— प्रयाग शुक्ल —
रिचर्ड बार्थोलोमिव को ख्याति भले ही एक कला-समीक्षक के रूप में मिली हो, पर वह एक कवि, चित्रकार, छायाकार और पत्रकार भी थे। दरअसल, छायाकार के रूप में तो वह एक बड़ी धरोहर छोड़ गये हैं जिसे अब तक उनके बड़े बेटे पाब्लो (जिन्हें स्वयं एक छायाकार के रूप में पर्याप्त ख्याति मिल चुकी है) सँभाल रहे हैं।
रिचर्ड अंग्रेजी में ही लिखते थे, लेकिन वह उन अंग्रेजीदाँ लोगों में नहीं थे जो इस भाषा में लिखना शुरू करते ही अपनी एक अलग दुनिया बना लेते हैं और अन्य भारतीय भाषाओं को बरतने वालों से कट जाते हैं। वह तो सबसे घुलने-मिलने वालों में थे। सबको सहज ही सुलभ थे और सच्चे अर्थों में एक ‘साधु पुरुष’ थे। अचरज नहीं कि पेय पदार्थों में रम को पसंद करनेवाले रिचर्ड को इस पेय के एक ब्रांड ‘ओल्ड मंक’ के नाम से भी कला जगत में जाना जाने लगा था। आपसी चर्चाओं में उनके मित्र और आत्मीय रिचर्ड को कभी-कभार इस नाम से भी याद करते थे- प्रेमपूर्वक!
रिचर्ड से मेरा परिचय यों तो साठ के दशक के अंतिम वर्षों में ही हो गया था और उनसे कला-प्रदर्शनियों में साहित्यकारों-कलाकारों के मिलने-जुलने वाले ‘अड्डों’ में जब तब भेंट भी होती रहती थी, पर सत्तर-अस्सी के दशक में मैं उनके कुछ निकट आ सका। उनके प्रति मेरे मन में शुरू से गहरा रिगार्ड था। ‘थॉट’ और फिर ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में उनकी लिखी हुई चीजें पढ़कर सोचने-विचारने की सामग्री मिलती थी। उनके संयत-संतुलित, शालीन व्यवहार को दूर-पास से देखकर बहुत अच्छा लगता था। जब रिचर्ड ललित कला अकादेमी के सचिव बने तो यह उनका ही आग्रह था कि ललित कला अकादेमी की अंग्रेजी पत्रिका ‘ललित कला कंटेम्परेरी’ की तरह हिंदी में जो पत्रिका हो वह भी सुरुचिपूर्ण ढंग से नियमित रूप से निकले।
मैं तब ‘नवभारत टाइम्स’ में था। रिचर्ड ने प्रस्ताव रखा कि मैं ललित कला की हिंदी पत्रिका ‘समकालीन कला’ का संपादन करूँ और उसके कुछ अंक निकाल दूँ जिससे कि पत्रिका शुरू हो जाए। यह तय हुआ कि मैं अतिथि संपादक के रूप में दो अंक निकालूंगा, फिर अकादेमी बाकायदा कोई संपादक नियुक्त कर लेगी। ‘नवभारत टाइम्स’ की मेरी व्यस्तताओं को देखते हुए रिचर्ड ने सुझाव दिया कि तुम लंच टाइम में सप्ताह में दो-एक दिन आ जाया करना जिसमें हम पत्रिका की डिजाइन आदि पर चर्चा कर लिया करेंगे। उन्होंने सुपरिचित चित्रकार नंदलाल कत्याल, जो तब अमेरिकन सेंटर की पत्रिका ‘स्पैन’ के आर्ट डाइरेक्टर थे- को भी लंच टाइम में कुछ समय निकालने के लिए राजी कर लिया। जब मैंने पत्रिका की सामग्री एकत्र कर ली तो रिचर्ड ने कलाकृतियों के फोटोग्राफ्स आदि ढूँढ़ने में भी मेरी मदद की। लंच टाइम में मैं और नंद कत्याल अकादेमी आ जाते। रिचर्ड के कमरे में इकट्ठा होते। पत्रिका की डिजाइन, आवरण आदि की चर्चा