— आनंद कुमार —
भारत में समाजवाद के प्रथम शिक्षक आचार्य नरेन्द्रदेव के अनुसार मानव समाज शुभ और अशुभ के ताने-बाने से रचा जाता है और शुभ की शक्तियों को प्रबल करना समाजवादियों का कर्तव्य है। क्योंकि शुभ से समाज में मैत्री की बुनियाद मजबूत होती है। इसके लिए समाज में विचार-विमर्श, संगठन और कार्यक्रमों के जरिये सहमना स्त्री-पुरुषों के लगातार सक्रिय रहने की जरूरत होती है। अन्यथा एकता और अनेकता के बीच लुका-छिपी चलती रहती है। स्वतंत्रता, सत्य, अस्मिता, न्याय, समता, बंधुत्व और प्रगति– इन सात खूबियों का पलड़ा भारी होने पर एकता निखरती है। सहयोग, लगाव और आकर्षण बढ़ता है। परतंत्रता, असत्य, अन्याय, विषमता, अशांति, भेदभाव, और अवनति– इन सात दोषों का विस्तार होने पर अनेकता फैलती है। भय, द्वेष और बिखराव के भाव प्रबल हो जाते हैं। किसका पलड़ा कब भारी हो जाएगा? यह परिस्थिति की समझ और उससे प्रेरित आचरण से जुड़ा पाया गया है।
सरोकारी जनों के सवालों का महत्त्व
हर समाज में सरोकारी और उदासीन लोग होते हैं और सरोकारी स्त्री-पुरुष ही देश-काल-पात्र के त्रिकोण के अंतर्गत पूरे समाज की समझ बनाते है। इससे प्रचलित मूल्यों, आदर्शों और आचरण के प्रतिमानों में निरंतरता और परिवर्तन का आधार बनता है। इसमें देश-दुनिया के परिवेश की भी अपनी भूमिका होती है। लेकिन बिना सरोकारी व्यक्तियों की बहुतायत के स्वराज, लोकतंत्र और समाजवादी समाज रचना में से कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं हो पाया है।
दूसरी तरफ, समाज-परिवर्तन के किसी भी प्रयास के बारे में यह प्रश्न स्वाभाविक होता है कि समाज में क्या प्रवृत्तियां होती हैं? इसमें से उचित को बढ़ाने और अनुचित को निर्मूल करने का क्या रास्ता है? समाज सही रास्ते को कैसे जाने और अपनाए? इसके लिए आज का ‘युगधर्म’ क्या है ? समाजवादियों के संगठन, अभियान या आन्दोलन का क्या मकसद है? अबतक क्या हासिल हुआ? प्रगति या अवनति! बहुजन-हिताय बहुजन-सुखाय या किसी वर्ग-जाति-भाषा-धर्म-क्षेत्र मात्र का हित और शेष समाज की उपेक्षा? हर व्यक्ति-समूह-समुदाय के मन में चिंता होती है कि ‘इसमें हमारी क्या भूमिका है? क्या लाभ-हानि हो रही है?’ इसी समझ के आधार पर पक्ष-विपक्ष और सक्रियता-निष्क्रियता-उदासीनता के रुझान पैदा हो जाते हैं। इसी में से‘मन्थरावाद’ उगता है– ‘कोई नृप होय, हमें का हानी।’ सही समझ से बनी चेतना की कोख से ही युगांतरकारी आन्दोलन जनमते और फैलते हैं।
