दिल्ली विश्वविद्यालय में तदर्थवाद कब खत्म होगा?

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— शशि शेखर प्रसाद सिंह —

दिल्ली विश्वविद्यालय देश का प्रतिष्ठित केंद्रीय विश्वविद्यालय है। स्वतंत्रता के पूर्व ब्रिटिश काल में 1922 में स्थापित यह विश्वविद्यालय अगले वर्ष अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरा करने जा रहा है। आज विश्वविद्यालय में 84 से अधिक विभाग तथा 80 से अधिक कॉलेज हैं, पत्रकारिता के द्वारा अध्ययन के लिए अलग मुक्त शिक्षा विद्यालय है, साथ ही लड़कियों के लिए गैर-महाविद्यालय शिक्षण व्यवस्था है। प्रत्येक वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय के सभी कॉलेजों में 60 हजार से अधिक विद्यार्थी स्नातक के नियमित कोर्स में दाखिला लेते हैं। स्नातकोत्तर कोर्स में अलग से दाखिला होता है। स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग और नॉन कॉलेजिएट शिक्षा बोर्ड में हजारों विद्यार्थियों का अलग से एडमिशन होता है।

पांच हजार से अधिक तदर्थ शिक्षक

यहाँ विश्वविद्यालय के विभागों, सभी कॉलेजों तथा स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग में कुल लगभग दस हजार शिक्षक हैं किंतु उसमें से आधे से अधिक तदर्थ (अस्थायी) शिक्षक हैं। सर्वाधिक चिंता का विषय यह है कि आज दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज में हजारों शिक्षक तदर्थ शिक्षक के रूप में पढ़ा रहे हैं। यहां नियमित नियुक्तियां नहीं होतीं। शिक्षक अपना कार्यकाल पूरा कर सेवा से अवकाश ग्रहण करते जा रहे हैं परंतु स्थायी नियुक्तियाँ वर्षों नही होतीं। नतीजतन लगातार तदर्थ शिक्षकों की संख्या बढ़ती जा रही है। कई महाविद्यालयों में स्थायी शिक्षकों से अधिक, और कहीं कहीं तो स्थायी शिक्षकों की संख्या से दुगने शिक्षक तदर्थ शिक्षक के रूप में वर्षों से कार्य कर रहे हैं।

सवाल उठता है कि देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में तदर्थ शिक्षकों की संख्या इतनी कैसे बढ़ गयी और स्थायी नियुक्तियाँ क्यों नहीं होतीं। कुछ कॉलेजों में 2010-11 में कुछ स्थायी नियुक्ति हुई थी, फिर 2015 में कुछ कॉलेजों में लगभग 800 स्थायी नियुक्ति हुई थी। किंतु उसके बाद फिर स्थायी नियुक्ति रुक गयी। 2015 के बाद अधिकांश कॉलेजों में तीन बार स्थायी नियुक्ति के लिए विज्ञापन निकाले गये किंतु स्थायी नियुक्ति नहीं हुई। यद्यपि विश्वविद्यालय के कुछ विभागों में स्थायी नियुक्तियाँ हुईं किंतु 1915 के बाद मात्र एक कॉलेज में दो स्थायी नियुक्ति हुई। उच्च अदालत के आदेश के बाद विधि विभाग में दो दशक बाद स्थाई नियुक्तियां।

देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के कॉलेज में स्थायी शिक्षकों की तुलना में तदर्थ शिक्षकों की इतनी बड़ी संख्या के लिए कौन जिम्मेदार है। बहुत-से कॉलेजों में कई ऐसे विभाग हैं जहां एक भी स्थायी शिक्षक नहीं है, तदर्थ शिक्षकों से विभाग चल रहा है। सारे कार्य तदर्थ शिक्षक करते हैं किंतु वो विभाग के इंचार्ज नहीं बन सकते क्योंकि वे स्थायी नहीं हैं।

कल्पना कीजिए कोई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के सौ साल पूरे करे और वहाँ नियमित नियुक्तियां न हों और आधे से अधिक तदर्थ शिक्षक हों जिनकी संख्या संख्या 5000 से अधिक हो जाए।