करते। सामग्री एकत्र करने में मुझे पूरी स्वतंत्रता मिली थी। रिचर्ड ने कभी कोई हस्तक्षेप नहीं किया, न ही किसी को करने दिया। पत्रिका निकली और कृष्णा सोबती के हाथों लोकार्पित हुई। रामकुमार तथा कई अन्य अग्रज और युवा कलाकार लोकार्पण समारोह में शामिल हुए। अनन्तर संपादक के रूप में कला प्रेमी-कवि सौमित्र मोहन की नियुक्ति हो गयी। और वह नियमित भी हुई। आज सोचता हूँ तो रिचर्ड के उस उत्साह की बात सोचकर उनके प्रति और सम्मान जागता है, जो हिंदी पत्रिका के लिए उनमें दिखाई पड़ा था।
1978 में मध्यप्रदेश शासन की ओर से, पेरिस से, सुपरिचित चित्रकार सैयद हैदर रज़ा को भोपाल आमंत्रित किया गया और उनकी कला पर एक आयोजन भी हुआ, जिसमें रिचर्ड को और मुझे भी बोलने का निमंत्रण मिला। हम दिल्ली से भोपाल पहुँचे। रिचर्ड और मैं एक ही गेस्ट हाउस में ठहरे थे। हमारे कमरे अगल-बगल ही थे। उन दो-तीन दिनों में उनसे कई चीजों पर चर्चा हुई। रिचर्ड कम बोलने वालों में तो नहीं थे, पर यह भी सच है कि वह ‘अतिरिक्त’ (या कहें कुछ फालतू) बोलने वालों में नहीं थे। आपकी बातें गौर से सुनते थे और आवश्यक होने पर अपनी ओर से, संक्षेप में ही कुछ जोड़ते थे। विट और ह्यूमर की कमी उनमें न थी। किसी मजेदार प्रसंग या ‘विटी’ बात पर खुलकर हँसते थे। सामान्य कद-काठी के, भाव भरी आँखों, और सोचते हुए से चेहरे वाले रिचर्ड की उपस्थिति, दिल्ली के कला जगत में बरसों-बरस प्रीतिकर बनी रही। वह कला-राजनीति के शिकार भी एकाधिक बार हुए। पर स्वयं उनकी ‘साधुता’ में कमी नहीं आयी। ललित कला अकादेमी के सचिव पद पर रहते हुए उन्हें बहुत-सी चीजें झेलनी पड़ीं, उनका लिखना-पढ़ना भी कम होता चला गया। पर कला के प्रति प्रेम में कभी कोई कमी आयी हो, ऐसा कभी दिखाई नहीं पड़ा।
उनके सचिव रहते हुए जो भारत-त्रैवार्षिकी (ट्रिएनाल) हुई थी, उसमें स्वयं रिचर्ड को प्रगति मैदान के एक प्रदर्शनी-कक्ष में कलाकृतियों को टाँगने का भी काम करते हुए देखकर मैं कुछ अचरज में पड़ा था, पर उसने रिचर्ड के लिए मेरे मन में आदर और प्रेम के भाव को और बढ़ा दिया था।
रिचर्ड की खींची हुई तस्वीरों की जो प्रदर्शनी ‘फोटो इंक’ गैलरी में लगी थी, उससे जुड़ी हुई ‘अ क्रिटिक्स आई’ शीर्षक से एक पुस्तक भी, ‘फोटो इंक’, ‘चटर्जी एंड लाल’ तथा ‘सीपिया इंटरनेशनल’ ने मिलकर प्रकाशित की है। इसमें रिचर्ड की खींची हुई वे सभी 97 तस्वीरें हैं जो प्रदर्शनी में भी थीं। सबके परिचय भी दिये हुए हैं। वे किस वर्ष खींची गयी थीं, यह भी शामिल है। और रिचर्ड के छायाकार रूप पर अवीक सेन का सुचिंतित, सरस और धारदार लेख भी है। पुस्तक में पाब्लो ने रिचर्ड का एक जीवन-वृत्त भी अत्यंत प्रेम और भावनापूर्ण ढंग से लिखा है, जिसमें उनके कामकाज, पारिवारिक जीवन और उनके लगावों आदि की भी संवेदनशील चर्चा है।
