विकास को एक बुनियादी मानवाधिकार माना गया है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने दिसंबर 1986 में विकास के अधिकार का घोषणापत्र स्वीकार करते हुए उसे एक ऐसा अधिकार माना था जिससे किसी भी व्यक्ति या समूह को वंचित नहीं किया जा सकता। उसी घोषणापत्र के अनुच्छेद-दो में यह कहा गया था कि विकास का केंद्रीय विषय मानव है और वह विकास की प्रक्रिया का सहयोगी और उसके लाभ का भोक्ता होना चाहिए। यही बात व्यक्तियों के विशिष्ट समूह पर भी लागू होती है, जिसका सीधा तात्पर्य यह है कि किसी भी समूह की कीमत पर किसी भी दूसरे समूह का विकास वास्तविक अर्थात ऐसा विकास नहीं कहा जा सकता जिसका केंद्रीय विषय मानव है।
यही नहीं, मानव की भावी पीढ़ियों के हित को भी विकास की प्रक्रिया में समाहित करना होगा क्योंकि यदि विकास के नाम पर उनके अधिकारों का अतिक्रमण होता है तो इसे उनके साथ अन्याय समझा जाना चाहिए। इस अवधारणा को इंटरजेनेरेशनल जस्टिस- सनातन न्याय- कहा जाता है।
इसलिए यह तो तय है कि यदि राज्य विकास के लिए कार्यक्रम बनाता और लागू करता है तो वह मानवाधिकारों की अपेक्षा पर खरा उतरने का दावा कर सकता है, जैसा कि वह अकसर करता भी है। यह भी तय है कि विकास की कुछ कीमत भी देनी होती है। लेकिन तब मुख्य सवाल यह हो जाता है कि वह कीमत कौन दे रहा है? क्या यह कीमत वह समूह चुका रहा है जिसे उसका लाभ मिलनेवाला है अथवा वह, जिसकी कीमत पर किसी दूसरे समूह को लाभ मिलेगा?
कहा जा सकता है कि पूरा समाज या कि राष्ट्र अपने में एक समूह है और विकास के लाभ पूरे देश के लाभ होने के कारण अंततः सभी के लाभ माने जाने चाहिए। लेकिन कोई भी समाज या राष्ट्र कई प्रकार के समूहों का समुदाय या संघ होता है और यदि उनमें से किसी एक के अधिकारों या हितों की अन्य द्वारा अनदेखी होती है तो ऐसा करना प्रकारांतर से उस विशिष्ट समूह को राष्ट्र से बाहर मान लेना है। अपने अधिकारों के अतिक्रमण के परिणामस्वरूप किसी समूह का अलगाववादी होना या अन्य समूहों के अन्याय का विरोध करना आदि तो बाद की बातें हैं। पहली बात तो यही है अतिक्रमण करनेवाले समूहों ने- जिनका प्रतिनिधित्व राज्य करता है- उसे मानसिक स्तर पर अपने से अलग मान लिया है।
बहुमत समूहों द्वारा संचालित-नियंत्रित होने के कारण राज्य उनके हितों के प्रवक्ता और रक्षक के रूप में किसी एक समूह के साथ अन्याय कर सकता है। किसी भी व्यक्ति या समूह के साथ ऐसा अन्याय ना हो सके, इसी दृष्टि से संविधानों में मौलिक अधिकारों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों की संकल्पना की जाती है। यह संकल्पना इसलिए भी जरूरी है कि कमजोर समूहों पर ऐसे अत्याचार किये जाते रहे हैं क्योंकि राज्य सभी के हितों के नाम पर अकसर उन्हीं के साथ अन्याय करता है।
हमारे यहां- और हमारे यहां ही क्यों, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी- विकास के नाम पर आदिवासी समूहों के साथ अन्याय ही होता रहा है। क्या इस विडंबना की ओर वैश्वीकरण की हामी नीति-निर्माताओं का ध्यान कभी गया है कि बढ़ती जनसंख्या से परेशान दुनिया में कई आदिवासी समूह लगभग नष्ट होने के कगार पर क्यों हैं?