चिंता का विषय यह है कि तदर्थ शिक्षक के रूप में काम करनेवाले हजारों शिक्षकों को स्थायी नौकरी पाने की कोई गारंटी नहीं है। यद्यपि उन्हें प्रत्येक चार महीने में दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के संघर्ष और दबाव के कारण तदर्थ नियुक्ति मिल जाती हैं परंतु व्याख्याता के रूप में उन्हें बेसिक सैलरी, महंगाई भत्ता, आवास भत्ता तथा परिवहन भत्ता के अलावा कोई अन्य सुविधा नहीं मिलती। इसके अलावा उन्हें वार्षिक सेवा के लिए दिया जाने वाला कोई वार्षिक इंक्रीमेंट नहीं मिलता, बीमारी की स्थिति में मेडिकल की सुविधा नहीं मिलती, और स्थायी नौकरी की तरह एम.फिल. तथा पीएच.डी के लिए निर्धारित दो या पांच इंक्रीमेंट लीव नहीं मिलता। साथ ही यदि किसी प्रकार की दुर्घटना हो जाए या लंबी बीमारी हो तो न मेडिकल लीव मिलती है, न चिकित्सा के लिए आर्थिक सुविधा मिलती है।

इतना ही नहीं, यदि लंबी बीमारी या दुर्घटना के कारण तदर्थ नौकरी भी छूट जाती है, यदि किसी प्रकार कोई हादसा हो जाये और उसमें मृत्यु हो जाए तो परिवार को आर्थिक लाभ नहीं मिलता। कोरोना महामारी में कई सारे तदर्थ शिक्षकों की मृत्यु हो गयी किंतु मृत्यु के बाद किसी प्रकार की आर्थिक सुरक्षा न होने के कारण परिवार ने जीविका अर्जन करनेवाला भी खोया और स्थायी नौकरी वाली कोई आर्थिक सुरक्षा भी नहीं मिली।

दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के दबाव में पहली बार कोरोना महामारी के कारण जान से हाथ धोनेवाले तदर्थ शिक्षकों को भी शिक्षक कल्याण कोष से ₹500000 की एकमुश्त राशि मिली किंतु यह विशेष कृपा मात्र कोरोना महामारी के कारण मृत्यु के लिए था अर्थात यदि किसी तदर्थ शिक्षक की किसी सामान्य बीमारी से असमय मृत्यु हो जाती है तो उसे शिक्षक कल्याण कोष से कोई आर्थिक सहायता उसके परिवार को नहीं मिलेगी।

तदर्थ महिला शिक्षकों को मातृत्व अवकाश नहीं

तदर्थ व्याख्याता के रूप में शिक्षिकाओं को गर्भधारण करने के कारण स्थायी शिक्षिका को प्राप्त वेतन सहित अवकाश की सुविधा नहीं मिलती। इसका दुष्परिणाम यह देखा जाता है या तो तदर्थ शिक्षिकाएं स्थायी होने की आस में विवाह के फैसले को टालती रहती हैं या विवाह कर लेती हैं किंतु गर्भधारण करने के फैसले को टालती रहती हैं क्योंकि उन्हें निरंतर यह भय सताता रहता है कि गर्भधारण करने के कारण कहीं उनकी नौकरी ना चला जाए। यह कैसी विडंबना है कि स्त्री जिसे मातृत्व सुख प्राप्त करने का नैसर्गिक अधिकार है, तदर्थ शिक्षक रहने के कारण मातृत्व सुख से वंचित रह जाती हैं।

तदर्थवाद का मूल कारण

दिल्ली विश्वविद्यालय में नियमित नियुक्तियां ना होना यह एक दुखद पहलू है जिसका दुष्परिणाम लगातार तदर्थ शिक्षकों की बढ़ती संख्या है तथा अधिकांश कार्य करने के बावजूद स्थायी शिक्षक की तरह तदर्थ शिक्षकों को कोई लाभ नहीं मिलता है। वे पदोन्नति से वंचित रह जाते हैं। कई कॉलेजों में 65 साल की उम्र तक सेवा देने के बाद भी तदर्थ शिक्षक होने के कारण बिना किसी स्थायी शिक्षक की आर्थिक सुविधा या अन्य पदोन्नति का लाभ पाये नौकरी से बाहर हो गये।

