— महीपाल सिंह —
भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की वर्तमान सरकार ने खुद को लोकतांत्रिक भारत के इतिहास की सबसे अक्षम सरकार के रूप में साबित किया है। 2016 में टीवी पर अचानक बड़े नोटों का चलन बंद करने की घोषणा स्वयं प्रधानमंत्री ने सिर्फ चार घंटे पहले की, जिसके लोगों को घंटों बैंकों के सामने लाइनों में खडे़ रहना पड़ा। सैकड़ों लोग इन लाइनों में खडे़-खड़े ही मर गये। सौ से ज्यादा बैंककर्मी काम के अत्यधिक बोझ, लगातार ओवरटाइम और बेतहाशा तनाव के कारण जान से हाथ धो बैठे। पैसे की कमी के कारण बडे़ पैमाने पर व्यवसायों को बंद कर दिया गया। परिणामस्वरूप करोड़ों लोगों की आजीविका प्रभावित हुई। बहुतों की नौकरियां चली गयीं, बहुतों के काम-धंधे चौपट हो गये। फिर भी बड़े नोटों का चलन बंद करने से गिनाये गये उद्देश्यों में से एक भी पूरा नहीं हुआ।
जीएसटी के दोषपूर्ण और अनियोजित कार्यान्वयन के कारण भी लाखों लोगों की नौकरियां चली गयीं। कोरोना महामारी आने पर भी देश को तैयार किये बिना जिस ढंग से अचानक लाॅकडाउन की घोषणा की गयी उसके कारण करोडों मजदूरों की रोजी-रोटी ही नहीं गयी बल्कि जो किराये के मकानों में रह रहे थे उन्हें किराया न दे पाने के कारण मकान भी खाली करने को मजबूर होना पड़ा। रेल बस सेवा बंद होने के कारण उन्हें महिलाओं और बच्चों के साथ सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर अपने गांवों की ओर पैदल ही पलायन करने को मजबूर होना पड़ा। रास्ते में उन्हें भूख, प्यास, बीमारी तथा मौत का सामना भी करना पड़ा। उनके लिए यह सब किसी त्रासदी से कम नहीं था।
ये सभी फैसले प्रधानमंत्री की सत्तावादी मानसिकता और पूरी तरह से अक्षमता को दर्शाते हैं। महामारी के दौरान भी स्वास्थ्य प्रणाली के भारी कुप्रबंधन तथा आक्सीजन की कमी के कारण लाखों लोगों की मौत हुई जिनमें से कई लाख की अमानवीय अंत्येष्टि की गयी। इन मामलों ने सरकार की उदासीनता और अक्षमता को उजागर किया। सरकार द्वारा संसद में यह स्वीकार करने से इनकार करने से कि वह संकट की स्थिति का उचित प्रबंधन तथा आक्सीजन की आपूर्ति सुनिश्चित करने में बुरी तरह विफल रही, वह अपनी कमियों को छिपाने में कामयाब तो नहीं हुई, उलटे उसने मरनेवालों के पीड़ित परिवार वालों, रिश्तेदारों और उनके मित्रों के घावों पर नमक छिड़कने का ही काम किया।
संसद द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों, जिन्हें वे किसान विरोधी मानते हैं, को वापिस लेने और अपनी उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग को लेकर पिछले नौ महीने से किसान दिल्ली की सीमाओं पर आंदोलन कर रहे हैं परंतु केवल अपने आप को ही सही माननेवाली मोदी सरकार ने अड़ियल रवैया अपनाते हुए उनकी एक नहीं सुनी जबकि इस आंदोलन के दौरान अत्यधिक ठंड और गर्मी तथा भारी वर्षा के कारण किसानों ने अपने छह सौ से अधिक साथियों को खो दिया है। प्रधानमंत्री सहित सरकार के किसी भी प्रतिनिधि ने उनकी मृत्यु पर कभी शोक व्यक्त नहीं किया जो उनकी संवेदनहीनता को ही दर्शाता है।
