— राजेश प्रसाद —
भाषा की दृष्टि से माँ, मार्च और मृत्यु की कहानियां काव्यात्मक हैं। कहानियों के बदलाव के साथ भाषा में भी सूक्ष्म बदलाव स्वाभाविक रूप से आ जाता है। शर्मिला जालान ऐसे काव्यात्मक प्रतीकों का प्रयोग करती हैं कि उनकी कहानियां गद्य में लिखी गयी कविताएं बन जाती हैं। संग्रह की कहानी ‘सुरमई’ अपनी भाषा और अभिव्यक्ति से चमत्कृत करती है। पारम्परिक अर्थों में यह कहानी से अधिक किसी सुरमई गोधूलि में अभीप्साओं का नर्तन और आवेग ज्यादा है। कहानी का आखिरी वाक्य है- ‘कोई कथा गढ़नी होगी।’ ये अभीप्सा और आवेग लेखिका को कथा लिखने के लिए प्रेरित करता है। कई कहानियों की भाषा इतनी प्रभावशाली है कि कथ्य हमारी संवेदना में धीरे-धीरे घुलता है।
संग्रह की आखिरी कहानी ‘उन्नीसवीं बारिश’ में शर्मिला जालान ने अपनी कहानियों के जन्म की ओर संकेत किया है कि माधवी का मन ही वह कहानी है। माधवी की कहानी इसलिए है कि माधवी है और उसका एक मन है। इस तरह संग्रह की प्राय: सभी कहानियां आभ्यंतरिक रूप से, मन में घटित होती हैं, जैसे किसी जलाशय में पानी की सतह पर एक पत्ता गिरता है और लहर पैदा हो जाती है। मेरी दृष्टि में ये कहानियां विभिन्न परिस्थितियों में उलझे मन का विश्लेषण करती हैं, पर उनमें मनोविज्ञान नहीं है। ‘होने का अर्थ’ कहानी की माधवी अपने होने का अर्थ प्रतीकों में खोजती है। एक पाठक के रूप में मुझे लगता है कि माधवी जो है, उसे पहचान न पाना उसकी समस्या है। इन कहानियों के पात्र स्वयं को खोजने और पहचानने का प्रयास करते हैं।
संग्रह की पहली कहानी ‘तलाश’ अपने लेखन के प्रति ईमानदार लेखक मणि की कहानी है, जो मन को सभी तरफ से आश्वस्त और संतुष्ट किये बिना नहीं लिख सकता। कहानी में मौजूद लड़का छोटे-छोटे काम करके रुपए-पैसे जमा करता है। वह माँगने से भी गुरेज़ नहीं करता है, पर वह मणि से रुपये लेने से इनकार कर देता है। मणि का उसके कंधे पर हाथ रखकर आत्मीयता का प्रदर्शन लड़के के लिए रुपए-पैसे से ज्यादा मूल्यवान है। शायद कहानीकार मणि कोई ऐसी ही चीज अपनी कहानी के लिए खोज रहा है। संग्रह की दूसरी कहानी ‘चोर’ के केन्द्र में भी कुछ ऐसी ही बात है। भोला चोरी के उद्देश्य से अपर्णा के घर नौकरी करता है, पर जब उसे पता चलता है कि अपर्णा तलाकशुदा है और उसे, यानी मालकिन को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ रहा है, तो भोला के मन में सहानुभूति जैसी कोई भावना पैदा हो जाती है। इस तरह से इन दोनों कहानियों में मानवी मन में मौजूद श्रेष्ठ दशाओं को खोज कर उन्हें स्थापित करने का प्रयास भी दिखाई देता है।
कथ्य के आधार पर ‘विद्रोह’ और ‘ज़िल्दसाज़’ कहानियों को एक श्रेणी में रखा जा सकता है। ‘विद्रोह’ एक ऐसी प्रेम-कथा है, जिसमें नंदिनी प्रेम की गहराई में डूब नहीं पाती है। उसका प्रेम सायास किया गया प्रेम लगता है। ये कहानी बताती है कि प्रेम के लिए जरूरी दीवानगी के न होने से भी कहानी बन सकती है। ‘जिल्दसाज़’ की नीरा अपने भीतर एक आलोक को उतरता महसूस करती है। ये आलोक प्रेम की प्रथम पदचाप है। किन्तु नीरा अपनी बौद्धिकता से उस आलोक को और उसके नैसर्गिक आकर्षण को नियंत्रित कर सकती है। वहीं उसी आलोक ने ज़िल्दसाज़ को आलोकित कर दिया है। वह नीरा की प्रतीक्षा करता है।
कई बार दूसरों के वर्जित स्पेस में अनजाने में चले जाने पर अप्रिय प्रतिक्रियाओं से मन अवसादग्रस्त होने के लिए बाध्य हो जाता है। ‘अवसाद’ कहानी मन की इस क्षणभंगुरता को स्वाति और सुधा सुरेका के माध्यम से बहुत ही सहजता से सामने लाती है। स्थिति को समझकर स्वाति शीघ्र ही इस अवसाद से मुक्त हो जाती है। वहीं ‘तलछट’ के रवि बाबू स्वाति की तरह स्थिति को न तो समझ पाते हैं, न स्वीकार कर पाते हैं। ‘तलछट’ भी मन के घायल होने की कहानी है। बहनोई के न रहने पर नैतिक दायित्व समझकर रवि बाबू ने बहन राधा के व्यावसायिक स्पेस में प्रवेश किया और उसे सँभाला, लेकिन सँभल जाने पर राधा ने जिस तरह से अपना व्यवसाय वापस लिया, उसने रवि बाबू को घृणा और अवसाद से भर दिया। प्रेम और लगाव से कहीं ज्यादा क्षणभंगुर आस्था और विश्वास होता है।
