963 में उत्तर प्रदेश के तीन उपचुनावों में डॉ लोहिया ने न केवल जनसंघ का समर्थन लिया बल्कि जौनपुर में तो जनसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय के समर्थन में चुनावी सभाओं को संबोधित भी किया। बदले में दीनदयाल उपाध्याय और नानाजी देशमुख ने फर्रुखाबाद में डॉ लोहिया के समर्थन में चुनाव प्रचार किया। यहीं से जनसंघ का समर्थन लेने और देने की उनकी राजनीति की शुरुआत होती है।……भाषा के सवाल खासकर हिंदी के समर्थन के सवाल पर तो उनकी (जनसंघ) जमकर तारीफ की।” जबकि अंग्रेजी हटाओ आंदोलन तथा भारतीय भाषाओं की वकालत के संबंध में डॉ लोहिया का कहना था- “हिंदी जहन्नुम में जाए, मद्रास में तमिल चले न कि अंग्रेजी।” जबकि कुरबान अली ने ‘जनता वीकली’ के मार्च, 20-27, 2011 के अंक में गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति को सफल बताते हुए सही ठहराया था। 1963 के डॉ लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद का परिणाम था कि 1967 में और फिर नौ प्रदेशों में कांग्रेस को हार मिल चुकी थी। आज क्यों इसके लिए डॉ लोहिया एवं जेपी को दोषी ठहराया जाता है। इसको समझने की जरूरत है।
1975 में इंदिरा गांधी द्वारा जो आपातकाल लगाया गया उसके लिए वे जयप्रकाश नारायण को जिम्मेदार ठहराते हुए लिखते हैं, “1974 में जयप्रकाश नारायण ने श्रीमती इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी का विरोध करते हुए न केवल आरएसएस को देशभक्त बताया था बल्कि सेना और अर्धसैनिक बलों से बगावत करने की अपील तक कर डाली थी जिसके कारण देश में आपातकाल लगाना पड़ा।”
नेहरू-गांधी परिवार के प्रति लोहिया का व्यक्तिगत विरोध घोषित करते हुए उनका आरोप है कि “जिन समाजवादी नेताओं ने अंध गैर-कांग्रेसवाद और नेहरू-गांधी परिवार के विरोध के नाम पर जिन सपोलों को दूध पिलाने का काम किया, जिन्हें राष्ट्रवाद के सर्टिफिकेट दिये, उस पर थोड़ा आत्ममंथन और आत्मचिंतन किया जाय। क्या व्यक्तिगत विरोध के नाम पर हम अपने देश के वजूद, उसके संविधान, उसकी एकता, उसकी सैकड़ों साल पुरानी सभ्यता के वजूद से ही समझौता कर लेंगे।”
देश के समाजवादी कार्यकर्ताओं को सीख देते हुए वे फरमाते हैं कि “समाजवादियों को हमेशा गर्व से अपने नेताओं को सिर्फ महिमामंडित करने का काम ही नहीं करना चाहिए बल्कि उन्होंने जो गलतियां या पाप किये हैं उनको भी स्वीकार करना चाहिए और उसका प्रतिवाद करना चाहिए।”
जयप्रकाश नारायण, डॉ लोहिया पर आरोप लगाने के बाद अपने निंदा अभियान को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने हाल में ही एक लेख में पूरे समाजवादी आंदोलन को दलित, अल्पसंख्यक, पिछड़ा विरोधी घोषित करने का भी प्रयास किया।