जजों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, विपक्षी राजनेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और यहाँ तक कि स्वयं अपने मंत्रियों सहित 300 से अधिक लोगों के मोबाइल पर 2017 में इजराइल की एक फर्म से खरीदे गये पेगासस नामक साफ्टवेयर से जासूसी करके सरकार ने निष्पक्षता एवं जनतांत्रिक मूल्यों के सभी मानदंडों को ध्वस्त कर दिया है जो एक जनतांत्रिक सरकार के रूप में इसकी अक्षमता को ही प्रकट करता है। उच्चतम न्यायालय में इस जासूसी से जुड़े तथ्यों को यह कहकर प्रकट करने से इनकार करने से कि यह मामला राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा हुआ है, इस स्वीकारोक्ति से कम नहीं है कि उसने अपने विरोधियों की जासूसी करने के लिए करोड़ों रुपये खर्च करके वह साफ्टवेयर खरीदा था।
इस सारे मामले की पोल न खुल जाए इस कारण से सरकार ने संसद का पूरा मानसून सत्र तो बर्बाद हो जाने दिया, परंतु वह एक निष्पक्ष जाँच के लिए तैयार नहीं हुई। यदि सरकार सचमुच उन लोगों को राष्ट्र के लिए खतरा मानती है जिनके फोनों की वह जासूसी कराना चाहती है तो वह उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं करती? एक ओर तो पेगासस मामले में सरकार का स्थिति को स्पष्ट न करना, और दूसरी ओर उन लोगों के विरुद्ध कोई कार्रवाई न करना जिन्हें वह राष्ट्र के लिए खतरा मानती है, सरकार की अक्षमता को ही उजागर करता है।
जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता हे तो उसे अपराधी कहा जाता है। अगर वही काम सरकार अपने देश की जनता के नागरिक अधिकारों का हनन करके करती है तो उसे अपराधी के सिवाय और क्या कहा जा सकता है? पहले ही हमारी संसद और विधानसभाएं आपराधिक पृष्ठभूमि वाले तत्त्वों से भरी पड़ी हैं तो ऐसे में उनसे यह उम्मीद भी कैसे लगायी जाए कि वे अपना दायित्व निभाते हुए कार्यपालिका पर नियंत्रण रख सकेंगी? आपराधिक तत्त्वों को टिकट देकर राजनैतिक दल जनता को जाति, धर्म में बाँटकर तथा बाहुबल एवं धनबल का प्रयोग करके उन्हें जिता लाते हैं जिसके कारण विधायिका का उन्हें कोई डर नहीं होता और सरकार में बैठे लोग निरंकुश हो जाते हैं। यह देश में लोकतांत्रिक शासन की विफलता है।
पेट्रोल और डीजल की कीमतों में, 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही, यह सरकार वृद्धि करती आ रही है जिसके कारण आज उनकी कीमतें लगभग दोगुनी हो गयी हैं जबकि आयात होनेवाले क्रूड तेल की कीमतें आधी से भी कम रह गई हैं। परिणामस्वरूप पेट्रोल की कीमत रु 100 रुपए के पार पहुंच गयी है और डीजल का मूल्य रु 100 के करीब पहुंच गया है। यह बढ़त इसलिए नहीं हो रही है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि हो रही है बल्कि इसलिए कि इन पर सरकार द्वारा विशेष और अतिरिक्त उत्पाद शुल्क लगाया गया है और जिसे लगातार बढ़ाया जाता है।
इस तथाकथित ‘विशेष और अतिरिक्त उत्पाद शुल्क’ से केन्द्रीय सरकार को तो लाखों करोड़ रुपये की आमदनी होती है परंतु माल की ढुलाई की कीमतों में बढ़ोतरी होने के कारण सभी चीजों की कीमतों में भारी बढ़ोतरी हो गयी है जिससे आम जनता का जीवन बहुत कठिन हो गया है। इस पर घरेलू रसोई गैस की कीमतों में बेहताशा बढ़ोतरी ने एक सिलेंडर की कीमत को रु 859 के पार पहुँचा दिया है। मोदी शासन में हुई इस दुगुनी वृद्धि ने गृहणियों की मुसीबतें और बढ़ा दी हैं और गरीब आदमी का जीना मुश्किल हो गया है।
