— रितु कौशिक —
(दूसरी किस्त)
किसान आंदोलन ने किसानों में जो एकता कायम की है उसकी मिसाल कहीं और मिलना मुश्किल है। इस देश में पांच सौ ज्यादा किसान संगठन सक्रिय हैं। इसके अलावा भी छोटे-मोटे किसान संगठनों की गिनती करें तो यह एक बड़ी संख्या होगी। आमतौर पर इन किसान संगठनों में न सिर्फ प्रतिस्पर्धा होती है बल्कि एक दूसरे के खिलाफ द्वेष और वर्चस्व की लड़ाई बहुत तीव्र होती है। पर इस किसान आंदोलन ने न सिर्फ देश के सभी किसान संगठनों को एक मंच पर ला खड़ा किया है बल्कि आपस में एक अद्भुत सौहार्द और दोस्ताना संपर्क भी तैयार किया है। इतने संगठनों को साथ लेकर चलना वाकई बहुत कठिन काम है। पर हम लोगों ने देखा कि विगत साढ़े आठ महीनों के दौरान किसान संगठनों ने एकता की अद्भुत मिसाल पेश की है।
मोदी सरकार ने बीच में चाल चली थी, वार्ता के लिए कुछ चुनिंदा संगठनों को बुलाया गया, कुछ संगठनों को वार्ता के बाहर भी अलग से बुलाया गया, पंजाब के किसानों को बाकी देश के किसानों से अलग करने का प्रयास किया गया फिर भी किसानों की चट्टानी एकता में दरार नहीं पड़ी।
आंदोलन के मंच पर किस संगठन का वर्चस्व होगा, किस संगठन के ज्यादा वक्ताओं को बोलवाया जाएगा, वार्ता के लिए या किसान संसद के लिए किन संगठनों को मौका मिलेगा इन सब बातों को लेकर कोई माथापच्ची नहीं हुई, कोई नाराजगी नहीं दिखी। आमतौर पर इन्हीं बातों को लेकर एकता टूट जाती है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। किसानों ने इस बार कुछ अलग करने की ठान ली है।
महिलाओं की भूमिका
बहन रमेश अंतिल हरियाणा के सोनीपत जिले की रहनेवाली हैं, उनके पति शुरू से ही किसान आंदोलन में थे। बीती जनवरी में सिंघु बार्डर पर दिल का दौरा पड़ने से उनका देहांत हो गया। पति की मृत्यु की पीड़ा ने बहन रमेश अंतिल को हिला डाला लेकिन पति की मौत के दुख की ज्वाला को बहन रमेश अंतिल ने लड़ने के जज्बे में तब्दील कर दिया और वे आज भी आंदोलन में इस जज्बे के साथ कायम हैं कि अगर इन तीन काले कानूनों को रद्द कराने के लिए हमारे पूरे परिवार को भी शहादत देनी पड़े तब भी हम पीछे नहीं हटेंगे। ऐसी न जाने कितनी महिलाएं आंदोलन में शामिल हैं जो जज्बे और हिम्मत की मिसाल हैं।
वर्तमान किसान आंदोलन का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि इस आंदोलन में महिलाए न सिर्फ हिस्सा ले रही हैं बल्कि एक नेतृत्वकारी भूमिका भी निभा रही हैं। हाल में महिलाओं ने जंतर मंतर पर किसान संसद का संचालन भी किया और तीनों कृषि कानूनों पर सूझबूझ से भरी चर्चाएं भी कीं। इस तरह उन्होंने बता कि वे संसद भी चला सकती हैं और आंदोलन का नेतृत्व भी कर सकती हैं।
इस आंदोलन ने समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच पर भी कुठाराघात किया है। जबकि मुख्य न्यायाधीश (अब सेवानिवृत्त) ने सवाल उठाया था कि महिलाएं इस आंदोलन में क्या कर रही हैं। आज महिलाएं न सिर्फ तीन काले कृषि कानूनों के खिलाफ बल्कि भूमंडलीकरण और उदारीकरण की नीतियों के खिलाफ भी लड़ रही हैं।
अगर हाल के इतिहास पर नजर डालें तो 2012 में निर्भया कांड के खिलाफ हुए आंदोलन में भी देश भर में महिलाओं ने निर्भीक होकर औरतों और बच्चियों पर होनेवाले अपराधों के खिलाफ आवाज उठायी थी और उसका असर भी काफी व्यापक हुआ था। लेकिन 2019 में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ शाहीन बाग में शुरू हुए आंदोलन से भारतीय महिलाओं के संघर्ष के एक नये युग की शुरुआत हुई। यह स्पष्ट है कि अब महिलाएं जेंडर विषयों पर ही जागरूक नहीं हैं बल्कि चारों तरफ से गैरबराबरी और पुरुष प्रधानता की बेड़ियों में फंसे होने के बावजूद एक लोकतांत्रिक देश की जागरूक नागरिक होने के नाते अपनी आवाज बुलंद करने लगी हैं।
