इस व्यवस्था में न्याय कहां है

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(यह दरअसल कोई लेख नहीं, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन लोकुर का भाषण है जो उन्होंने 24 जुलाई 2021 को एक वेबिनार में दिया था। वेबिनार का विषय था- लोकतंत्र, असहमति और कठोर कानून पर चर्चा : क्या यूएपीए और राजद्रोह कानून को हमारी कानून की किताबों में जगह मिलनी चाहिए?” इस वेबिनार का आयोजन सीजेएआर यानी कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफार्म्स, और, एचआरडीए यानी ह्यूमन राइट्स डिफेंडर्स अलर्ट ने लाइव लॉ पोर्टल के साथ मिलकर किया था। कहने की जरूरत नहीं कि जस्टिस लोकुर का वक्तव्य बहुत मौजूं है, इसमें मानवाधिकार, कानून और न्यायप्रणाली से वास्ता रखनेवाले एक बहुत ही अहम सवाल पर ध्यान खींचा गया है। इसपर व्यापक चर्चा होनी चाहिए। लिहाजा, उनका उपर्युक्त पूरा भाषण हम दो किस्त में प्रकाशित कर रहे हैं। कल पहली किस्त प्रकाशित हुई थी। आज पेश है दूसरी किस्त।)

जस्टिस मदन लोकुर

र्जी मुठभेड़ चिंता का एक और क्षेत्र है। फर्जी मुठभेड़ों के लिए कोई मुआवजा नहीं दिया जाता है। जस्टिस दीपक गुप्ता और मुझे मणिपुर में एक 12 वर्षीय लड़के के मामले को देखना था, जिसे पीठ में गोली मार दी गयी थी, कारण यह था कि वह एक आतंकवादी था और भागने की कोशिश कर रहा था। जस्टिस संतोष हेगड़े- एक बहुत ही प्रतिष्ठित न्यायमूर्ति जो उस समय तक सेवानिवृत्त हो चुके थे- को पहले इस घटना को देखने के लिए कहा गया था। उन्होंने बताया कि यह एक फर्जी मुठभेड़ है और ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जैसा कि लड़के के खिलाफ कथित रूप से बताया गया है। जब तक हमने हस्तक्षेप नहीं किया, तब तक कोई मुआवजा नहीं दिया गया।

उत्तर प्रदेश में ठोक दो नीति के तहत फर्जी मुठभेड़ों में अब तक 119लोग मारे जा चुके हैं। 119 लोग! आरोप है कि ये सभी भागने की कोशिश कर रहे थे, ये सभी पुलिस से बंदूकें छीनने की कोशिश कर रहे थे और ये सभी घातक अपराधी थे। ये कैसे संभव है? क्या कोई पूछताछ की गयी है? या यह है कि पुलिस उन्हें गोली मारकर कह सकती है कि वे खूंखार अपराधी थे और यह उनकी ठोक दो नीति के अनुसार है?

असम में भी ऐसा ही है, जहां अगर कोई कैदी भागने की कोशिश करता है तो उसे गोली मार देते हैं। फर्जी मुठभेड़ों में 5 लोग पहले ही मारे जा चुके हैं। उनके लिए मुआवजे का क्या? इसलिए, यह न केवल बरी करने के मामले हैं, बल्कि ऐसे कई अन्य मामले हैं, जहां मुआवजा दिया जाना चाहिए। 

ऐसी खबरें हैं कि सूरत में 19 साल बाद 122 लोगों को बरी किया गया। उनमें से सभी इतने लंबे समय तक जेल में नहीं रहे, लेकिन उनमें से कुछ काफी समय तक जेल में रहे। यह कई साल बाद बरी होने का मामला है, लेकिन किसी को कोई मुआवजा नहीं दिया गया है।

बशीर अहमद बाबा कश्मीर के रहनेवाले हैं। वह एक कैंसर विरोधी शिविर में भाग लेने के लिए गुजरात जा रहे थे। उन्हें इस आधार पर गिरफ्तार किया गया था कि वह एक आतंकवादी थे और उन्हें 11 साल तक हिरासत में रखा गया था। विडंबना देखें; वह क्या करने जा रहे थे? वह एक कैंसर विरोधी शिविर में भाग लेने जा रहे थे ताकि वह कश्मीर में लोगों की मदद कर सकें, यह समझ सकें कि कैंसर का इलाज कैसे किया जाए और कैंसर से कैसे निपटा जाए।

