कंपनियों का निजाम क्या होगा अंजाम

0
चित्र बिजनेस स्टैंडर्ड से साभार


— ऋषि आनंद —

स वर्ष 22 जुलाई को, मोदी सरकार ने 23 केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (सीपीएसयू) के विनिवेश के अपने फैसले के बारे में संसद को सूचित किया। 23 अगस्त को, वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन के तहत चार साल के संपत्ति मुद्रीकरण योजना की घोषणा की। ये दोनों निर्णय केंद्रीय बजट 2021 के बाद से अपेक्षित थे, और मौजूदा सरकार की आर्थिक नीतियों के अनुरूप हैं। जहां समाज के एक वर्ग ने इन नीतियों का समर्थन किया है, वहीं भारत और आम भारतीय लोगों के लिए इनके निहितार्थ अत्यंत विनाशकारी साबित हो सकते हैं। आम धारणा के विपरीत, ये नीतियां आर्थिक विकास की मौजूदा समस्याओं का समाधान नहीं, बल्कि तेजी से बढ़ रही आर्थिक असमानता को और बढ़ाएंगी, गरीबों पर कहर बरपाएंगी, सकारात्मक कार्रवाई (एफर्मेटिव एक्शन) की नीतियों को गंभीर रूप से बाधित करेंगी, और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएंगी।

निजीकरण की नीतियों के पीछे सामान्य तर्क यह है कि निजी कंपनियां नौकरशाही सरकार की तुलना में अधिक दक्ष और लाभप्रद व्यवसाय चला सकती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 100 सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की योजना की घोषणा करते हुए नवउदारवादी हठधर्मिता को दोहराया, कि सरकार को व्यवसाय में नहीं होना चाहिए। हालांकि यह दो कारणों से भ्रामक और कपटपूर्ण है। पहला, दक्षता का विचारहीन अनुसरण अर्थव्यवस्था और समाज के लिए हानिकारक है। यह असमानता, बेरोजगारी, और बाजार में एकाधिकार पैदा करता है।

दूसरा, दक्षता या लाभ सार्वजनिक उपक्रमों का एकमात्र या सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य नहीं है। सार्वजनिक उपक्रमों को श्रमिकों, उपभोक्ताओं और देश के कल्याण के लिए चलाया जाता है, न कि मुट्ठी भर धनी उद्योगपतियों के मुनाफे के लिए। इसके कर्मचारी सही वेतन, सवैतनिक अवकाश, निश्चित काम के घंटे, और समयोपरि (ओवरटाइम) भत्ता के साथ-साथ, अन्य सुविधाओं के हकदार होते हैं। सार्वजनिक उपक्रम पिछड़े वर्गों, विकलांगों और महिलाओं के लिए राज्य की सकारात्मक कार्रवाई (एफर्मेटिव एक्शन) की नीतियों को लागू करने में मदद करते हैं। वे अकसर लोगों को कम दर पर और यहां तक कि लाभहीन स्थितियों में भी अपनी सेवाएं प्रदान करते हैं। वे पर्यावरण संबंधी चिंताओं के प्रति अधिक बाध्य और अवलंबी होते हैं। एकमात्र लाभ का विचारण अन्य सभी विचारों को नष्ट कर देता है।

जब किसी सार्वजनिक उपक्रम का निजीकरण किया जाता है, तो नये मालिक सबसे पहले, इन अदक्षताओं’ को खत्म करने की कोशिश करते हैं। बड़ी संख्या में कर्मचारियों को निकाल दिया जाता है, और बाकी को कम सुविधाओं के साथ अधिक समय तक काम करने के लिए विवश किया जाता है। मौजूदा उद्योगों में भी, सार्वजनिक और निजी निगमों के बीच इस तरह के अंतर आसानी से देखे जा सकते हैं।

