— विमल कुमार —
आज लोकनायक जयप्रकाश नारायण की 119वीं जयंती है। अब देश और समाज में उनको लेकर अधिक दिलचस्पी दिखाई नहीं देती, अलबत्ता उनकेकुछ शिष्य जो सत्ता में हैं वे गाहे–बगाहे रस्म अदायगी में अपने भाषणों में नाम ले लेते हैं और उनकी मूर्तियों या फोटो पर फूल मालाएं चढ़ा लेते हैं। लेकिन जेपी के मूल्यों और सपनों का क्या हुआ इसपर चर्चा वे नहीं करते और हम लोग भी नहीं करते। क्या जयप्रकाश नारायण अब अप्रासंगिक हो गए हैं या भुला दिये गये, या उनका जितना इस्तेमाल करना चाहिए था, उनके शिष्यों ने कर लिया, अब इस देश और समाज को जेपी की जरूरत नहीं रही!
जेपी को गुजरे 41 साल हो गये और अब नयी आर्थिक नीति के बाद भूमंडलीकरण और बाजार ने पूरे देश को बदल दिया। गांधी के बारे में भी कई बार ऐसा लगता है। हम बार-बार कहते हैं कि गांधी जिंदा हैं, वे मर नहीं सकते, और अब तो हर साल सोशल मीडिया पर गांधी की हत्या की जाती है। शुक्र है अभी जयप्रकाश बचे हैं उनकी इस तरह ट्वीटर पर हत्या या मॉब लिंचिंग नहीं की जा रही है।
लेकिन जेपी के विचारों और सपनों की रोज हत्या की जा रही है। बिहार में हम कई सालों से देख चुके चाहे लालू जी का शासनकाल रहा हो या नीतीश कुमार का शासनकाल हो या फिर केंद्र में मोदी का शासनकाल हो जबकि ये लोग जेपी आंदोलन से निकले थे। जेपी ने जिन मूल्यों के लिए आजीवन लड़ाई लड़ी उनके सभी शिष्य उनके विरुद्ध काम करते रहे।
जेपी ने कभी सत्ता की राजनीति नहीं की, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी, सादगीपूर्ण जीवन जिया, धन संचय नहीं किया और जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की हमेशा रक्षा की, लेकिन उनके शिष्यों ने उलटा काम किया। वे नाम तो जेपी का लेते रहे पर काम उसके विरुद्ध करते रहे। गांधी के अनुयायियों ने भी यही किया।
आज देश एक अघोषित आपातकाल के दौर से गुजर रहा है। एक नयी तानाशाही दिखाई पड़ रही है। कई बार तो लगता है इंदिरा गांधी की तानाशाही से अधिक बुरी हालत में हम जी रहे हैं। तब क्या आज एक और जेपी की जरूरत नहीं! एक और गांधी की जरूरत नहीं!
जेपी को आज नयी पीढ़ी नहीं जानती। मुझे तो यह भी लगता है कि जो राजनीतिज्ञ जेपी का शिष्य खुद को बताते हैं वे भी जेपी को अच्छी तरह नहीं जानते। जेपी की साफगोई और बेबाकी तथा उनके साहस को नहीं जानते। जो व्यक्ति अपनी असहमति गांधी, राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू जी के साथ व्यक्त कर सकता है उन्हें इस बारे में लंबे और कड़े पत्र लिख सकता है, उसे कौन झुका सकता है और कौन खरीद सकता है।
जेपी को जानने के लिए नयी पीढ़ी को उनके जीवन के बारे में जानना जरूरी है। आजादी की लड़ाई के इतिहास में जिन लोगों का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा गया उनमें एक जयप्रकाश नारायण भी थे जो अंधेरे में एक प्रकाश की तरह आजीवन चमकते रहे। बिहार और उत्तरप्रदेश की सीमा पर लगे गांव सिताबदियारा में विजयादशमी के दिन 11 अक्टूबर 1902 को हरसू दयाल के पुत्र के रूप में जन्मे ‘बउल’ के बारे में तब कौन जानता था कि यह शख्स राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, पंडित जवाहरलाल नेहरू और आंबेडकर की तरह इतिहास में अमर हो जाएगा। ‘बउल’ उनका पुकार-नाम था क्योंकि चार साल तक उनके दांत नहीं निकले और बिना दांत वाले बच्चे को ‘बउल’ ही कहा जाता है। बउल से जयप्रकाश और जयप्रकाश से जेपी और जेपी से लोकनायक जयप्रकाश नारायण बनने की कथा कम दिलचस्प नहीं है।