इसीलिए हमें हमेशा सवाल करने चाहिए और सवालों का स्वागत करना चाहिए। राग-दरबारी से दूर रहना चाहिए और अपनी दृष्टि के आधार पर राय रखनी चाहिए। अपने से असहमत के साथ संवाद की आदत बनानी चाहिए। वस्तुत: मानव ज्ञान विमर्श में असुविधाजनक प्रश्नों और उनके इर्द-गिर्द संवाद का मौलिक महत्त्व है। आलोचना एक जरूरी कौशल है। बिना सही सवालों के हम सही उत्तर नहीं पा सकते।
राम, कृष्ण, भीष्म, द्रौपदी, नचिकेता, बुद्ध, महावीर से लेकर शंकराचार्य, कबीर, नानक, अकबर, अक्क महादेवी, रामकृष्ण परमहंस, गांधी, आंबेडकर,लोहिया, जयप्रकाश नारायण और दलाई लामा ने इस परम्परा को संरक्षण दिया है। इसे शास्त्रार्थ और बहस के रूप में सम्मान मिला है। दूसरी तरफ प्रश्नों पर आक्रोशित होना अस्वाभाविक नहीं है। इसकी भी एक परम्परा है। रावण, कंस, दुर्योधन, शशांक और औरंगजेब से लेकर मैकाले, हिटलर,चर्चिल, स्टालिन, माओ, सावरकर और इंदिरा गांधी इस दूसरी प्रवृत्ति के प्रतीक रहे हैं।
‘यक्ष-प्रश्न’ की परम्परा
शुभ की प्रबलता के लिए ‘यक्ष प्रश्न’ की कथा को याद रखना चाहिए। यह कथा महाभारत के ‘वन-पर्व’ से जुड़ी है। इस प्रसंग को बार-बार स्मरण करना समाज-विमर्श में विचार-प्रवाह बनाये रखने की एक शर्त है। निरंतर प्रश्न करने और उत्तर ढूँढ़ने की बौद्धिक आवश्यकता का द्योतक है। यह भी याद रखना जरूरी है कि हर दौर के विशिष्ट ‘यक्ष प्रश्न’ होते हैं।
महाभारत काल में कौरवों से जुए में हारने के कारण पांडव अपमानित और सत्ता-वंचित हो गये थे। जुए की शर्त के अनुसार उन्हें बनवास में जाना पड़ा। बारह बरस के बनवास को पूरा करके एक बरस के अज्ञातवास को शुरू करने के पहले प्यास से विह्वल पांडवों को पानी की तलाश थी। एक सरोवर मिला। लेकिन वहां एक यक्ष ने पांडवों को रोक कर अपने प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर देने पर ही पानी पीने की अनुमति की शर्त रखी। इन प्रश्नों में ‘जीवन का उद्देश्य क्या है?’, ‘जन्म का क्या कारण है?’, ‘न्याय क्या है?’, ‘सुख-शांति का रहस्य क्या है?’, ‘सौभाग्य और दुर्भाग्य के क्या कारण हैं?’, ‘बुद्धिमान कौन है?’, ‘मुक्त कौन है?’, ‘भूमि से भारी क्या है?’, ‘आकाश से ऊंचा क्या है?’ आदि शामिल थे। इन सनातन प्रश्नों का गलत जवाब देने पर मृत्यु निश्चित थी और गलत जवाब देने के कारण चार पांडव मर भी गये।
अंत में धर्मराज युधिष्ठिर ने ससम्मान सभी 125 प्रश्नों का उचित उत्तर देकर यक्ष के रूप में पांडवों के विवेक की परीक्षा ले रहे यमराज को संतुष्ट किया। इससे उनके मर चुके चारों भाइयों को पुनर्जीवन मिला। सभी ने अपनी प्यास बुझायी और न्याययुद्ध में विजयी होने का यमराज से आशीर्वाद पाया। यक्ष और युधिष्ठिर के इस कालजयी संवाद का अंतिम प्रश्नोत्तर देना अप्रासंगिक नहीं होगा :
यक्ष – संसार में परम आश्चर्य की बात क्या है?