जहां बीएसएनएल अपने कर्मचारियों पर अपने राजस्व का 70 फीसद से अधिक खर्च करता है, वहीं रिलायंस जियो के लिए यह आंकड़ा 5 फीसदसे भी कम है। तो सवाल यह है कि, क्या हमें और मुकेश अंबानियों की आवश्यकता है, या आम लोगों के लिए रोजगारों की। सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण भारत में आर्थिक असमानता के पहले से ही खतरनाक स्तर को और बढ़ा देगा।

दूसरी आम चिंता सरकारी स्वामित्व वाले निगमों द्वारा दी जानेवाली सेवाओं की गुणवत्ता की है। बेशक, भारत में कई लोगों के पास बीएसएनएल या एसबीआई के साथ खराब अनुभव की अपनी कहानी होगी। इस स्थिति के लिए अकसर इन निगमों के कर्मचारियों को दोषी ठहराया जाता है। हालांकि, हकीकत कुछ और ही है। पहला, भारत में कई ऐसे सफल सार्वजनिक उपक्रम हैं, जो पेट्रोलियम और बिजली से लेकर कृत्रिम उपग्रह, परमाणु ऊर्जा और मिसाइल तक बनाते हैं। तो, ऐसा नहीं हो सकता है कि सरकारी कर्मचारी हमेशा आलसी होते हैं, और निजी क्षेत्र के प्रोत्साहन या डर के बिना काम नहीं करना चाहते।

दूसरा, निजीकरण के लिए लोक समर्थन तैयार करने के लिए सार्वजनिक उपक्रमों को जानबूझकर अक्षम बना दिया जाता है। पिछले कई वर्षों से, बीएसएनएल के कर्मचारी 4जी सेवाओं की शुरुआत की मांग के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं, जो आज तक उसे आवंटित नहीं किया गया है। 2020 में, जब भारत-चीन के बीच सीमा पर विवाद चल रहा था, तो भारत सरकार ने एकतरफा घोषणा कर दी कि बीएसएनएल चीनी उपकरण नहीं खरीदेगा, जबकि निजी दूरसंचार कंपनियों पर ऐसा प्रतिबंध नहीं लगाया गया। इसी तरह, राफेल भ्रष्टाचार मामले में भी, प्रधानमंत्री मोदी ने एचएएल को लगभग सुनिश्चित अनुबंध से हटा कर वह अनुबंध रिलायंस को सौंप दिया।

विश्वप्रसिद्ध चिंतक नोम चॉम्स्की ने निजीकरण की नीति के बारे में कहा है :निजीकरण की सामान्य तकनीक यह है : पहला विनिधिकरण करना, फिर यह सुनिश्चित करना कि चीजें काम नहीं कर रही हैं, जिससे लोग नाराज हो जाते हैं, और आप इसे निजी कंपनियों को सौंप देते हैं।

सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण अकसर कुछ लोगों के लिए बेहतर अनुभव प्रदान करने के नाम पर सेवाओं को अधिक महंगा और विशिष्ट बना देता है, और उन लोगों के लिए दुर्लभ बना देता है जो उस विलासिता के लिए भुगतान नहीं कर सकते हैं। निजी अस्पताल भव्य हो सकते हैं, और समर्पित सेवा पेश कर सकते हैं, लेकिन स्वास्थ्य सेवा का निजीकरण उन लोगों के बीच सीमांकन कर देता है जो जीने का खर्च उठा सकते हैं और जिन्हें मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा। सरकारी अस्पताल या बैंक या रेलवे के इतने अनाकर्षक होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि वे इतने सारे लोगों को सेवा मुहैया करते हैं जो निजी निगमों में जाने का खर्च नहीं उठा सकते। आज भी, जहां एचडीएफसी बैंक में औसत मासिक बैलेंस की आवश्यकता ₹10,000 है, एसबीआई में यह शून्य है।

