— गोपाल प्रधान —
वर्ष 2021 में भारत पुस्तक भंडार से प्रकाशित ‘बाइज़्ज़त बरी?: साज़िश के शिकार बेक़ुसूरों की दास्ताँ—‘ के लेखक मनीषा भल्ला और डॉ अलीमुल्लाह ख़ान हैं। किताब के शुरू में चार लोगों की टीपें भी शामिल की गयी हैं जिनमें मौलाना सैय्यद अरशद मदनी, मनोज झा और सैय्यद सादतुल्लाह हुसैनी के अतिरिक्त प्रोफेसर अपूर्वानंद भी शामिल हैं । ये टीपें न होतीं तो भी इस किताब का महत्त्व कम न होता। इसे हर हिन्दुस्तानी को अवश्य पढ़ना चाहिए।
किताब में उन नौजवानों की लोमहर्षक कहानियों को दर्ज किया गया है जिन्हें आतंकवादी होने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है और सबूतों के अभाव में छोड़ दिया जाता है। दस या इससे अधिक सालों तक पुलिस इन्हें जेल में कैद रखने में कामयाब रहती है। रिहाई के बाद भी इनकी जिंदगी कभी पटरी पर वापस नहीं लौटने पाती। उनके जीवन को बरबाद करने की सजा किसी को नहीं मिलती। इनमें अधिकतर नौजवान कश्मीरी हैं। इन सच्ची कहानियों को पढ़ते हुए हमारे शासनतंत्र की पोल परत दर परत खुलती जाती है। इन बेगुनाह नौजवानों का शिकार करने में पुलिस के साथ अदालतें और जेल प्रशासन भी बराबर शरीक रहता है। लोक मानस में पुलिस और अदालत की जो तस्वीर दर्ज है उसकी शिनाख्त के लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र की नये जमाने की मुकरी से पुलिस संबंधी मुकरी को देखना पर्याप्त होगा। थाना-कचहरी न जाने की आकांक्षा जनता के मन में अकारण नहीं बैठी हुई है। इन दोनों को एक करके समझना भी सच से बहुत दूर नहीं होता।
जमानत देने के प्रसंग में लगभग सभी अदालतें पुलिस की बात मान लेती हैं। जेल भेजने की जगह पुलिस की हिरासत में रहने देने के अनुरोध को खारिज करते भी कम ही सुना जाता है। असल सजा से पहले ही कैदी को सजा इसी तरह दे दी जाती है। अकारण नहीं कि पुलिस व्यवस्था पर बार बार सवाल उठते रहे हैं। पुलिस के जवान भी हमारे समाज से ही आते हैं इसलिए उन पर सामाजिक मान्यताओं का असर होना कतई अस्वाभाविक नहीं है। कोढ़ में खाज कि उनको मिले विशेषाधिकार उन्हें इन मान्यताओं के अनुरूप आचरण के लिए सुरक्षा कवच प्रदान करते हैं।
सभी जानते हैं कि पुलिस व्यवस्था प्रदेश सरकार के मातहत है इसलिए उम्मीद की जाती है कि जिस प्रदेश की जैसी सरकार होगी वहां की पुलिस के आचरण पर उसका असर होगा लेकिन पिछले एकाध दशक से भारत भर की पुलिस एक जैसा ही आचरण करने लगी है। इसका कारण पुलिस के बड़े अधिकारियों की चयन प्रक्रिया की केंद्रीय व्यवस्था में ही खोजना उचित नहीं होगा। समाज में पल रही ढेर सारी ऐसी मान्यताओं में इसके स्रोत निहित हैं जिनको कुछ हद तक अफवाह ही समझना होगा। जिस तरह अमरीका में नस्ली भेदभाव की राजकीय व्यवस्था का बड़ा स्रोत वहां की पुलिस का आचरण है उसी तरह हमारे देश में भी अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के साथ व्यवस्था द्वारा हिंसक भेदभाव की संगठित अभिव्यक्ति उनके साथ पुलिसिया व्यवहार से झलकती है। इस मामले में समूचे भारत की पुलिस का आचरण बेहद समान है। समता का दर्शन अब इस किस्म के अत्याचार में ही सम्भव रह गया है!