वे लिखते हैं कि “अब जरा बात सामाजिक न्याय का दम भरने और हर वक्त ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ का नारा लगानेवाली महान सोशलिस्ट पार्टियों के नेतृत्व की भी हो जाए। 1934 से लेकर 1977 तक यानी 43 वर्षों की अवधि के दौरान सोशलिस्ट पार्टी और दलित, आदिवासी, महिला और मुसलमानों के हितैषी और हिमायती हने का दावा करनेवाले महान समाजवादी और सेकुलर नेता जैसे आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया अपनी पार्टी का अध्यक्ष किसी दलित, आदिवासी, महिला या मुसलमान को नहीं बना सके। जब हिस्सेदारी और भागीदारी देने का सवाल आया तो इतिहास गवाह है कि दलितों के साथ-साथ आदिवासियों, महिलाओं और मुसलमानों सहित दूसरे अल्पसंख्यकों की अनदेखी की गयी। सरकार या संसद या विधानसभाओं में उन्हें प्रतिनिधित्व देना तो दूर की बात, अपने दलों में भी समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया और सोशलिस्टों का पिछड़े पावें सौ में साठ का नारा थोथा ही साबित हुआ।”
कुरबान अली समाजवादियों के अंध-विरोध के कारण इतिहास को भी झुठलाने पर आमादा हो गये हैं। कौन नहीं जानता कि ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ के सिद्धांत के कारण 1963 में डॉ लोहिया के स्वयं तथा मधु लिमये, किशन पटनायक के संसद सदस्य होने के बावजूद भी पिछड़े मनीराम बागड़ी को सदन में अपना नेता चुना। 1967 में 23 संसदीय संसोपाई (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी) ग्रुप ने डॉ. लोहिया, मधु लिमये, एस.एम. जोशी के सामने पिछड़े रवि राय को संसदीय दल का नेता बनाया, राज्यसभा में भी पिछड़े गौड़े मुरहरी को नेता बनाया।
1967 में बनी संविद सरकारों के समय डॉ लोहिया जीवित थे। उनके निर्देशानुसार उत्तर प्रदेश में समाजवादी कोटे में पांच में से चार मंत्री रामस्वरूप वर्मा, रूपनाथ यादव, अनंतराम जायसवाल, मंगलदेव विशारद, जो कि पिछड़े-दलित समूहों के थे, मंत्री बनाये गये। मध्यप्रदेश में 1967 में बनी संविद सरकार में समाजवादी कोटे के तीन मंत्रियों में से दो मंत्री भगीरत भंवर, आरिफ बेग क्रमशः आदिवासी व मुसलमान तबके के थे।
1977 में केंद्र में बनी जनता पार्टी सरकार में तीन मंत्रियों के कोटे में एक ईसाई अल्पसंख्यक जॉर्ज फर्नान्डीज तथा पिछड़े पुरुषोत्तम कौशिक को केंद्रीय मंत्री बनाया गया।
यह सोशलिस्ट पार्टी ही थी जिसने सर्वहारा अति पिछड़े कर्पूरी ठाकुर को न केवल मुख्यमंत्री बनाया, पार्टी अध्यक्ष भी बनाया। हिंदुस्तान के समाजवादियों ने हृदय से उनको अपना नेता माना।
रामसेवक यादव, संसोपा के राष्ट्रीय महामंत्री थे, रवि रॉय लोकसभा अध्यक्ष तथा केंद्र में मंत्री भी बने। जॉर्ज फर्नान्डीज न केवल पार्टी अध्यक्ष बने, केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी उनको अपना प्रतिनिधि बनाया गया। बी. सत्यनारायण रेड्डी उत्तर प्रदेश के गवर्नर बने। मुलायम सिंह यादव, रामसुंदर दास, रामनरेश यादव, गोलप बरबोरा मुख्यमंत्री भी बने। रामविलास पासवान, लालू यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार, रामस्वरूप वर्मा, धनिकलाल मंडल, बेनीप्रसाद वर्मा, उपेन्द्रनाथ वर्मा, भोला प्रसाद सिंह, रामशरण दास जैसे अनेकों पिछड़े, दलितों को मंत्री तथा नेता समाजवादी आंदोलन ने ही बनाया। मध्यप्रदेश में रामानंद सिंह (पिछड़ा), मास्टर शरीफ व हामिद कुरैशी (अल्पसंख्यक), माधव सिंह ध्रुव (अनु. जनजाति) मंत्री बने। स्वयं कुरबान के मरहूम वालिद कैप्टन अब्बास अली को उत्तर प्रदेश में एमएलसी तथा उत्तर प्रदेश जनता पार्टी का अध्यक्ष भी सोशलिस्टों ने बनाया। ये तो कुछ उदाहरण हैं, यथार्थ में सूची लंबी है।