महात्मा गांधी के बाद अगर भारतीय राजनीति में सबसे अधिक रचनात्मक प्रयोग किसी ने किया तो वह जयप्रकाश नारायण ही थे। आजादी की लड़ाई में कई बार जेल जानेवाले जेपी आजादी के बाद जनता के अधिकारों और लोकशाही के लिए लड़ते रहे और एक सच्चे देशभक्त की तरह देश के विकास और समाज मे बदलाव के लिए संघर्षरत रहे।
पटना कॉलेजिएट से मैट्रिक करनेवाले जेपी सरस्वती, प्रताप, मर्यादा और प्रभा जैसी पत्रिकाएं बचपन से पढ़ते रहे जिससे उनके भीतर साहित्य प्रेम और राष्ट्रभक्ति की भावना प्रबल हुई। हिंदी के कई लेखकों से उनका गहरा सम्बन्ध था जिनमें आचार्य शिवपूजन सहाय, बेनीपुरी, दिनकर, रेणुजी, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, लक्ष्मीनारायण लाल आदि शामिल हैं। बेनीपुरी ने तो 1946 में जेपी की पहली जीवनी लिखी तब जेपी 44 साल के ही थे और बेनीपुरी उनसे दो साल बड़े थे। लक्ष्मीनारायण लाल ने भी सत्तर के दशक में उनकी जीवनी लिखी।
1920 में गांधीजी जब एक सभा को संबोधित करने पटना आए तो जेपी ने पहली बार उन्हें देखा। इससे पहले चंपारण आंदोलन में गांधीजी की ऐतिहासिक भूमिका से जेपी परिचित थे।
1921 में मौलाना आजाद के भाषण से प्रेरित होकर जेपी ने पटना कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर गांधीजी द्वारा स्थापित बिहार विद्यापीठ से आईएससी की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की।
इस बीच 1920 में 18 वर्ष की उम्र में उनकी शादी ब्रजकिशोर प्रसाद की पुत्री प्रभावती से हो गयी जो बिहार के प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता एवं वकील थे और चंपारण आंदोलन में गांधीजी के सहयोगी थे। वे बिहार विधान परिषद के सदस्य भी रह चुके थे तथा बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष भी।
इस विवाह के कारण जेपी की निकटता गांधीजी से बढ़ी क्योंकि शादी के बाद प्रभावती को गांधीजी ने अपने आश्रम में अपनी पुत्री की तरह रख लिया। इस बीच 16 मई 1922 को वह आगे की पढ़ाई के लिए जहाज से अमरीका चले गये। 8 अक्टूबर 1922 को वे सैन फ्रांसिको पहुंचे। उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वद्यालय में विज्ञान में दाखिला लिया और अपनी आजीविका के लिए होटल-रेस्तरां में बर्तन धोने के अलावा बागानों और कारखानों में भी काम किया।
कैलिफोर्निया विश्वद्यालय की फीस बहुत बढ़ने से वे आयोवा विश्वद्यालय चले गये जहां फीस एक चौथाई कम थी। 1923 से 1924 तक दो सत्रों में पढ़ाई के बाद वे विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय चले गये। आयोवा में ही वे जेपी के नाम से मशहूर हुए। विस्कॉन्सिन में वे मार्क्सवाद से गहरे प्रभावित हुए और कट्टर मार्क्सवादी बनकर 1929 के नवम्बर में भारत लौटे। भारत लौटने पर जेपी की पहली मुलाकात गांधीजी से वर्धा में हुई। यहीं जवाहरलाल नेहरू से उनकी पहली भेंट हुई और आजीवन मित्रता बनी रही हालांकि कई मुद्दों पर वह नेहरू से असहमत भी रहे।