किताब से यह भी स्पष्ट होता है कि इस अत्याचार का एक साम्प्रदायिक पहलू भी है। फिर से अमरीका का ही उदाहरण लें तो जब भी उसने बाहरी मुल्कों में हस्तक्षेप किया तो उसके साथ ही घरेलू आबादी के साथ भी नस्ली भेदभाव बढ़ा। अपने देश के मामले में भी यही नजर आता है। पाकिस्तान के विरोध का साम्प्रदायिक पहलू किसी भी व्यक्ति को दिखायी देता है। इस विरोध को घरेलू मोर्चे पर बड़ी आसानी से उग्र मुस्लिम विरोध में बदल दिया जाता है।याद दिलाने की जरूरत न होगी कि पाकिस्तान विरोध का संयोजक अलग अलग पार्टियों के शासन को एकसाथ खड़ा कर देता है। इस शासकीय मुहिम का शिकार क्रिकेट जैसा अवैध धन पैदा करनेवाला खेल भी हो जाता है।
अल्पसंख्यक विरोध के इस खास पहलू से कश्मीर का मजबूत रिश्ता है। कश्मीर के साथ केंद्रीय सत्ता के व्यवहार में शासक पार्टियों के आपसी मतभेद के बावजूद बहुत लम्बे समय से गहरी समानता रही है। अचरज की बात नहीं कि जिन नौजवानों की दर्दनाक कहानियों को इस किताब में दर्ज किया गया है उनमें बहुतायत कश्मीरी नौजवानों की ही है।
यदि आप इस भ्रम में हों कि शेष भारत की तरह कश्मीर का मध्यवर्ग इस मारक भेदभाव से बच जाता होगा तो इस बात की कोई गुंजाइश इन कहानियों को पढ़ने के बाद नहीं रह जाती। कश्मीरी होने के साथ अगर आप मुसलमान हैं तो गारंटी है कि बिना किसी गलती के भी बम विस्फोट की किसी भी घटना में आपका हाथ खोज लिया जाएगा।
फिलहाल देश में कश्मीर का विस्तार हुआ है। पहले केवल कश्मीर के लोगों को नेटबंदी की व्यथा झेलनी पड़ती थी और इस चक्कर में विभिन्न परीक्षाओं और रिक्तियों की खबर वहां के लोगों को नहीं मिल पाती थी। नेटबंदी के अलाव भी अफ़जल गुरु की फांसी के प्रसंग में सारी दुनिया ने जाना कि कश्मीर में पोस्ट आफ़िस से सूचना भेजी जाती है जो कभी पहुंचती नहीं। हाल के दिनों में देश के अलग अलग हिस्सों को नेटबंदी का अनुभव हुआ। एकाध बार तो देश की राजधानी में भी इसे आजमाया गया। प्रदेश के अधिकारों के साथ छेड़छाड़ भी कश्मीर तक ही सीमित नहीं रही। केंद्र सरकार ने दिल्ली राज्य के मामले में भी इसी तरह का काम किया। इन सभी घटनाओं की तरह ही आतंकवाद के साथ रिश्ता जोड़ने के मामले में कश्मीरी के अतिरिक्त देश के अन्य हिस्सों के भी मुसलमान आसान निशाना बनाये गये। पूरी दुनिया में जारी इस्लाम विरोध के वातावरण से भी इस मुहिम को लाभ मिला। अकारण नहीं कि इजरायल से लेकर अमरीका तक के इस्लाम विरोध की खाद पर पनपे नेतागण हमारे देश के शासकों पर मेहरबान रहे ।
किताब में वर्णित अधिकतर मामलों का वर्तमान सरकार से बहुत कम संबंध है। लगभग सभी मामले यूपीए सरकार के समय के हैं। मनमोहन सिंह की सरकार ने देश में दक्षिणपंथ के उभार का अनुमान करके जिस तरह अफ़जल गुरु की फांसी से लेकर बाटला हाउस तक की गलतियों का तांता लगाया उसी विषवृक्ष के फल वर्तमान सरकार को पुष्ट कर रहे हैं। इस सिलसिले में यह भी याद दिलाने की जरूरत न होगी कि हाल फिलहाल ही नहीं, आधुनिक भारत के इतिहास के प्रत्येक नाजुक मोड़ पर शासक समुदाय में जो सर्वानुमति बनती रही है उसका अनिवार्य घटक दमनकारी कानून, पुलिस राज, दक्षिणपंथी आर्थिकी के साथ बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता भी रही है । किताब की कहानियों से इस सच की पुष्टि मजबूत तरीके से हो जाती है। इस अंधेरे समय में दमन के पैटर्न को सोदाहरण खोल देने के लिए लेखक निश्चय ही बधाई के पात्र हैं।
दिल दहला देनेवाली इन दास्तानों से सबित होता है कि सर्वानुमति केवल पुलिस बल तक सीमित नहीं रह गयी है, बल्कि उसका निर्लज्ज प्रसार न्यायपालिका तक भी हुआ है। बिना किसी ठोस सबूत के जेल की सलाखों के पीछे जिंदगी के दशाधिक साल गुजार देनेवाले बेगुनाहों के नुकसान की भरपाई की बात तक नहीं होती। उनको गलत तरीके से फंसानेवाले तंत्र पर काबिज लोगों को अपने अपराध की सजा का कोई खौफ़ नहीं रह गया है। इसीलिए शारीरिक से लेकर मानसिक और यौन यंत्रणा तक देना वे अपना विशेषाधिकार समझते हैं। इस मामले में अबू गरेब में दी गयी यंत्रणाओं को बहुतेरे प्रसंगों में दुहराया गया है। दुनिया के सबसे विकसित देश का अनुकरण हम कैसे न करें! दुर्भाग्य की सबसे बड़ी कहानियां जेलों से दर्ज की गयी हैं। जेल में बंद होने के बाद भी इन कैदियों को इस विषैले साम्प्रदायिक भेदभाव से मुक्ति नहीं मिलती, बल्कि कैदियों के हाथों भी इन्हें उत्पीड़न बर्दाश्त करना पड़ता है। इस तरह यह किताब जेल और जेल से बाहर के वातावरण की आपसदारी को खोलकर हमारी चेतना को झकझोरने का प्रयास करती है।
किताब : बाइज़्ज़त बरी? साज़िश के शिकार बेक़ुसूरों की दास्तां…
लेखक : मनीषा भल्ला और डॉ अलीमुल्लाह ख़ान
भारत पुस्तक भंडार, ई-1/265 ए, 4थी स्लोप, सोनिया विहार, नार्थ ईस्ट दिल्ली, नयी दिल्ली-110090, 295 रु.