जब तक डॉ लोहिया जिंदा थे तब तक एक विशेष वर्ग लोहिया के खिलाफ निरंतर अभियान चलाकर अपने आकाओं को खुश करता था। कुरबान भी इस कार्य में लगे हैं परंतु वह यह न भूलें कि ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है लोहिया और अधिक प्रासंगिक होते जा रहे हैं।
समाजवादी सिद्धांतों, डॉ लोहिया के विचारों को फैलाने के लिए किये गये प्रयासों में भी उनको व्यापारिक लाभ की गंध नजर आती है। ग्वालियर स्थित आईटीएम विश्वविद्यालय के संस्थापक एवं अधिष्ठाता साथी रमाशंकर सिंह के प्रयासों से गत कई वर्षों से डॉ राममनोहर लोहिया व्याख्यानमाला आयोजित हो रही है जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के गण्यमान्य व्यक्तियों ने व्याख्यान दिया है। कुरबान अली लिखते हैं कि ‘दोष उन समाजवादियों का ज्यादा है जो आरएसएस-भाजपा परस्त नेताओं की अगुआई में लोहिया जयंती अथवा पुण्यतिथि के अवसर पर कभी गृहमंत्री राजनाथ सिंह और कभी राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाकर लोहिया का व्यापार करते हैं।
व्याख्यानमाला में वक्ता अपने भाषण को लिखित रूप में भी देता है। एक दलित राष्ट्रपति कोविंद ने लोहिया के सामाजिक सिद्धांत पर गहन विश्लेषण के साथ उनके प्रति जो श्रद्धा व्यक्त की है, वह एक दस्तावेज है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने लोहिया की सांस्कृतिक दृष्टि पर अपना व्याख्यान केंद्रित किया। सुप्रीम कोर्ट के अवकाश-प्राप्त न्यायाधीश सुदर्शन रेड्डी ने डॉ लोहिया के सिद्धांत, राजनीति, त्याग पर तथ्यपरक उद्बोधन किया। भारत के भूतपूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अली अंसारी ने लोहिया की विदेश नीति तथा नागरिक आजादी के दस्तावेजों के आधार पर अपने विचार रखे। इस विश्वविद्यालय में डॉ राममनोहर लोहिया सभागार, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दिवंगत महासचिव ए.बी. वर्धन ने मधु लिमये सभागार में मधु लिमये पर एक सारगर्भित व्याख्यान दिया। विश्वविद्यालय की ओर से 440 पेज की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘डॉ राममनोहर लोहिया – कुछ चुने हुए भाषण व लेख’ प्रकाशित की। दूसरी पुस्तक ‘डॉ राममनोहर लोहिया : रचनाकारों की नजर में’, तीसरी पुस्तक ‘गांधी, मार्क्स एवं समाजवाद’ (विचार-सिद्धांत-नीति वक्तव्य)- डॉ राममनोहर लोहिया- प्रकाशित की। विश्वविद्यालय की ओर से लोहिया स्मृति में एक कैलेंडर बनाकर वितरित किया गया जिसमें समाजवादी चिंतकों, नेताओं के दुर्लभ चित्रों के अतिरिक्त तिथिनुसार जन्मदिवस, पुण्यतिथि तथा समाजवादी आंदोलन के ऐतिहासिक दिवसों को दर्शाया गया है। वैचारिक आस्था के कारण साथी रमाशंकर सिंह इस पुनीत कार्य में लगे रहते हैं, परंतु हमारे कुछ साथी इस कार्य को भी लोहिया का व्यापार कहकर अपने पूर्वाग्रह का इजहार करते हैं।
अंत में कहूंगा कि कुरबान अली जी के ऐसे निंदा अभियान समाजवादी आंदोलन और उनके नेताओं के खिलाफ होते रहे हैं। उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, समाजवादी आंदोलन और उनके नेताओं की प्रासंगिकता बढ़ती ही जा रही है।