लेकिन, उन्होंने बशीर अहमद बाबा को अंदर डाल दिया उन्हें बरी कर दिया गया लेकिन उन्हें कोई मुआवजा नहीं दिया गया। मैंने आगरा जेल में 14 से 22 साल की अवधि के लिए बंद कुछ लोगों का उल्लेख किया है। यह केवल कई वर्षों के बाद बरी होने का सवाल नहीं है, जो कई कारणों से हो सकता है। पूरी आपराधिक न्याय प्रक्रिया को देखा जाना चाहिए, गिरफ्तारी से शुरू होकर- जैसा कि मोहम्मद फारूकी के मामले में है, से अखिल गोगोई के मामले तकयानी आरोप तय होने, मुकदमे और बरी होने तक। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है।

यह कहना अच्छा है कि यूएपीए को जाना चाहिए, और राजद्रोह कानून को जाना चाहिए – लेकिन मुझे नहीं लगता कि वे कहीं जा रहे हैं, और शायद अब एनएसए का ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है। तो लोग इस स्थिति से कैसे निपट सकते हैं? एकमात्र उत्तर जवाबदेही है, जो दो रूपों में होनी चाहिए- एक वित्तीय जवाबदेही है जहां पर्याप्त मात्रा में मुआवजा दिया जाना चाहिए। यदि नंबी नारायणन को 50 लाख रुपए मुआवजा दिया जा सकता है तो निश्चित रूप से उन सभी लोगों को मुआवजे की अच्छी राशि दी जा सकती है, जिन्हें गलत तरीके से गिरफ्तार किया गया है और हिरासत में लिया गया है।

एक बार जब अदालतें पुलिस या अभियोजन पक्ष से यह कहना शुरू कर दें कि आप 5 लाख या 10 लाख रुपए का मुआवजा दें तो मुझे लगता है कि वे शायद होश में आ जाएंगे और अनावश्यक गिरफ्तारी नहीं करेंगे। यह एक पहलू है।
मानसिक आघात का दूसरा पहलू, जिस पर हमने गौर नहीं किया है क्योंकि हम मानते हैं कि 5 लाख रुपये का मुआवजा देने के बाद, सब ठीक हो जाएगा।

हम मानसिक आघात को नजरअंदाज करते हैं- न केवल उस व्यक्ति के लिए, जो यह मानता है कि वह निर्दोष है और अंततः निर्दोष साबित होता है, बल्कि उसके परिजनों के लिए भी। व्यक्ति कई वर्षों तक जेल में रहकर गंभीर मानसिक आघात से गुजरता है, उस कृत्य के ‌लिए जिसे उसने नहीं किया है या कुछ झूठे आरोपों या कुछ बेकार आरोपों के लिए, जैसा कि मणिपुर के कार्यकर्ता के मामले में, जिसने गोमूत्र के बारे में कुछ कहा था और उसे एनएसए के तहत हिरासत में लिया गया था। उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति के बारे में क्या? मनोवैज्ञानिक प्रभाव के बारे में क्या? उस पर भावनात्मक प्रभाव के बारे में क्या?

उसके परिवार और उसके बच्चों पर मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक प्रभाव के बारे में क्या? वे स्कूल जाएंगे और उन्हें बताया जाएगा कि तुम्हारे पिता जेल में हैं। क्यों? क्योंकि वह एक आतंकवादी है। क्योंकि उसने देशद्रोह किया है। क्यों? क्योंकि वह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है। और उसने क्या किया है? उसने कुछ नहीं किया है; वह कैंसर रोधी उपचार शिविर में भाग लेने गया है और 11 साल से वह जेल में है। एक बच्चा 11 साल या 12 साल के लिए स्कूल जाएगा। हम अभी इसे नहीं देख रहे हैं। मानसिक आघात का पहलू भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि हमारे पास ऐसे लोग होंगे जो निराश हैं, जिनके परिवार निराश हैं, जिनके मित्र निराश हैं, जिनके रिश्तेदार निराश हैं- यहां एक ऐसा व्यक्ति है जो निर्दोष है और गलत तरीके से कैद है। और किसलिए? किसी ऐसे काम के लिए जो उसने नहीं किया! इस प्रक्रिया के माध्यम से हम किस तरह का समाज विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं?