यह भी एक विडंबना ही है कि मानवाधिकारवादियों ने भी प्रारंभ में आदिवासियों के अधिकारों की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया था और इसी कारण मानवाधिकारों की संयुक्त राष्ट्र की घोषणा में उनका कोई उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कथित विकास की प्रक्रिया में आदिवासियों के हितों पर किये गये उठा कुठाराघातों ने ही मानवाधिकारवादियों को इस दिशा में सचेष्ट किया। हमारे यहां भी बड़े बांधों और जंगलों की अंधाधुंध कटाई और वनोपज पर राज्य के अधिकार की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण जब आदिवासियों का जीना-रहना दूभर होने लगा तो कुछ मानवाधिकारवादी उनके लिए आवाज उठाने लगे हैं- यद्यपि अभी राज्य अथवा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग आदिवासियों के सामूहिक अधिकारों के प्रति लगभग उदासीन हैं- बल्कि यह राज्य ही है जो उनके अधिकारों का अतिक्रमण करता जा रहा है।
यह उल्लेखनीय है कि पर्यावरण और विकास पर केंद्रित संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में यह तथ्य स्वीकार किया गया था की वैश्विक पर्यावरण की चुनौतियों का सामना करने के लिए आदिवासी समूहों और उनके पारंपरिक ज्ञान की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
इसलिए विकास की किसी भी प्रक्रिया- विशेषतया उनके प्रदेशों से संबंधित विकास प्रक्रिया- में इन समूहों की सक्रिय भागीदारी को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इसी के साथ यह भी स्मरणीय है कि विकास की वित्ताधारित रणनीतियों की असफलता को स्वीकार करते हुए स्वयं संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग के घोषणापत्र और सामाजिक विकास के विश्व सम्मेलन में यह बात उभरकर आ गयी है कि स्थानीय समूहों की सक्रिय सहभागिता के बिना विकास संभव नहीं है।
यही कारण है कि आज न केवल विकास की परिभाषा बदल गयी है और सकल राष्ट्रीय उत्पाद या सकल राष्ट्रीय आय की बजाय सकल राष्ट्रीय कल्याण- जीएनडब्ल्यू- को विकास की कसौटी माना जाने लगा है- यद्यपि हमारी नीति-निर्माता अब भी विकास की बात करते हुए राष्ट्रीय उत्पादन या आय की कसौटी वाली भाषा का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि जहां संयुक्त राष्ट्र विश्व-कल्याण की भाषा में सोचता है, वहीं विश्व बैंक जैसी संस्थाएं उत्पादन या आय की भाषा में सोचती हैं और जाहिर है कि हमारे नीति-निर्माता विश्व बैंक के प्रभाव में दिखायी देते हैं- संयुक्त राष्ट्र की मानव-कल्याण वाली दृष्टि के प्रभाव से बिलकुल अछूते। इसी कारण वे आदिवासियों के हितों को मुआवजे की आर्थिकी से परखते हैं, संयुक्त राष्ट्र की नैतिक आर्थिकी से नहीं।
संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा नब्बे के दशक के अंत में आदिवासी समूहों के हितों पर विचार के लिए आयोजित सम्मेलन में यह बात स्वीकार की गयी थी कि आदिवासियों के जीवन को प्रभावित करनेवाले कार्यक्रमों को बनाने और लागू करने में उन समूहों की स्वीकृति ली जानी चाहिए और राज्य को उनके और अन्य नागरिकों के बीच भेद को स्वीकार करते हुए उनके लिए कार्यक्रम बनाते हुए इस भेद का सम्मान करना चाहिए।
इस सम्मेलन में यह बात उभरकर आयी और स्वीकार की गयी थी कि आदिवासी समूहों को अपने और अपनी पारंपरिक भूमि के विकास में संभव सीमा तक नियंत्रण का अधिकार होना चाहिए। इसका एक तात्पर्य यह भी है कि उन्हें अपने इलाके में आंतरिक स्वायत्तता का अधिकार भी मान्य है। सरकारों से इस दिशा में सक्रिय कदम उठाने की अपेक्षा भी की गयी थी।
यह उल्लेखनीय है कि इस अपेक्षा के अनुरूप निकारागुआ और पनामा जैसे देशों में ही नहीं, वर्तमान भारतीय अर्थनीतियों के आदर्श नियंता अमरीका, कनाडा, डेनमार्क आदि देशों में भी आदिवासियों की स्वायत्तता के प्रयोग हुए हैं और उनके परिणाम आश्चर्यजनक रूप से लाभदायक सिद्ध हो रहे हैं। रियो डी जेनेरियो के सम्मेलन में भी प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में आदिवासी समूहों की भूमिका को स्वीकार किया गया था।
स्पष्ट है कि वित्ताधारित विकास के लिए यदि कोई राज्य मानवीय विकास और कल्याण की उपेक्षा या दमन करता है तो वह राज्य होने का नैतिक अधिकार खो देता है। राज्य केवल संवैधानिक संस्था नहीं है, वह प्रथमत: एक नैतिक संस्था है क्योंकि स्वयं संविधान एक नैतिक दस्तावेज ही हो सकता है। यदि राज्य संविधान-प्रदत्त अधिकारों की ऐसी व्याख्या या प्रयोग करता है जो नैतिकता के सनातन या कम-से-कम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत प्रतिमानों की दृष्टि से अन्यायपूर्ण हो तो ऐसे राज्य के विरोध को अनैतिक नहीं कहा जा सकता- बल्कि ऐसी स्थिति में यह विरोध एक नैतिक कर्तव्य हो जाता है। उल्लेखनीय है कि यदि कोई चाहे तो अपने अधिकारों को स्वेच्छापूर्वक छोड़ सकता है, लेकिन कर्तव्य से कोई छुटकारा नहीं है। यह बात केवल व्यक्ति या समूहों पर नहीं, मनुष्यों द्वारा निर्मित सभी संस्थाओं पर भी लागू होती है- और राज्य भी इसका अपवाद नहीं है।
राज्य यदि नैतिक शक्ति है तो उसे अपने व्यवहार से नैतिकता को अर्जित करना होगा। कानून राज्य की रचना है, लेकिन नैतिकता को उसे कमाना होता है- तभी वह अपने अस्तित्व का नैतिक औचित्य सिद्ध कर सकता है।
विकास के नाम पर आदिवासी समूहों या कहें कि किसी भी इलाके के ऐसे निवासियों को उस भूमि से बेदखल कर देना, जहां वे हमेशा से रहते आए हैं, विकास के संयुक्त राष्ट्र के प्रतिमानों के आधार पर भी एक अनैतिक कर्म है- चाहे ऐसा करने का उसका कानूनी अधिकार मान भी लिया जाय- और किसी लोकतांत्रिक राज्य के अनैतिक होने का तात्पर्य यह है कि तब वह औपचारिक रूप से लोकतंत्र रहते हुए भी वस्तुतः एक सैनिक राज्य में तब्दील हो रहा है।