अबोले को व्यक्त करना ही नहीं, बल्कि कुछ अबोले को अलिखित छोड़ कर उसे और प्रभावी बना देना भी शर्मिला जालान कहानी कला की विशेषता है। अत्यंत छोटे-छोटे वाक्यों में कही गयी, विषय-वस्तु और भाषा- दोनों ही दृष्टियों से ‘जन्मपत्री’ एक विलक्षण कहानी है। किशोर होता बेटा राघव एक तरफ स्वयं का विश्लेषण करता है, दूसरी तरफ मां नंदिनी की स्थिति को भी समझता है। वह जन्मपत्री में माँ का भविष्य देखकर उलझनों से मुक्ति की राह खोजना चाहता है। इसके ठीक विपरीत दशा ‘मुतुल’ कहानी में घरेलू नौकरानी मुतुल की है। मुतुल का मन एक युवा होती लड़की का मन है। वह भी युवकों की तरफ आकृष्ट होती है और विवाह की इच्छा करती है। उसके आसपास के लोग उसमें सिर्फ नौकरानी को देख पाते हैं, उसकी मनोभूमि तक नहीं पहुंच पाते हैं। कहानी समाप्त करने के बाद भी मुतुल बहुत देर तक पाठक के मन में कुछ कहती-सी लगती है, सिर्फ इसलिए कि लेखिका ने कुछ अनलिखा छोड़ दिया है। यह अनलिखा ही बोलता है।
संग्रह की अनेक कहानियों में मृत्यु मौजूद है, जो कहानी के वातावरण को अपने प्रभाव में ले लेती है। कंट्रास्ट के रूप में कहानियों की पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है। इस कंट्रास्ट में प्रकृति का यह रहस्य भी दिखाई पड़ने लगता है कि काम और मृत्यु गहराई से एक-दूसरे से जुड़े हैं। यह ‘एक अनकही कहानी’, ‘संताप’, ‘मणिकर्णिका के आस-पास’ कहानियों को पढ़ते हुए खयाल आता है। मृत्यु के होते हुए भी संसार कामोन्मुखी है और जीवन की प्रमुख घटनाएं ‘काम’ से प्रेरित हैं। इन कहानियों में ‘काम-भावना’ प्रकृति की दिव्य शक्ति के रूप में मौज़ूद है, नेपथ्य में समागम की संभावना है, जो मन और आत्मा में तरंगें पैदा कर देता है। तत्पश्चात मृत्यु आ जाती है। इन कहानियों के पात्र कोमलता की तरफ झुकते हैं। यह झुकाव कई बार मुझे ग्रस्तता की तरह लगता है।
मृत्यु-शैया से पत्र के रूप में लिखी गयी कहानी ‘एक अनकही कहानी’ में प्रेमलता मुक्ति पाने के लिए अपनी पुत्री स्नेहा को पत्र लिखती है कि कुछ अनकहा न रह जाए। वह अपने तृप्त होने की कहानी बताती है। यह तृप्ति उसे दूसरे पुरुष से मिली है। वह उम्मीद करती है कि युवा होने के बाद स्नेहा उसे समझ लेगी। ‘संताप’ कहानी में माँ का शव अन्तिम यात्रा की तैयारी में है, दूसरी तरफ माया बचपन वाली माँ को याद करती है और उसे वह आदमी भी याद आता है, जो झकाझक सफेद कुर्ता पहने घर में आया करता था। ऐसा ही आदमी माया के जीवन में भी था- डाक्टर प्रधान। माया डाक्टर प्रधान को भी याद करती है, जो उसकी बेटी नताशा का इलाज कर रहा था। ‘मणिकर्णिका के आस-पास’ कहानी में परिधि की आत्मा मणिकर्णिका घाट पर अपनी काया को जलते देख रही है। राजश्री बुआ के साथ हुए अनुभव ने जहाँ परिधि को घायल किया, वहीं पति निहाल के साहचर्य में परिधि की आत्मा सम्मिलित न हो सकी। और शिरीष के साथ हुआ लगाव भी समाप्त हो जाता है। परिधि हमेशा परिधि पर रही, केन्द्र नहीं बन सकी।
मौसम हमारी संवेदना का विषय है। वह हमारे होने को प्रभावित करता है। ‘माँ, मार्च और मृत्यु’ मार्च के मौसम के असर से नोस्टैल्जिक हो जाने की कहानी है। मार्च का महीना मृणाल बाबू में अब तक की सभी मर्मस्पर्शी स्मृतियों को जगा देता है।
अधिकांश कहानियों का वातावरण कोलकाता है, अपनी झलक दिखाती बंग-संस्कृति है। कुछ पात्रों का अतीत कोलकाता, बनारस या राजस्थान तक फैला है। कुछ कहानियों में पात्रों के पूरे जीवन को एक विहंगम दृष्टि से देखा जा सकता है।
इन कहानियों को पढ़ने की अनिवेदित शर्त भी है। कुछ कहानियां किसी रहस्य-कथा की तरह उत्सुक होकर पढ़ने के लिए विवश कर देती हैं और कविता की तरह हमारी संवेदना में धीरे-धीरे घुलती हैं।
किताब – मां, मार्च और मृत्यु (कहानी संग्रह)
लेखिका – शर्मिला जालान
प्रकाशक – सेतु प्रकाशन, सी-21, सेक्टर 65, नोएडा पिनकोड -201301
मूल्य : 175 रु.