युधिष्ठिर – प्रतिदिन अनेकों लोगों की मृत्यु होती है फिर भी मनुष्य की अमर होने की इच्छा सबसे बड़े आश्चर्य की बात है।
समाजवादी आन्दोलन के कुछ ‘यक्ष-प्रश्न’
1934 से अबतक के नौ रोमांचक दशकों तक प्रवहमान समाजवादी परम्परा के अपने यक्ष प्रश्न हैं। इनमें से कुछ की पुनरावृत्ति हर 17 मई को मनाये जानेवाले ‘समाजवादी आंदोलन का स्थापना दिवस’ के आयोजनों में होती है। इन प्रश्नों को समाजवादी आन्दोलन के महानायकों, विशेषकर नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, यूसुफ मेहरअली, एस.एम. जोशी, मधु लिमये, मधु दंडवते, सुरेन्द्र मोहन, किशन पटनायक, सच्चिदानंद सिन्हा आदि द्वारा भी अपने लेखन में पहचाना और सुलझाया गया है।
इनमें से कुछ नीतिगत प्रश्न हैं। जैसे : समाजवाद क्यों? समाजवादी समाज की रचना के कौन से मुख्य वाहन और उपकरण हैं? समाजवाद किसे और क्यों चाहिए– किसान, खेतिहर मजदूर, कारखाना मजदूर, छोटी पूंजी के व्यवसायी और उद्योगपति, मध्यमवर्ग, और बुद्धिजीवी…? समाजवादी आंदोलन में हिंसा और सत्याग्रह का क्या महत्त्व है? वर्ग, जाति, लिंगभेद, भाषा, धर्म, संस्कृति और प्रकृति के बारे में समाजवादियों की क्या नीतियां हैं? दुनिया के प्रमुख धर्मों और धर्म-ग्रंथों के बारे में समाजवादियों की क्या दृष्टि है? राष्ट्रीयता, अंतरराष्ट्रीयता और समाजवाद में क्या संबंध है? समाजवादी समाज की रचना में श्रम, पूंजी, टेक्नोलॉजी, बाजार, राज्य और विश्व-व्यवस्था की क्या भूमिका होती है? मार्क्स, गांधी और समाजवाद का क्या संबंध रहा है? समाजवादियों, साम्यवादियों, संप्रदायवादियों और सर्वोदय मार्गियों के बीच क्या अंतर्विरोध हैं? मार्क्स के कम्युनिस्ट घोषणापत्र (1848), गांधी के हिन्द-स्वराज (1909), आम्बेडकर की ‘जाति-विनाश नीति’ (1936),लोहिया की सप्त-क्रांति (1960) और जयप्रकाश की सम्पूर्ण क्रांति (1975) में क्या संबंध है?
कुछ सवाल हमारे ताजा इतिहास से जुड़े हैं। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में समाजवादियों का क्या योगदान रहा है? दलित विमर्श, आदिवासी आंदोलनों, महिला आंदोलनों और सांप्रदायिक सद्भाव की दिशा में समाजवादियों की क्या भूमिका रही है? यूरोप की औद्योगिक क्रांति, फ्रेंच क्रांति (1789), भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन (1857-1947), रूसी क्रांति (1917), चीनी क्रांति (1949) और लैटिन अमरीकी-अफ्रीकी देशों के मुक्ति आंदोलनों के बारे में समाजवादियों की क्या दृष्टि है? गांधी, नेहरू, भगतसिंह, जिन्ना, सुभाष बोस, आंबेडकर, और सावरकर के बारे में समाजवादियों का क्या दृष्टिकोण था? अंग्रेजों द्वारा भारत-विभाजन के फैसले की बाबत क्या भूमिका थी? भारतीय संविधान के निर्माण से समाजवादी क्यों अलग रहे? समाजवादियों ने गांधी-हत्या के बाद कांग्रेस क्यों छोड़ी? समाजवादियों में 1948 और 1974 के बीच हुई टूटन के क्या कारण थे? ‘वोट-फावड़ा-जेल’ की त्रिवेणी में श्रद्धा के बावजूद 1977 के बाद संसदवाद अर्थात जन-संगठन निर्माण और जन-आन्दोलन की बजाय चुनावी राजनीति कैसे मुख्य सरोकार बन गयी? डॉ. लोहिया की ‘गैरकांग्रेसवाद’ की रणनीति (1963-’67) का क्या कारण और परिणाम था? लोकनायक जयप्रकाश के ‘सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन’ (1974-‘79) का क्या नतीजा निकला? ‘सामाजिक न्याय’ आन्दोलन (1989- ‘92) का क्या प्रभाव हुआ है? भारत में 1992-2021 के बीच वैश्वीकरण-निजीकरण और बाजारीकरण की ‘नयी आर्थिक नीतियों’ की आड़ में वैश्विक पूंजीवाद के प्रबल होने में समाजवादियों का क्या योगदान रहा है? अस्मिता की राजनीति, विशेषकर ‘हिंदुत्व’ की राजनीति के प्रबल होने में समाजवादियों की क्या भूमिका रही है?
