जिजीविषा और प्रेम के अनुभूति-आख्यान

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— केशव शरण —

डॉ हंसा दीप के अनुभव और लेखन के दायरे में न सिर्फ हिंदुस्तान का जनजीवन है बल्कि विदेश का भी लोक है। भारत में भोपाल विश्वविद्यालय और विक्रम विश्वविद्यालय के महाविद्यालयों में अध्यापन करने के बाद सम्प्रति वे कनाडा की यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरर के पद पर हैं। उनके दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं, ‘कुबेर’ और ‘बंद मुट्ठी’। ‘चश्मे अपने-अपने’ व ‘प्रवास में आसपास’ के बाद ‘शत प्रतिशत’ उनका तीसरा कहानी संग्रह है। इसमें उनकी कुल सत्रह कहानियाँ हैं जो अपना पुस्तकाकार प्राप्त करने से पूर्व हिंदी की श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

‘शत प्रतिशत’ इस संग्रह की पहली कहानी है। निश्चय ही लेखिका के लिए यह उसकी सबसे अच्छी और महत्त्वपूर्ण कहानी होगी। इसे पढ़ने के बाद कोई भी शत-प्रतिशत सहमत होगा। आज पूरा विश्व उस आतंकवाद से पीड़ित है जो सांस्थानिक, धर्मजनित और सशस्त्र है। एक ओर यह है तो दूसरी ओर आतंक के अनेक ऐसे रूप हैं जिसे लोग घर-परिवार और अपने समाज में झेलते रहते हैं। साशा एक ऐसा ही किरदार है जिसने मातृविहीन बचपन में पिता का ऐसा आतंक झेला है कि उस आतंक का साया उसके ऊपर से अभी तक हटा नहीं है जबकि वह तीस साल का जवान है। उसके पिता और उसके पितेतर पालक भी अब दुनिया में नहीं हैं। लेकिन पिता द्वारा दी गयी प्रताड़नाओं ने उसके व्यक्तित्व को जटिल बना दिया है और वह इसका बदला चुकाना चाहता है एक भयानक आतंकवादी वारदात करके जिससे सब थर्रा उठें। निरर्थकता बोध से भरा साशा इसका बदला अपने तीसवें जन्मदिन पर किराये पर लिये ट्रक से भीड़ को कुचलकर लेना चाहता है। वह ट्रक लेकर निकलता है तभी संयोग से उसे लीसा नामक लड़की मिल जाती है जो उसे प्यार करती है। चाय पीकर दोनों जब एक कैफे से निकलते हैं तो देखते हैं कि एक भारी ट्रक लोगों को रौंदता चला जा रहा है। कुछ क्षणों में लाशें बिछ जाती हैं। घायलावस्था में तड़पते लोगों की चीख़-पुकार मच जाती है। मर्माहत साशा घायलों की मदद में जुट जाता है और उस आतंकवादी को कोसता है जो ऐसा भयानक काम कर गया। इसी बीच उसे खयाल आता है क्या यही करना चाहता था वह! लोग घृणा से जो गालियाँ आतंकी को दे रहे हैं साशा को लगता है कि वे आतंकी को नहीं उसे दे रहे हैं। आख़िर वह यही तो करना चाहता था। वह कौन था जो बीच में आया था शत-प्रतिशत उसकी प्रतिच्छाया बनकर! क्या उसकी प्रताड़नाओं का यह बदला उसका न्याय होता या जिसने किया है उसने अपने प्रति पीड़ाओं के बरक्स न्याय किया? साशा के किरदार में हंसा दीप जो घटना, जीवन और मनोविज्ञान का ताना-बाना बुनती हैं वह कहानी के अंत में जबरदस्त मार्मिक प्रभाव छोड़ता है।

शेष सोलह कहानियों की भी अपनी-अपनी कथात्मक और कलात्मक विशेषताएँ हैं। डॉ हंसा दीप की कहानियों में जिजीविषा और प्रेम हमेशा मौजूद रहते हैं। पात्रों की जीवन-स्थितियों से वे जो कहानी उठाती हैं उनमें इ तत्त्वों की मौजूदगी कहानी को संवेदनात्मक रूप से सशक्त बनाती है और उसे एक मूल्यगत सार्थकता देती है। पात्रों पर उनकी मनोवैज्ञानिक पकड़ भी जबरदस्त है। कथा के साथ भाषा बहा ले जाती है। अपनी कहानियों के माध्यम से वे एक विचार-दृष्टि देती हैं।