आज महिलाएं दोनों मोर्चों पर लड़ रही हैं। एक तरफ परिवार को सँभाल रही हैं, दूसरी तरफ दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के धरनों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। किसान आंदोलन का यह एक बहुत सकारात्मक पहलू है कि आंदोलन के नेतृत्व द्वारा महिलाओं की भागीदारी को निरंतर प्रोत्साहन दिया गया है। समाज परिवर्तन की दिशा में किसान आंदोलन की यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण देन है।
मृतप्राय कृषि कानून
लेकिन तीनों कानून तो वहीं के वहीं हैं फिर आंदोलन की क्या उपलब्धि? दरअसल, ये तीनों काले कानून अब सिर्फ कागजों पर ही रह गये हैं। हकीकत में इन्हें लागू करने की हिम्मत अब किसी सरकार में नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय तो पहले ही इन कानूनों पर स्थगन आदेश दे चुका है। केंद्र सरकार ने भी इसे लागू करने की प्रक्रिया शुरू करने की कोशिश नहीं की है। इसे लागू करने के लिए आज तक कोई अधिसूचना जारी नहीं हुई। प्रधानमंत्री ने तो पहले ही प्रस्ताव दे दिया था कि इसे डेढ़ साल के लिए स्थगित कर देते हैं।
अनेक राज्य सरकारें तीनों कृषि कानूनों को खारिज कर चुकी हैं। कृषि राज्य के अधीन है इसलिए इन कानूनों को लागू करना और भी कठिन है। अडानी और अन्य कॉरपोरेट के जो गोदाम भंडारण के लिए बनाये गये थे वे खाली पड़े हुए हैं। जब आंदोलन शुरू हुआ था तो लोग मानते थे कि अब तो संसद में भी ये कानून पारित हो चुके हैं और राष्ट्रपति ने भी इन कानूनों पर मुहर लगा दी है, अब इनके खिलाफ आवाज उठाने का कोई फायदा नहीं है। लेकिन इस किसान आंदोलन के जज्बे और ताकत ने इन कानूनों को मृतप्राय कर दिया है।
यही नहीं, किसान आंदोलन ने एमएसपी की मांग को अब पूरे देश के सामने ला दिया है। पंजाब, हरियाणा और एक-दो राज्यों को छोड़ दें तो बाकी देश के किसान एमएसपी के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे। अब उन राज्यों में भी फसल की एमएसपी और कृषि मंडी की मांग तेज हो रही है। बिजली बिल में भी मनमानी बढ़ोतरी के खिलाफ आंदोलन तेज होने लगा है।
किसानों की इस नवजागृत संगठित शक्ति को देखकर भविष्य में किसी भी किसान विरोधी नीति को पास कराने के लिए सरकारों को दस बार नहीं, सौ बार सोचना होगा। लेकिन यह बात सच है कि आज की तारीख में तीनों कृषि कानून जिंदा हैं और मोदी सरकार के नापाक इरादे भी। आंदोलन के दबाव में ये लोग चुपचाप बैठे हैं, आंदोलन कमजोर पड़ते ही इन कृषि कानूनों के क्रियान्वयन के लिए काम शुरू कर देंगे। इसीलिए तो किसान संगठनों ने नारा दिया है- जब तक कानून वापसी नहीं, तब तक घर वापसी नहीं।
क्रांतिकारी संभावना
आमतौर पर यह माना जाता है कि मजदूर समाज की संचालक शक्ति होता है। वही समाज को बदलने के लिए एक क्रांतिकारी शक्ति भी होता है इसीलिए समाज की मुक्ति मजदूर वर्ग के हाथों ही होगी। मुक्ति संग्राम में किसानों की भूमिका को हमेशा कम करके आंका गया है। बल्कि जमीन का मालिक होने के नाते किसानों को क्रांति विरोधी शक्ति के रूप में चिह्नित किया जाता रहा है। लेकिन इस किसान आंदोलन ने किसानों को देश की एक क्रांतिकारी और संगठित शक्ति के रूप में तैयार कर दिया है। आज पूरी दुनिया, क्रांतिकारी और प्रगतिशील आंदोलनों में किसानों की भूमिका पर पुनर्विचार करती दिख रही है।
अब यह आंदोलन तीन काले कृषि कानूनों के खिलाफ ही नहीं रह गया है बल्कि यह एक सामाजिक आंदोलन बन चुका है जो गैरबराबरी और सांप्रदायिकता के खिलाफ भी मुखर है। यह आंदोलन लोकतांत्रिक अधिकारों पर हो रहे हमलों के खिलाफ भी लगातार आवाज उठा रहा है।
इससे पहले के आंदोलनों में निशाने पर सरकार होती थी। आंदोलन के दबाव में सरकारें चली जाती थीं पर व्यवस्था वही रहती थी नीति वही चलती रहती थी। लेकिन इस आंदोलन ने असली दुश्मन के खिलाफ लड़ाई छेड़ी है। किसान आंदोलन ने सरकारों को चलाने वाले कॉरपोरेट्स अंबानियों, अडानियों को चिह्नित किया है, शोषणकारी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ पूरे देश में लड़ाई का माहौल बनाया है। इस लड़ाई को तर्कसंगत परिणति तक ले जाना बहुत बड़ी चुनौती है, पर वही तो क्रांतिकारी संभावना है इस आंदोलन की।