कुछ प्रश्न भविष्य को लेकर भी हैं जिन्हें आज ही संबोधित करना होगा। जैसे समाजवादियों की उपलब्धियों की विरासत को कैसे आगे बचाये रखा जाएगा? समाजवादियों की मुख्य असफलताओं से पैदा बाधाओं को भविष्य में कैसे दूर किया जाएगा? समाजवाद और संसदवाद के बीच के जगजाहिर अंतर्विरोधों को कैसे दूर किया जाएगा? वैश्विक पूंजीवाद और दलीय प्रतिद्वंद्विता से उत्पन्न आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और पर्यावरण संकट के निकट भविष्य में समाधान के लिए समाजवादियों की क्या तैयारी है?
जरूरी सावधानी
ये सभी प्रश्न हमारे लिए समाज के सरोकारी स्त्री-पुरुषों द्वारा आयोजित परीक्षा का हिस्सा हैं। इनसे बचकर आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। बिना इनका संतोषजनक समाधान पाये समकालीन जनमत हमारा साथ देने के लिए तैयार नहीं होगा।
लेकिन जैसे यक्ष-प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ पांडवों को मृत देखकर युधिष्ठिर क्रुद्ध या हतप्रभ नहीं हुए वैसे ही आज समाजवादियों को भी कुछ जरूरी सावधानियों की जरूरत है। एक तो विवेक, संतुलन और आत्मविश्वास नहीं खोना चाहिए। दूसरे, इन प्रश्नों को उनके सन्दर्भ से जोड़कर समझना होगा। इसके लिए समाजवादी आन्दोलन के विचार-दर्शन, सिद्धांत-कार्यक्रम और इतिहास का नया पाठ करना-कराना होगा। इन प्रश्नों को अपने पुरखों के विरुद्ध ‘आरोप-पत्र’ के अंदाज में पेश करना नादानी होगी। क्योंकि यह सिर्फ समाजवादी आन्दोलन के विरोधियों को सुख देगी। तीसरे, आज के परिवेश के अनुकूल भाषा-शैली में उत्तर प्रस्तुत करना होगा।
यह एक नया प्रस्थान है। इस ऐतिहासिक जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए अबतक के समाजवादियों के सपनों, संकल्पों और संघर्षों के पुण्य-स्मरण से प्रकाश और ऊर्जा पाना पहला कदम होना चाहिए। इसके लिए नागार्जुन की‘उनको प्रणाम!’ कविता के पाठ से ज्यादा उपयुक्त और क्या हो सकता है?
उनको प्रणाम!
जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
मैं उनको करता हूं प्रणाम!
कुछ कुंठित और कुछ लक्ष्य-भ्रष्ट
जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;
रण की समाप्ति के पहले ही
जो वीर रिक्त-तुणीर हुए!
उनको प्रणाम!
जो छोटी सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि पार;
मन की मन में रही, स्वयं
हो गए उसी में निराकार!
उनको प्रणाम!
जो उच्च शिखर की ओर बढ़े
रह-रह नव उत्साह भरे;
कुछ ने ले ली हिम-समाधि
कुछ असफल ही नीचे उतरे!
उनको प्रणाम!
एकाकी और अकिंचन ही
जो भू-परिक्रमा को निकले;
हो गए पंगु, प्रति-पद जिनके
इतने अदृष्ट के दांव चले!
उनको प्रणाम!
कृत-कृत्य नहीं जो हो पाए;
प्रत्युत फांसी पर गए झूल
कुछ ही दिन बीते हैं, फिर भी
यह दुनिया जिनको गयी भूल!
उनको प्रणाम!
थी उम्र साधना, पर जिनका
जीवन नाटक दु:खांत हुआ;
था जन्म काल में सिंह लग्न
पर कुसमय ही देहांत हुआ!
उनको प्रणाम!
दृढ़ व्रत और दुर्दम साहस के
जो उदाहरण थे मूर्तिमंत;
पर निरवधि बंदी जीवन ने
जिनकी धुन का कर दिया अंत!
उनको प्रणाम!
जिनकी सेवाएं अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर;
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
मनोरथ कर दिये चूर-चूर!
उनको प्रणाम!