डॉ हंसा दीप

उनकी अगली कहानी ‘गरम भुट्टा’ है। मुख्य पात्र कर्मठ और तन-मन से मजबूत मगर भरी जवानी में विधवा हो गयी एक स्त्री है जो मक्के का रोजगार करके अपने बच्चों को लायक बनाती है। उस स्त्री का एक भील युवक नौकर है जो निश्छल, परिश्रमी और स्वामिभक्त है। स्त्री द्वारा अर्जित सम्पन्नता में उसकी मेहनत और लगन का एक बड़ा योगदान है। बड़े होकर अपने में रम चुके बच्चों के अलावा उस स्त्री के जीवन में यह युवक है और उसकी एक विधवा सहेली है जो एक खुशमिज़ाज औरत है। उन्हीं के बीच के संवादों से कुछ अनुमान लगता है कि उस स्त्री और युवक के बीच एक अंतरंगता है मगर यह अंतरंगता किस हद तक है कहानीकार हंसा दीप अपनी ओर से खुलासा नहीं करती हैं। वे केवल एक मानवीय रिश्ते की अहमियत को महत्त्व और उभार देती हैं जिसके न होने से वह मजबूत स्त्री खाट पकड़ लेती है और अंत में अपनी सहेली का हाथ थामे-थामे प्राण त्याग देती है।

‘पन्ने जो पढ़े नहीं’ इस संग्रह की तीसरी कहानी है। एक स्त्री-संसार इसमें भी है। इस कहानी की नायिका स्वाभिमानी, समझदार और प्रेमिल स्वभाव की है जो अपने प्रोफेसर पति और उनकी शिष्या द्वारा विश्वासघात का शिकार बनती है और पति से अलग होकर अपने को कर्मक्षेत्र में खड़ा करती है। पति की मृत्यु के बाद घर आती है। उसके मनोजगत का वर्णन एक करुण प्रभाव छोड़ता है।

चौथी कहानी ‘अक्स’ में एक चुलबुली लड़की है जिसे उसकी नानी खूब प्यार करती हैं, उसकी अच्छे-से देखभाल और उसकी हर इच्छा का ख़याल रखती हैं। चुलबुली लड़की उन्हें जी-भर छकाती रहती है। नानी के इस प्यार का मर्म वह तब समझ पाती है जब नानी दुनिया में नहीं रहती और वह माँ बन चुकी है और कल्पना में उस रोज के बारे में सोचती है जब वह अपनी नानी जैसी ही नानी बनेगी। पीढ़ीगत पारिवारिक जीवन की यह अनुभव-कथा सरस, सुन्दर और संदेशप्रद है।

‘पूर्णविराम के पहले’ पाँचवीं कहानी है। स्कूल की एक महिला बस ड्राइवर स्कूल की महिला टीचर से टिकट नहीं लेती। महिला टीचर को पहले अच्छा लगता है लेकिन बाद में वह किसी षड्यंत्र की आशंका से भर जाती है। वह उससे रुखाई से पूछती है कि वह ऐसा क्यों करती है? उसके जवाब के पश्चात कथा-रोचकता मासूम रूप से मार्मिक हो जाती है। आंतरिक द्वंद्वों का कुशल चित्रण बाँधे ले चलता है।

छठी कहानी ‘इलायची’ में इलाइची जैसी मानवीयता की सुगंध है। पड़ोस के रहवासी कसाई जाति के मुस्लिम लड़के और हिंदू लड़की की आत्मीयता का मिलन एक लम्बे समय बाद उम्र की ढलान पर फिर होता है। खराब मौसम में अपने धर्मगुरु के साथ वह उसकी शरणागत है। धर्मगुरु की शर्तों पर ही वह उनके शरण और सत्कार की व्यवस्था करता है। उसका यह आचरण ऐसा प्रभावित करता है कि कथा नायिका को वह संत जैसा ही संत लगने लगता है, जिसकी संतई इलाइची के अंदरूनी दानों और बाह्य आवरण में भी है। डॉ हंसा दीप की संवाद कुशलता भी इस कहानी की रोचकता में वृद्धि करती है।