इसमें दर्ज है कि रिचर्ड का जन्म 19 नवंबर, 1926 को तवॉय, बर्मा (अब म्यांमार) में हुआ था। वह आज होते तो 95 वर्ष के होते। उनका देहांत 11 जनवरी, 1985 को दिल्ली में हुआ था। 1930 में वह रंगून के सेंट पॉल स्कूल में भर्ती हुए थे और 1942 में जब बर्मा पर जापानियों का कब्जा होने ही वाला था तो द्वितीय विश्व युद्ध के उन दिनों में वह अन्य शरणार्थियों के साथ वहाँ से भाग निकले थे। वे सब उस ‘युद्धछाया’ से बचते-बचाते मांडले के मैदानी इलाकों से परकाई की ऊँची-नीची पर्वत श्रृंखलाओं को पार करते हुए (जो नगा प्रदेश तक फैली हैं) असम की उपरली ब्रह्मपुत्र घाटी के लेडो नामक स्थान पर पहुँचे। इन शरणार्थियों के पास इसके सिवाय और कोई चारा न था कि वे थोड़े-बहुत सामान के साथ ही पर्वत-श्रृंखलाओं को पार करें। सो, अपने सिर पर छोटी-मोटी गठरियाँ और पीछे छूट गये स्वदेश की स्मृतियां लिये हुए ही उन्हें जंगलों, नदियों, दलदलों और ऊँचे पर्वतीय मार्गों को पार करना पड़ा।
पाब्लो ने लिखा है, ‘भारत मेरे पिता के प्रति कृपालु साबित हुआ। किशोर रिचर्ड को उसने स्कूली और कॉलेज की शिक्षा दी और सोचने-विचारने तथा आत्माभिव्यक्ति के लिए एक उन्मुक्त वातावरण भी दिया। यहाँ रहते हुए रिचर्ड को रचनाशीलता की खुराक मिली, और वह विकसित होती गयी। अगर वे अपने देश वापस चले गये होते तो यह सब संभव न हुआ होता। (क्योंकि) वैसे तो भारत की आजादी के एक साल बाद बर्मा भी आजाद हो गया था, पर जल्दी ही उसने अपने को भीतर से बंद कर लिया और बाहर की दुनिया से- शेष दुनिया से वह कटता चला गया।’
रिचर्ड की स्कूली शिक्षा दिल्ली के कैंब्रिज हाईस्कूल में हुई, फिर उन्होंने 1948 में सेंट स्टीफेंस कॉलेज से बी.ए. (अँग्रेजी) और यहीं से 1950 में एम.ए.(अँग्रेजी) की पढ़ाई पूरी की। यहीं उन्हें रति बत्रा मिलीं और 1953 में दोनों ने विवाह कर लिया। आगे चलकर रिचर्ड ने अगर कला जगत में ख्याति प्राप्त की तो रति बार्थोलोमिव रंग-जगत का एक सुपरिचित नाम बनीं और दिल्ली के थियेटर की दुनिया में उनके योगदान को कई रूपों में स्वीकारा गया।
दरअसल, उन दिनों की दिल्ली में रिचर्ड और रति जैसे युवा-युगल के सपने, आकांक्षाएं, विचार और काम, इतने सृजनधर्मी और सच्चे अर्थों में ‘क्रियेटिव’ थे कि उनका कामकाज और जीवन एक अनूठे प्रेरणा-स्रोत का काम कर सकता है। और निश्चय ही आज की युवा पीढ़ियाँ उनके जीवन से बहुत कुछ सीख सकती हैं जिसमें कुछ अच्छा और नया करने की तड़प थी, जो सभी कलाओं के प्रति अपने को खुला रखता था, सभी विधाओं के कलाकारों से मैत्री की एक आत्मीय चाह रखता था और जो उन सभी को विनम्र भाव से मान-सम्मान और प्रेम देता था, जो कलाओं के प्रति प्रेम रखते थे, और कुछ सिरजना चाहते थे।