यह अकसर दोहराया जाता है कि सार्वजनिक उपक्रम घाटे की संस्थान हैं। यह अर्धसत्य है। यह सच है कि एयर इंडिया घाटे में चल रही है और कर्ज में डूबी हुई है, लेकिन वही हाल इंडिगो और किंगफिशर एयरलाइंस का भी था। यह सच है कि बीएसएनएल कर्ज में है, लेकिन एयरटेल, वोडाफोन-आइडिया, एडीएजी रिलायंस भी इसी हालत में हैं। ट्राई के पूर्व अध्यक्ष प्रदीप बैजल ने दावा किया था कि जब सार्वजनिक उपक्रम विफल होते हैं, तो करदाता को उसका भुगतान करना होता है। लेकिन यही बात निजी कंपनियों की विफलता के मामले में भी लागू हो सकती है, जिस वजह से आज 8 ट्रिलियन रुपये से अधिक का एनपीए बन चुका है। सार्वजनिक उपक्रम यह खेल अपने हाथों को पीठ पीछे बांधकर खेल रहे हैं, जहां सरकार जान-बूझ कर उन्हें अक्षम बनाने की कोशिश कर रही है, और अंततः उन्हें बेच रही है।

मोदी सरकार की विनाशकारी नीतियों ने कभी सबसे अधिक लाभप्रद सार्वजनिक उपक्रम ओएनजीसी को भी कर्ज में धकेल दिया है। और यह न केवल घाटे में चल रही एयर इंडिया है जिसे बेचा जा रहा है, बल्कि बीपीसीएल, एलआईसी, आदि जैसे लाभकारी सार्वजनिक उपक्रमों का भी निजीकरण किया जा रहा है। यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि इन संस्थाओं को एक बार निजी हाथों में धकेल देने के बाद उनके कर्मचारियों का क्या होगा?

यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि धारणा के विपरीत, भारत में सार्वजनिक उपक्रमों में रोजगार कुल रोजगार का केवल 3 फीसद है, जो कि एक कल्याणकारी राज्य के लिए बेहद कम है। यह नार्वे जैसे देश में सार्वजनिक उपक्रमों में रोजगार का दसवां भाग है और यहां तक कि अमरीका के भी एक चौथाई से कम है।

निजीकरण का असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा। निस्संदेह आज भारत के आर्थिक संकट का कारण काफी हद तक बाजार में मांग की कमी है। तो, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि निजी निगम कितनी दक्षता से वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन कर सकते हैं, जब उन्हें खरीदने या उपयोग करने वाला कोई नहीं होगा।

अंत में, एक चेतावनी के रूप में, भारत में बढ़ती असमानता के कारण सामने आ रहे गंभीर मानवीय संकट को याद रखना भी महत्त्वपूर्ण है। COVID-19 महामारी के दौरान, जहां निजी निगमों के मुनाफे में 57 फीसद की वृद्धि हुई और अरबपतियों की संपत्ति में 35 फीसद की वृद्धि हुई, वहीं 23 करोड़ अतिरिक्त लोग गरीबी रेखा से नीचे आ गये हैं। 70 फीसद से अधिक भारतीयों ने अपने आहार को कम कर दिया है, जबकि घरेलू ऋण में 4.25 लाख करोड़ की वृद्धि हुई है।

एक उदासीन आर्थिक दृष्टिकोण से भी देखें तो, यह संकट अधिक लोगों को सरकारी सहायता और योजनाओं पर आश्रित बना देगा, जिसका भुगतान फिर करदाताओं को ही करना होगा, कम से कम उन्हें जो बच जाएंगे।

मोदी सरकार की विनाशकारी नीतियों ने कभी सबसे अधिक लाभप्रद सार्वजनिक उपक्रम ओएनजीसी को भी कर्ज में धकेल दिया है। और यह न केवल घाटे में चल रही एयर इंडिया है जिसे बेचा जा रहा है, बल्कि बीपीसीएल, एलआईसी, आदि जैसे लाभकारी सार्वजनिक उपक्रमों का भी निजीकरण किया जा रहा है। यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि इन संस्थाओं को एक बार निजी हाथों में धकेल देने के बाद उनके कर्मचारियों का क्या होगा?

Leave a Comment