सातवीं कहानी है ‘कुकडूँ कूँ’ जिसमें एक पत्नी अपने कामों की सराहना चाहती है और वह ममा बॉय उसकी सराहना की जगह माँ के गुणों और कार्यों की तारीफ करने लगता है। कोफ़्त की मारी नारी को उसके ममा बॉय बेटे से सबक मिलता है और सास का मुस्कुराता चेहरा खयालों में आकर कहता है – “यह कुकडूँ कूँ है बहू, इसे कोई सिखाता नहीं, सब अपने-आप सीख जाते है।”

बेहद संदेशपरक है इस संग्रह की आठवीं कहानी ‘विशेष अभी शेष है’। सेवानिवृत्ति के बाद का समय बीमारियों के बीच बिस्तर पर बिताने के लिए नहीं है। विशेष तो अभी शेष है, इस कहानी के मुख्य पात्र को यह अहसास तब होता है जब उसकी उम्र के उसके साथी उसे अपनी स्वयंसेवी संस्था में ले जाते हैं। वहाँ आते-जाते, साथियों के साथ काम और मस्ती करते उसकी बीमारियाँ भी पीछे छूट जाती हैं और वह अपने को स्वस्थ और उपयोगी पाता है।

डॉ हंसा दीप की कहानियों में प्रेम युवा वर्ग तक सीमित नहीं है। यथार्थ के अनुसार उनमें हर आयु वर्ग के स्त्री-पुरुषों का प्रेम है। लेकिन डॉ हंसा दीप के पात्रों का प्यार कोरी भावुकता का रोमानी प्यार नहीं है, उनमें जीवन की समझ, संघर्ष और संयम है। इस संदर्भ में उनकी कथा-दृष्टि जीवन के भेद को स्वस्थ और सुन्दर तरीके से उद्घाटित करती है। इस संग्रह की नौवीं कहानी ‘बाँध के कंधों पर नदी’ और दसवीं कहानी ‘एक टुकड़ा समय का’ में इसका साक्षात्कार विशेष रूप से होता है।

पारिवारिक और सामाजिक जीवन के सुख-दुख, इच्छाएँ और संघर्ष डॉ हंसा दीप की कहानियों के वितान में एक अच्छी-खासी जगह घेरते हैं। ग्यारहवीं कहानी ‘वे पाँच मिनट’ चिराग और प्रयाग नामक दो जुड़वां भाइयों की कहानी है जो पाँच मिनट के अंतर पर पैदा हुए हैं लेकिन पाँच मिनट के बड़े भाई को जो मान मिलता है और प्रशंसा होती है,वह तो नहीं लेकिन उसकी अभिव्यक्ति जिस तरह से की जाती है वह पाँच मिनट के छोटे भाई को कुंठित करती रहती है। लेकिन कहानी के अंत में नियति एक आईना रख ही देती है। इसी तरह बारहवीं कहानी ‘रायता’ नकली चमक-दमक की जिंदगी जीने वाले नकली लोगों को जोरदार झटका देती है। तेरहवीं कहानी ‘उसकी मुस्कान’ है, यह कहानी है एक विधुर बाप और उसकी सबसे लाडली और सबसे छोटी लड़की की जो जवान होकर एक ऐसे व्यक्ति से प्यार कर बैठती है जो उसके बाप की उम्र का है।