‘अ क्रिटिक्स आई’ इसी जीवन का बहुमूल्य दस्तावेज है। इसमें 1954 से लेकर 1970-71 तक की रिचर्ड की खींची हुई तस्वीरें हैं। इनका वितान दिल्ली, अल्मोड़ा, राजस्थान, मुंबई से लेकर न्यूयार्क तक फैला है, और जिन जगहों और लोगों को लेकर ये तस्वीरें हैं, उनमें भी मानो रिचर्ड का भी कोई-न-कोई जीवन-मर्म छिपा हुआ है। पुस्तक की शुरुआत होती है, रिचर्ड के ‘गर्मियों वाले स्टूडियो’ (अल्मोड़ा) से। इसमें दीवार से टिकाकर रखी गयी रिचर्ड की आँकी हुई एक चित्रकृति है- अधूरी। एक मेज पर। अगली तस्वीर में, यह चित्रकृति कुछ ‘पूरी’ है, और रिचर्ड मेज पर फैली हुई रंग-सामग्री के बीच हाथ में ब्रुश लिये कुर्सी पर बैठे हैं। विचार मग्न। तीसरी तस्वीर में रिचर्ड के सामने टाइपराइटर है, हाथ में सिगरेट है, और इसमें भी वह विचार मग्न, भाव-प्रवण, संवेदित चेहरा है, जिसे दिल्ली ने बरसों-बरस मंडी हाउस, त्रिवेणी कला संगम, जंगपुरा, कनॉट प्लेस आदि कई इलाकों में रास्ता पार करते हुए, किसी से गर्मजोशी से हाथ मिलाते-बतियाते हुए, किसी चित्र-मूर्ति प्रदर्शनी में एकाग्र भाव से कलाकृतियां देखते हुए, ‘देखा’ था। संतों जैसे कवि-स्वभाव के, और सपनीली आँखों वाले इस सुदर्शन चेहरे के अलावा, पुस्तक में रति और दोनों बेटों की जो तस्वीरें हैं, उनमें रिचर्ड के संसार की कुछ मर्म भरी छवियाँ हैं : ‘थॉट’ पढ़ती हुई रति, फर्श पर लेटी हुई रति, रति के वक्ष पर खेलता नन्हा पाब्लो, पिकनिक मनाता बार्थोलोमिव परिवार…..और फिर तस्वीरें- कुछ पोर्ट्रेट, अपनी तरह के- हुसेन, रामकुमार, सूज़ा, बीरेन दे, जी.आर. संतोष, जहाँगीर सबावाला आदि कलाकारों के; हैं गलियाँ : दिल्ली, बनारस, न्यूयार्क की, और हैं कुछ दृश्य ‘खुले’ में; एक छोटे-से ताल में तैरती भैंसें और एक ओर घर-दरवाजे खिड़कियाँ, यानी रिहायशी मकान, मसूरी के रिक्शेवाले सोते हुए, एक मकान की छत पर एक धुँधली-सी मानवाकृति और कुछ ही दूर पर नीचे, सड़क के एक हिस्से की चहल-पहल या कुछेक वृक्षों के तने, जिनमें से एक पर लोग अपने-अपने नाम खोद गये हैं। ….. रिचर्ड जब भी कमरे के पीछे से देखते हैं, इन श्वेत-श्याम तस्वीरों में, दोनों ही तस्वीरों में, दोनों ही रंगों को इस तरह ‘चुनते’ हैं कि एक ओर जहाँ कोई तस्वीर किसी दृश्य को ‘उजाले’ में ले आती है, वहीं उसके अँधेरे हिस्से कुल कम्पोजीशन के प्रति एक उत्सुकता जगाते हैं। हर तस्वीर जैसे दर्शक के समक्ष एक ‘गोपनीय मंत्रणा’ सी करती है। विस्मय, उत्सुकता, रोमांच आदि इन तस्वीरों में मानो एक दूसरे से कंधा भिड़ाये हुए खड़े होते हैं। जीवन की क्षण-भंगुरता(एँ) और काल से होड़ लेती इच्छाएँ-कामनाएँ भी इन तस्वीरों में पढ़ी जा सकती हैं।