आप इस घृणित अभियान में अपनी शक्ति गंवाने की जगह जरा अपने मरहूम वालिद कैप्टन अब्बास अली को याद करें, जिन्होंने अपना सारा जीवन समाजवादी आंदोलन में खपा दिया था। नब्बे वर्ष पार करने के बावजूद वे कड़क आवाज में समाजवादियों को डटे रहने, संघर्ष करने की प्रेरणा देते रहते थे। साथी कुरबान निराशा, थकान के शिकार होकर दोषारोपण करने से भविष्य में सिर्फ पछतावा ही होगा।
साथी कुरबान को लोहिया, जेपी अथवा समाजवादी आंदोलन से कितनी भी शिकायत हो, परंतु उनको लोहिया एवं मधु लिमये द्वारा दी गयी सीख पर भी जरूर मनन करना चाहिए, कालांतर में यही उनके लिए मुफीद सिद्ध होगा। 18 फरवरी – 1 मार्च 1947, को कानपुर में जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी कांग्रेस से हटकर नयी सोशलिस्ट पार्टी बन रही थी, तब लोहिया ने कहा था, “कांग्रेस हमारा घर है, जब कोई इंसान अपना घर छोड़ रहा हो, तो उसके लिए उस घर की बुराई करना आसान नहीं होता…उसे हम ध्वस्त नहीं कर सकते। हमने भी कांग्रेस के महत्त्व को बढ़ाया है।” मुख्तार अनीस की पुस्तक ‘भारतीय समाजवाद के शिल्पी’ को दिये गये संदेश में मधु लिमये ने कहा था कि हमारे भी कुछ समाजवादी सत्ता की राजनीति में उलझने के फलस्वरूप हतोत्साहित हो गये कि लोहिया, जेपी, यूसुफ मेहर अली एवं नरेंद्रदेव की विरासत को हिम्मत से रक्षा करने में आनाकानी करने लगे हैं। इसके फलस्वरूप धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद का मुद्दा खत्म हो जाएगा, यह विचारणीय विषय है।
कुर्बान अली वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ समाजवादी विचारधारा, आंदोलन और हस्तियों की गहरी जानकारी रखने वाले साथी हैं। वे निरंतर समाजवादी आंदोलन के दस्तावेजों की खोज और संग्रह में भी लगे रहते हैं। उनका डॉ लोहिया और सोशलिस्ट पार्टी के कतिपय फैसलों और कार्यों के बारे में अपना मूल्यांकन हो सकता है। उनके कुछ पूर्वाग्रह भी हो सकते हैं। कुर्बान अली अपने पूर्वाग्रहों, जिन्हें कोई साथी ‘अंध-विरोध’ भी कह सकता है, को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करते हैं तो यह भारत के समाजवादी आंदोलन में पाई जाने वाली पारदर्शिता और लोकतांत्रिकता की संगति में है। कम्युनिस्ट पार्टियों या अन्य किसी भी पार्टी में ऐसा नहीं हो सकता।
साथी राजकुमार जैन जब कुर्बान अली के ‘अंध-विरोध’ की भर्त्सना करते हुए राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द और केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह को विशिष्ट लोहिया-चिंतक होने का प्रमाण थमा देते हैं तो सामाजवादी के तौर पर उनकी अपनी स्थिति शोचनीय हो जाती है। उनके तर्क के हिसाब से उनके निजी विश्वविद्यालय में अगला लोहिया-स्मृति व्याख्यान विशिष्टतम लोहिया-चिंतक नरेंद्र मोदी का होना चाहिए। शायद उस दिशा में प्रयास चल भी रहा हो। दरअसल, एक शिक्षा के सौदागर की सेवादारी में ऐसे ही अनोखे तर्क निकल कर आ सकते ते हैं। कबीर होते तो जरूर अचंभा करते कि निजी शिक्षण संस्थानों के कर्ता-धर्ता सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट भी बने रह सकते हैं!