इतना ही नहीं, एक और पहलू बहुत महत्त्वपूर्ण है। 2003 के बाद जो स्थायी नियुक्तियां हो रही हैं उसमें पुरानी पेंशन की व्यवस्था नहीं है। इसका यह अर्थ होता है यदि आपकी स्थायी नियुक्ति के बाद आपकी सेवा का कार्यकाल कम है तो आपके प्रोविडेंट फंड में जो पैसा जमा होगा वह बहुत कम होगा। परिणामत: आपके अवकाश ग्रहण करने के बाद आपको मासिक पेंशन राशि बहुत कम मिल पाएगी। ऐसी स्थिति में तदर्थ व्याख्याताओं की स्थायी नियुक्ति में विलंब का खमियाजा तदर्थ शिक्षकों को स्थायी होने के बाद भी भुगतना पड़ेगा।

एकमुश्त समायोजन ही विकल्प

इन तमाम कमियों के कारण दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ ने तदर्थ व्याख्याताओं की स्थायी नियुक्ति के लिए कानून के द्वारा एक बार समायोजन की मांग की है क्योंकि स्थायी नियुक्ति न होने से हजारों व्याख्याताओं के सामने न सिर्फ नौकरी की असुरक्षा है बल्कि तमाम स्थायी नियुक्तियों की आर्थिक और अन्य सुविधाओं से भी वे वंचित रह जाते हैं। जो तदर्थ शिक्षिकाएं/शिक्षक शादीशुदा हैं और उन्हें संतान है उन्हें उनके बच्चों को पढ़ाई के लिए मिलनेवाला आर्थिक लाभ भी नहीं मिलता।

यह देखा जा रहा है कि दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे केंद्रीय विश्वविद्यालय में नियमित नियुक्ति ना होने से हजारों की संख्या में युवा धीरे-धीरे किसी अन्य क्षेत्र में स्थायी नियुक्ति की चाह में चले जाते हैं। दुर्भाग्य यह है कि यूजीसी और शिक्षा विभाग के लोग बार-बार स्थायी नियुक्ति की बात तो करते हैं किंतु स्थायी नियुक्ति नहीं होती। लोकसभा/ राज्यसभा में कई बार प्रश्नकाल में दिल्ली विश्वविद्यालय में स्थायी नियुक्ति के संबंध में प्रश्न पूछे गये और कई बार शिक्षामंत्री ने घोषणा की कि जल्द ही सारी अस्थायी नियुक्तियों की जगह स्थायी नियुक्तियां की जाएंगी। सरकार की नाक के नीचे दिल्ली विश्वविद्यालय में कितने पद रिक्त हैं इसकी भी सूचना गलत दी जाती है।

दुर्भाग्य का विषय यह है कि उच्च शिक्षा जैसे क्षेत्र में प्रतिभाएं आना नहीं चाहतीं क्योंकि इतने लंबे समय तक स्थायी नियुक्ति की प्रतीक्षा और उसमें इतने नुकसान सहने की इच्छाशक्ति सारे प्रतिभा संपन्न लोगों में नहीं है। सवाल यह भी है कि स्थायी नियुक्ति की प्रतीक्षा में अपनी जिंदगी के बेहतरीन वर्षों को नष्ट क्यों करें। आवश्यकता इस बात की है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में जल्द से जल्द तदर्थ शिक्षकों को समायोजित किया जाए क्योंकि स्थायी नियुक्ति होने से प्रतिभा संपन्न शिक्षकों को आप विश्वविद्यालय में आकर्षित कर पाएंगे, उच्च शिक्षा में ऐसे शिक्षकों को समय पर स्थायी नियुक्ति मिलने से उनकी प्रतिभा का गुणवत्तापूर्ण शिक्षण के लिए भरपूर उपयोग हो पाएगा।

आवश्यकता इस बात की है कि इन तमाम बिंदुओं को ध्यान में रखकर दिल्ली विश्वविद्यालय में तुरंत हजारों रिक्त स्थायी पदों को भरने के लिए तदर्थ शिक्षकों को उचित रोस्टर के द्वारा एक कानून के जरिए समायोजित किया जाए और भविष्य में विश्वविद्यालय प्रशासन को सरकार की ओर से यह हिदायत दी जाए कि समय-समय पर नियमित नियुक्तियों की प्रक्रिया को पूरा किया जाए। यहां तक कि अवकाश ग्रहण करनेवाले शिक्षक के अवकाश के पूर्व उनकी जगह पर नयी नियुक्तियों के लिए विज्ञापन निकाला जाए और यथासमय स्थायी नियुक्तियां की जाएं ताकि दिल्ली विश्वविद्यालय से तदर्थवाद समाप्त हो जो एक नासूर बन चुका है। समायोजन के द्वारा तुरंत चिकित्सा की आवश्यकता है।

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