1951 से 1958 तक रिचर्ड दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में अध्यापक रहे। 1958-60 में दिल्ली से प्रकाशित होनेवाले पत्र ‘थॉट’ के सहायक संपादक बने। 1958-59 में वह ‘द स्टेट्समैन’ के फीचर एडीटर थे। और फिर सिलसिला शुरू हुआ, ‘इंडियन एक्सप्रेस’, ‘थॉट’ आदि में कला-समीक्षक की भूमिका का। 1962 के बाद वह कई वर्षों तक ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में नियमित रूप से कला-स्तंभ लिखते रहे। 1960 से 1963 के बीच वह ‘कुणिका आर्ट सेंटर’, नयी दिल्ली के डायरेक्टर रहे। 1966-1973 के बीच उन्हें ‘रॉकफेलर’ फाउंडेशन की सीनियर फेलोशिप (न्यूयॉर्क) मिली। 1977 से 1985 के बीच रिचर्ड ललित कला अकादेमी के सचिव रहे। 1982 में ब्रिटेन में आयोजित ‘फेस्टिवल ऑफ इंडिया’ में ‘समकालीन भारतीय कला’ शीर्षक से जो प्रदर्शनी गयी, वह उसके कमिश्नर थे। 1984 में जापान फाउंडेशन ने उन्हें जापानी कलाकारों से भेंट करने के लिए जापान आमंत्रित किया।
और यह भी रिचर्ड के कामकाज का कुल परिचय नहीं है, क्योंकि उनके खाते में कुछ कृतियां भी हैं : 1971 में हुसेन पर इसी नाम से न्यूयॉर्क से जो पुस्तक आयी, वह उसके सहलेखक थे। 1972 में ‘द स्टोरी ऑफ सिद्धार्थस रिलीज’ (कविताएं) राइटर्स वर्कशॉप (कलकत्ता) से प्रकाशित हुई। राइटर्स वर्कशॉप से ही 1973 में ‘पोयम्स’ नाम से एक और संग्रह आया। 1974 में रिचर्ड ने ललित कला अकादेमी के लिए कलाकार कृष्ण रेड्डी पर मोनोग्राफ लिखा। 1986 में ‘द सायकिल’ शीर्षक से रिचर्ड का सॉनेट संग्रह आया- राइटर्स वर्कशॉप से ही।
और अभी न जाने कितनी तस्वीरें, चित्रकृतियाँ, कला-समीक्षाएँ, कविताएँ, टिप्पणियाँ आदि असंकलित पड़ी हैं। रिचर्ड जैसे कला-धनी का सान्निध्य मुझे भी मिला, इसे मैं अपनी एक उपलब्धि ही मानता हूँ : साठ के दशक से लेकर अस्सी के दशक तक की कला गतिविधियाँ रिचर्ड का नाम लेते ही सचमुच बहुविध छवियों के रूप में, सामने से एक बार फिर गुजरने लगती हैं,…. जैसे कोई रील चल रही हो….
शरणार्थी से कला-जगत का प्रतिनिधित्व भारत ही नही सात समंदर पार तक सहज, कर्मठ व कला-प्रेमी छायाकार सम्मीक्षक जिन्होंने आज समकालीन भारतीय कला जगत से विश्व को परिचित कराने वाले … रिचर्ड का योगदान अविस्मृत योग्य है। ललित कला अकादमी के माध्यम से सचिव पद पर रहते हुए भी अपने भीतर एक सहज व्यक्तित्व लिए लगातार कुछ न कुछ अभिनव करने की प्रेरणा सदैव अपने समकालीन लेखकों,दर्शकों, कलाकारों आदि को देते रहे।
भारतीय कला समीक्षक व चित्रकार प्रयाग शुक्ल जी के भीतर की कर्मठता में कहीं न कहीं रिचर्ड जैसे व्यक्तित्वों के समान ऊर्जा प्रवाह आभासित होता है।
समकालीन भारतीय कलाकार व कलाजगत के लिए यह बड़े गर्व की बात है हमारी कला जगत को और महत्वपूर्ण व स्वर्णिम बनाने में ऐसे महापुरुष आज भी सक्रिय हैं में हृदय से उनके लंबी उम्र की कामना करता हूँ। उक्त प्रकाशनीय मंच को व लेखक को हृदय से प्रणाम करते हुए अपनी शुभकामनायें प्रदान करता हूँ।
●धनंजय सिंह
(जिज्ञासु चित्रकार व कला-लेखक)
7999413073.
-132/117,नागबासुकि मार्ग, बक्शी कला,दारागंज,प्रयागराज-211006.