अब सॉफ्ट टॉर्चरकी अवधारणा विकसित हो रही है। हम थर्ड-डिग्री के तरीकों के बारे में जानते हैं; हम दूसरी डिग्री के टॉर्चर के तरीकों के बारे में जानते हैं। इसके बजाय अब हम सॉफ्ट टॉर्चर देख रहे हैं।

एक उदाहरण जेलों में भीड़भाड़ होगी। मूल रूप से एक व्यक्ति के लिए बनी एक सेल में चार व्यक्ति होते हैं। तो, प्लेटफॉर्म पर कौन सोएगा- यह ताकतवर कैदी को फैसला करना होगा? तो, सोने के समय जेल में बंद लोगों के लिए निश्चित रूप से असुविधा होती है। इसमें जोड़ें, स्वच्छता का मुद्दा

मैं बच्चों के कुछ कस्टोडियल ऑब्जर्वेशन होम में गया हूं। 50 बच्चों के लिए एक छात्रावास में, 50 बच्चों को होना चाहिए था, लेकिन हो सकता है कि अधिक हों- लेकिन केवल एक शौचालय है, जो काम करता हे। आप किस प्रकार की स्वच्छता की अपेक्षा करते हैं? जेल शायद थोड़े बेहतर हैं। क्या यह किसी तरह की यातना नहीं है? चिंता का एक अन्य कारण पोषण है- हमारे पास आहार विशेषज्ञ हैं, जो हमें बता रहे हैं कि कितनी कैलोरी खानी है और क्या नहीं खाना है, कब खाना है- क्या इनमें से कोई कैदियों पर भी लागू नहीं होता है?

बाल कैदियों के बारे में क्या? जम्मू-कश्मीर में पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत बच्चों को हिरासत में रखा गया है। उन्हें क्या पोषण दिया गया? क्या हम उनके कैदखानों की स्वच्छता की स्थिति के बारे में जानते हैं? चिकित्सा सुविधाएं चिंता का एक अन्य क्षेत्र हैं- क्या एक व्यक्ति उचित चिकित्सा सुविधाओं का हकदार नहीं है? भले ही वह एक कैदी है और इससे क्या फर्क पड़ता है कि वह एक कैदी है?

हनी बाबू का मामला है, जिनकी आंख की हालत बहुत खराब बतायी गयी थी और जब ऐसा लगा कि वह अपनी दृष्टि खो सकते हैं, तो उन्हें अस्पताल भेजा गया- लेकिन उससे पहले नहीं भेजा गया। स्टेन स्वामी- सभी ने स्टेन स्वामी के बारे में बात की है। उन्हें पहले चिकित्सा उपचार क्यों नहीं दिया जा सकता था? क्या चिकित्सा उपचार से इनकार करना सॉफ्ट टॉर्चर नहीं है?

सॉफ्ट टॉर्चर शारीरिक नहीं है, जहां आप किसी व्यक्ति को मारते हैं – यह बुनियादी सुविधाओं से व्यवस्थित इनकार है। हाल ही में एक ऐसे शख्स की रिपोर्ट आयी थी, जिसे एक दिन में सिर्फ दो घंटे के लिए अपने सेल से बाहर जाने की इजाजत थी। वह शेष 22 घंटों के लिए- लगभग एकान्त कारावास में या एकान्त कारावास के बराबर जैसी स्थिति में बंद रहता था। क्या यह सॉफ्ट टॉर्चर नहीं है?

तो आइए, आपराधिक न्याय प्रणाली के पूरे परिदृश्य को देखें। सिर्फ एक पहलू को न देखें, जो अंजलि और प्रशांत ने मुझे देखने के लिए कहा है- लंबी अवधि की कैद के बाद बरी होना। आइए बड़ी तस्वीर देखें। हम कहां जा रहे हैं? यह प्रश्न है। उपाय क्या है? मुआवजा एक है, जवाबदेही दूसरी। मानसिक स्वास्थ्य उतना ही महत्त्वपूर्ण है, यदि अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है तो भी, क्योंकि अन्याय को पीड़ित को अपने शेष जीवन में भी ढोना पड़ता है। उनके परिवार और बच्चों के जीवन पर अपरिवर्तनीय प्रभाव पड़ता है। वे इसे हमेशा याद रखते हैं।

सचमुच जागने का समय आ गया है।

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