जब जेपी अमरीका में थे तभी प्रभावती ने ब्रह्मचर्य का फैसला ले लिया। इस मुद्दे पर जेपी और गांधीजी में पत्रचार भी हुआ क्योंकि जेपी इसके पक्ष में नहीं थे लेकिन बाद में उन्होंने प्रभावती के निर्णय का सम्मान किया और अंत समय तक आदर्श दम्पति की तरह रहे। गांधी और कस्तूरबा की तरह जेपी और प्रभावती ने आजादी की लड़ाई में ऐतिहासिक भूमिका निभायी।
1930 में नेहरू जी के प्रस्ताव पर इलाहाबाद में कांग्रेस के मजदूर प्रकोष्ठ की जिम्मेदारी उन्होंने सँभाली और बाद में वह आनंद भवन में रहने भी लगे।
आजादी की लड़ाई में उनकी पहली गिरफ्तारी मद्रास में 1932 में हुई। वहां से वह मुंबई के आर्थर रोड जेल ले जाए गये। वहां से नासिक रोड के सेंट्रल जेल में भेज दिये गये। इससे पहले फरवरी में ही प्रभावती को गिरफ्तार कर लखनऊ जेल भेज दिया गया था।
1933 में जेपी नासिक जेल से छूटे। इसी जेल में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन की बात हुई और 1934 में 17 मई को पटना के अंजुमन इस्लामिया हाल में समाजवादियों का पहला सम्मेलन आचार्य नरेंद्रदेव की अध्यक्षता में हुआ और कांग्रेस समाजवादी पार्टी का गठन हुआ। जेपी संगठन मंत्री नियुक्त हुए।बाद में वह इस पार्टी के महासचिव भी बनाये गये।
18 फरवरी 1940 को जेपी जमशेदपुर में भाषण देने पर गिरफ्तार कर लिये गये और 1940 के अंत मे रिहा कर दिये गये। फिर 23 अप्रैल 1941 को मुम्बई में गिरफ्तार कर राजस्थान के देवली कैम्प में भेज दिये गये। वहां से वह हजारीबाग जेल भेज दिये गये। इस जेल में रामवृक्ष बेनीपुरी, रामानंद तिवारी, जगदीश भाई, योगेंद्र शुक्ल, रामनंदन मिश्र, सूरज नारायण सिंह आदि बन्द थे। दिवाली के दिन जेपी के जेल से भागने की योजना बेनीपुरी ने बनायी और जेपी समेत 6 कैदी आधी रात जेल से भाग गये। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें पकड़ने ले लिए 5 हजार और जेपी को पकड़ने के लिए दस हजार रुपये का इनाम रखा जो उस जमाने के लिए बहुत बड़ी रकम थी।
जेपी भूमिगत होकर इधर उधर छिपते रहे पर 18 सितम्बर 1943 को अमृतसर स्टेशन पर गिरफ्तार कर लाहौर किला जेल में भेज दिये गये। यहाँ उनपर बहुत अत्याचार हुआ और वे आगरा जेल में भेज दिये गये। उस जेल में लोहिया भी बंद थे। 11 मई 1946 को 31 माह के बाद जेपी जेल से रिहा हुए। 21 अप्रैल को स्टीमर से वह गंगा नदी के रास्ते पटना पहुंचे और गांधी मैदान में उनका भव्य स्वागत किया गया जहां दिनकर ने उनपर लिखी कविता का पाठ किया। जेपी को सोलह हजार की थैली भेंट की गयी। स्वागत के लिए 42 द्वार बनाये गये थे।
देश को आजादी तो मिली लेकिन जेपी गांधी आदि की तरह विभाजन के विरोधी थे और साम्प्रदायिक दंगों से अत्यंत क्षुब्ध थे। वे 46 में बिहार में हुए दंगे को रोकने के लिए गांव-गांव गये।
जेपी कभी सत्ता की ओर आकृष्ट नहीं हुए। नेहरू जी उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल कर उपप्रधानमंत्री बनाना चाहते थे लेकिन जेपी ने मना कर दिया। 1952 के चुनाव में खड़े होने से मना कर दिया। आचार्य नरेंद्रदेव और लोहिया संसदीय राजनीति के लिए चुनाव लड़ते रहे लेकिन जेपी ने जनता के बीच रहकर काम करना पसंद किया। उन्होंने बाद में सक्रिय राजनीति से संन्यास भी ले लिया और रचनात्मक कार्यों से जुड़ गये। उन्होंने शेखोदेवरा आश्रम बनाया, सर्वोदय में हिस्सा लिया। विनोबा भावे के साथ भूदान में भाग लिया। मुसहरी में नक्सलियों को सुधारने का प्रयोग किया तो 1971 में चंबल के डाकुओं को आत्मसमर्पण करवाने का काम किया।