डॉ हंसा दीप सामाजिक विडम्बनाओं और व्यक्ति की आचरणगत विसंगतियों को बहुत साफ़-सुथरे ढंग से उकेरती हैं। वे पात्रों और परिस्थितियों की हास्यास्पदता को भी संवेदनात्मक तरीके से व्यक्त करती हैं। चौदहवीं कहानी ‘प्रोफेसर साब’ में प्रोफेसर साहब की पोती होमवर्क करते हुए पूछती है कि अधिकार और कर्तव्य में क्या अंतर है? प्रोफेसर साहब अपने बौद्धिक काम में व्यस्त हैं और बच्ची से कहते हैं कि थोड़ी देर बाद आना। बच्ची के आने तक कहानी विश्वविद्यालय और प्राध्यापकी और सामान्य शिक्षा की विसंगतियां दिखाती चलती है। बच्ची पुन: आकर जब पूछती है तो प्रोफेसर साहब अपनी प्रोफेसरी रौ में बोले चले जाते हैं। “वे भूल चुके थे कि सामने उनका पीएचडी छात्र नहीं है, नन्हीं बालिका है जो हाथ में कॉपी-कलम लिये कुर्सी के हत्थे से सिर टिकाकर अपना झपकी लेने का अधिकार पा चुकी है।” प्रोफ़ेसर साहब ने लंबी साँस ली, मानो उनका कर्तव्य पूरा हो चुका था।

पन्द्रहवीं कहानी ‘पाँचवीं दीवार’ में स्कूली जीवन से राजनीति में कदम रखनेवाली इलाके की रोबदाब वाली जानी-मानी प्राचार्या के शुरुआती उत्साह, फिर उत्साह-भंग और फिर नये संकल्प के साथ संघर्ष-प्रतिज्ञा की दास्तान है।

डॉ हंसा दीप की कहानियों का रेंज बड़ा है। उनके पास जीवन के लगभग हर क्षेत्र और पात्रों की कहानियाँ हैं। इस पुस्तक में तो केवल सत्रह कहानियाँ हैं तो भी इनमें पर्याप्त विविधताएँ हैं। सोलहवीं कहानी ‘कवच’ ऐसी ही कहानी है जो संवेदना से भर देती है। इसका पात्र एक ऐसा पात्र है जिसका दुनिया में कोई नहीं है, जिससे सब काम लेते हैं और सब उपहास उड़ाते हैं। चोरी कहीं हो, किसी ने की हो, पुलिस उसे ही गिरफ़्तार करती है। हमदर्द सिर्फ़ मुहल्ले की बुजुर्ग महिला है। इत्तिफ़ाक़न उसे उसकी तरह ही निराश्रित लड़की मिल जाती है और उनको एक पुत्र पैदा होता है। जिस थाने में उसे प्रताड़ना मिलती थी उसी थाने में अब उसे प्यार मिलता है क्योंकि उसका लड़का सब-इंस्पेक्टर बनकर पहली तैनाती पर आया है।

संग्रह की अंतिम कहानी है ‘खिलखिलाती धूप’। चार बहनों का इकलौता, पत्नी और संतानविहीन अधेड़ भाई गुजर गया है। मृत्यु संबंधी रस्में पूरी हो चुकी हैं। चारों बहनें मायके के घर में यादों में खो जाती हैं। बूढ़ी हो चुकीं और हो रहीं बहनें बे-तकल्लुफ़ होकर यूँ हँसी-मजाक करती हैं जैसे वे सखीवत् नवयुवतियाँ हों। मनुष्य के प्रेम और उल्लास को एक उम्र की सीमा में बाँधकर जिस तरह से हमारे समाज में जीवन को निरुत्साह किया जाता है उसका प्रतिकार यह कहानी बिना प्रतिकार किये कर जाती है।

डॉ हंसा दीप एक स्वस्थ जीवन-दृष्टि की भाव-भाषा कुशल लेखिका हैं। इस कहानी संग्रह की सत्रह कहानियाँ पढ़कर पाठकीय सुख मिला। इनमें रस के विभिन्न आस्वाद हैं। यह जानते हुए भी कि मैं आलोचक नहीं हूँ उन्होंने संग्रह मुझे पढ़ने को भेजा। मैं उस पर कुछ लिखूँ यह भी नहीं कहा। उपहार के साथ दबावमुक्त रखा। आभारी हूँ। उन्हें हार्दिक बधाई देता हूँ और कामना करता हूँ कि उनकी सृजन निरंतरता बनी रहे।

किताब : शत प्रतिशत

लेखिका : डॉ हंसा दीप

प्रकाशन : किताबगंज प्रकाशन, गंगापुर सिटी-322201, सवाई माधोपुर, राजस्थान

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