सरकार के प्रतिनिधि इस सारी मूल्य वृद्धि के लिए पहले तो यूपीए सरकार के समय जारी किये गये तेल बाण्डों को जिम्मेदार ठहराते हैं, फिर कोरोनाकाल में किये जानेवाले अतिरिक्त खर्चों के लिए अतिरिक्त धन की आवश्यकता को। वे यह नहीं बताते हैं कि पेट्रोलियम पदार्थों में एक दो रु की मूल्यवृद्धि से ही तेल बाण्डों के कर्ज को एकमुश्त अदा किया जा सकता है। जहाँ तक कारोनाकाल में किये जानेवाले अतिरिक्त खर्चों का प्रश्न है, तो वे भी इस अतिरिक्त आमदनी के बहुत छोटे अंश से पूरे किये जा सकते हैं। आनेवाले समय में भी सरकार इस टैक्स में कोई कटौती करने से यह कहकर इनकार करती है कि सरकार को इस पैसे की आवश्यकता अपने सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों तथा विकास कार्यों के लिए बनी रहेगी। सरकार यह परवाह नहीं करती कि उसके इस विकास के नाम पर की जा रही उगाही के कारण गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों की पीड़ा कितनी बढ़ जाती है।
सरकार ने ‘विशेष और अतिरिक्त उत्पाद शुल्क’ से अपनी आमदनी को तो लाखों करोड़ रु. बढ़ा लिया है परंतु इसमें से राज्यों को मिलनेवाले हिस्से में कोई बढ़ोतरी नहीं की है। इस तरह केन्द्र सरकार राज्यों को मिलनेवाले हिस्से को भी डकार रही है ताकि वह चुनाव के समय जनता को यह कह सके कि राज्यों की अन्य दलों की सरकारों ने विकास का काम नहीं किया है। इस प्रकार भाजपा की सरकार ‘विशेष और अतिरिक्त उत्पाद शुल्क’ से मिलनेवाले धन से देश का नहीं बल्कि अपना राजनैतिक हित साधना चाहती है। जनता और राज्य सरकारों को इससे होनेवाली कठिनाइयों से उसका कोई सरोकार नहीं है।
यह भी सर्वविदित है कि सरकार अपने विरोधियों के विरुद्ध सीबीआई जैसी केन्द्रीय एजेंसियों का प्रयोग मनमाने तथा गैरलोकतांत्रिक तरीके से करती है और ये एजेंसियां भी, जैसा कि मई 2013 में उच्चतम न्यायालय ने कहा था, ‘पिंजरे में बंद तोते’ की भाँति अपने मालिक की रटाई हुई भाषा बोलती हैं और सरकार इनका उपयोग अपने राजनैतिक उद्देश्यों के लिए करती है। यही कारण है कि इन एजेंसियों को सरकार के प्रशासनिक नियंत्रण से मुक्त करने तथा स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से कार्य करने में सक्षम बनाने के उद्देश्य से मद्रास उच्च न्यायालय ने 18 अगस्त 2021 को सरकार से सीबीआई को वैधानिक दर्जा देने के लिए आवश्यक कानून बनाने के लिए कहा। यह सरकार और उसकी एक महत्त्वपूर्ण एजेंसी की विफलता को उजागर करता है।
यह स्पष्ट है कि सरकार अथवा कार्यपालिका न तो अपना कार्य जिम्मेदारी से कर रही है और न ही सरकार के अंतर्गत आनेवाले विभाग। यह भी देखने में आया है कि सरकार चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं और यहाँ तक कि विभिन्न हथकंडे अपनाकर न्यायपालिका तक को प्रभावित करने की कोशिश करती रहती है जिसके कारण न्यायपालिका भी अपना काम स्वतंत्र रूप से नहीं कर पाती है। जब राज्य के सभी अंग ठीक से काम नहीं कर रहे हों तो उसे एक विफल राज्य ही कहा जा सकता है। यह देखते हुए कि इस सरकार ने सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को बर्बाद कर दिया है, यह कहना कठिन है कि लोकतांत्रिक शासन के प्रधानमंत्री के सर्वोच्च पद की गरिमा कभी लौटेगी भी अथवा नहीं।