1974 के छात्र आंदोलन का नेतृत्व कर सम्पूर्ण क्रांति का शंखनाद किया और जीवन भर त्याग- तपस्या कर समाज और देश को दिया। इस कार्य के लिए उन्होंने अपना जीवन दान कर दिया यद्यपि सम्पूर्ण क्रांति का उनका सपना पूरा नहीं हुआ पर आपातकाल का जमकर विरोध किया। 25 जून को इमरजेंसी लगी। आजाद भारत में 29 जून को सुबह चार बजे दिल्ली में गांधी शान्ति प्रतिष्ठान से गिरफ्तार कर वे जेल भेज दिये गये।
इससे पहले 15 अप्रैल 1973 को प्रभावती जी कैंसर के कारण चल बसीं। दिनकर के शब्दों में जेपी अनाथ हो गये। लेकिन वे रुके नहीं और देश भर में छात्रों के आंदोलन को नयी दिशा दी और इंदिरा गांधी की तानाशाही का विरोध कर उन्हें सत्ता से उखाड़ दिया। 9 अप्रैल को पटना के गांधी मैदान में उन्हें लोकनायक की उपाधि दी गयी और वे लोकनायक जयप्रकाश नारायण बन गये। 4 नवम्बर को उनपर पटना में इनकम टैक्स चौराहे पर लाठी से प्रहार भी किया गया जो लोकतंत्र पर प्रहार कहा गया।
आपातकाल के बाद 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी पर तब जेपी अधिक अस्वस्थ रहने लगे। मुम्बई के जसलोक अस्पताल में उनकी डायलिसिस होने लगी। वे मधुमेह के भी रोगी थे और 8 अक्टूबर 1979 को वे महा प्रयाण कर चले गये। इस तरह लोकतंत्र का एक प्रहरी, भारतीय राजनीति का एक सितारा और स्वप्नदर्शी हमेशा के लिए चला गया।
जेपी चाहते तो आलीशान बंगले में रह सकते थे, उनके पिता के पास सौ एकड़ से अधिक जमीन थी। जेपी ने तो अपने इलाज के लिए सरकारी मदद भी ठुकरा दी। जीवन भर सादगी से रहे। प्रधानमंत्री बनने के बाद नेहरू जी को भी सादगी के साथ रहने की सलाह दी। आज तो सेंट्रल विस्टा पर तीस हजार करोड़ खर्च हो रहे। जेपी रहते तो इसका विरोध करते। जेपी जीवन भर कदमकुआं के मकान में रहे जो महिला चरखा समिति का दफ्तर था। लेकिन उनके शिष्यों के पास तो कई कोठियां हैं, बड़ी-बड़ी गाड़ियां हैं। ऐशो-आराम की जिंदगी है। गांधी की तरह जेपी ने कोई संपत्ति नहीं बनायी।
वे बेबाक इतने थे कि गांधी की हत्या पर पटेल का इस्तीफा ही नहीं सरकार का इस्तीफा भी मांगा। संविधान सभा बनी तो नयी संविधान सभा की मांग की क्योंकि उन्हें यह संविधान सभा जनता की आशाओं के अनुरूप नहीं लगी।
50 के दशक में बिहार में छात्रों पर गोली चली तो जेपी ने नेहरू की तीखी निंदा की और दोनों में इस मुद्दे पर जमकर पत्रचार हुआ। जेपी ने नेहरू को खरी-खोटी सुनायी। लेकिन व्यक्तिगत रंजिश नहीं रखी। लोहिया से उनके वैचारिक मतभेद रहे कटुताएँ रहीं और उनकी बोलचाल तक बन्द रही पर लोहिया की मृत्यु पर जेपी रोये भी। अस्पताल में उनकी देखभाल भी की जबकि लोहिया ने जेपी पर कायस्थ शिरोमणि होने का आरोप तक लगाया। जेपी ने जो कुछ किया देश को बचाने और जनता को उसके दुखों से मुक्त कराने के लिए।
जेपी पर यह भी आरोप लगे कि उन्होंने संघ परिवार को साथ लेकर उन्हें वैधता प्रदान की जो बाद में भस्मासुर बन गया लेकिन वह एक ऐतिहासिक मजबूरी थी। इंदिरा गांधी को हटाने के लिए उनका साथ लेना पड़ा क्योंकि तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इंदिरा के साथ थी। आज इन बातों के लिए जेपी की आलोचना करना आसान है पर जेपी होना मुश्किल है।