नहीं मरा है कोई ऑक्सिजन की कमी से कहीं !
मान सकते हैं आप इसे एक शुरुआत भी
नहीं बचे रहने की हममें किसी इंसान की !
लड़ रहा था जब वह मरीज़ बची हुई साँसों के साथ
दूर बसे किसी बीमार से अस्पताल के गीले बिस्तर पर
लड़ रहे थे हम भी तभी रास्ता पाने के लिए भीड़ के बीच
अपने ही आत्मा में बसे किसी लालबत्ती वाले चौराहे पर
लटकाए हुए सिलेंडर मरीज़ के लिए साँसों का
उसी की ही दी हुई एक टूटी सायकिल पर !
हो सकता है वह मरीज़ कोई भी- पड़ोसी या पिता भी !
अकेले नहीं थे हम उस हाहाकारी शोर के बीच
मचा हुआ था जो चौराहे से अस्पताल तक !
खड़े थे झुंड के झुंड आदमियों के जैसे नाम लिये
पर शक्लें थीं सभी की ऑक्सिजन के सिलेंडरों जैसी !
लगने लगा अचानक तभी छूटने को है सायकिल हाथों से
नहीं रह पाएँगे अब इस तरह खड़े-खड़े ज्यादा वक्त
उखड़ रही हों साँसें जैसे सिलेंडर की भी साथ-साथ
तब्दील हो गयी थी जैसे सड़क ही पूरी किसी अस्पताल में
लाल बत्ती हो नहीं चौराहे की, हो किसी ऑपरेशन थिएटर की
ट्रैफ़िक की सफ़ेद वर्दी वाला जवान हो जैसे कि डॉक्टर कोई !
सिलेंडर का उस बिस्तर तक पहुँचाया जाना ज़रूरी था
मरीज़ को रवाना किये जाने से पहले- अकेले ही या किसी के कंधे पर
पर कितनी तेज दौड़ाई जा सकती थी आख़िर एक टूटी सायकिल भी !
और फिर, क्या करेंगे वे जो लोग उठाये खड़े हैं सिलेंडर कंधों पर ?
हो जाएगी देर बहुत ,पहुँचेंगे वे कंधे जब तक पैदल बिस्तरों तक !
लिख देगा अस्पताल फिर बिल पर काले-काले अक्षरों में-
एक था आदमी बीमार मर गया किसी अनजान बीमारी से
मर जाएँगे फिर वे सारे सिलेंडर भी खड़े हुए थे जो चौराहों पर
नहीं गिनायी जाएगी कोई गलती किसी की भी, सरकार की भी
नहीं मरता है क्योंकि कभी, कहीं भी कोई मरीज़ या इंसान
कमी से ऑक्सिजन की, नहीं है ऑक्सिजन कोई भूख पेट की !
सवाल बादशाह सलामत के पेट का है !
नाकाम हो गयीं समझाने की उन्हें कोशिशें सारी
बंदे थे वे बादशाह के और आए थे उठाने हमें
चाहते थे बताना उन्हें पूरी ईमानदारी के साथ
नहीं बचे हैं हम अब आदमी सल्तनत के उनकी
पेश भी करना चाहे सुबूत कई सामने उनके
कर दिया इंकार मानने से हमारी हरेक बात !
बताया हमने- नहीं बचे हैं अब हाथ भी हमारे पास
वक्त हुआ जब मिला होगा काम उन्हें आख़िरी बार
और पहुँचा होगा निवाला कोई पेट के अंदर तक !
बताया हमने उन्हें साथ-साथ यह भी कि-
हैं ही नहीं अब तो पेट और पीठ अलग-अलग
चिपका दिये गए हों जैसे किसी गाढ़े गोंद से दोनों
नहीं हुए तैयार फिर भी मानने सफ़ाई कोई !
कहा हमने बची हैं नहीं ज़ुबानें भी अपनी हमारे पास
आए थे कुछ लोग उनकी ही तरह पहले कभी
ले गये थे करके क़ैद ज़ुबानें समूची बस्ती की
लौटायी ही नहीं वे वापस, बकाया मज़दूरी की तरह
कर रही होंगी ज़ुबानें अब इंतज़ार, किसी हिरासत में
मौत का अपनी या फिर सजा का फाँसी की !
नहीं मानी गयी आख़िर तक भी कोई बात हमारी
फ़रमान था : ‘वोट तो डालना ही पड़ेगा तुम सबको
‘सवाल तुम्हारे पेट या ज़ुबानों का अब बचा ही नहीं
‘सवाल तो इस वक्त बादशाह सलामत के पेट का है
‘और देकर आए हैं हम उन्हें ज़ुबान तुम्हारे वोटों की !’
ज़रूरी है आदमियों का दिखते रहना
फ़र्क़ ही नहीं पड़ रहा है हमें कुछ भी ,कहीं से भी
नहीं आ रही नज़र अगर भीड़ लोगों की आसपास
नहीं दिख रहा चिमनियों से उठता धुआँ भी कोई
बच्चों को लेने,छोड़ने आती-जाती हुई पीली बसें
चौराहे पर बैठे हुए किसी मोची का गुमसुम चेहरा
टिफ़िन बांधे सायकिल पर हाँफता जाता मज़दूर
या अपने ही सब्ज़ी वाले की झुकती जाती कमर !
बदल दी गयी हैं शर्तें सारी हमारे होने और न होने की
बना गया है आदमी चुपचाप रहने वाली एक मशीन
बंद कर दी गयी हैं आवाज़ें जब से असली मशीनों की
छूटती जा रही है दुख में भी जी भर रो लेने की आदत
टूट गये कंधे जब से सिर टिका कर रो लेने के लिए !
भूलते जा रहे हैं हम भी,बताना भी चाहता नहीं कोई-
आदमी होने का ताल्लुक़ इंसानों के दिखते रहने से है
हैं लब आज़ाद भी तो क्या !
तय कर लिया है हमने अंतिम रूप से
नहीं बोलेगा कोई भी, कुछ भी, कभी
बोलेंगे सिर्फ़ कुछ आदमी ही हमेशा
हम सब रहेंगे चुप, नहीं खोलेंगे ज़ुबान
कुछ बोलने वालों के लिए भी कभी !
सीख गये हैं चुप रहना सभी ठीक से
सीख गये हैं बोलना जैसे कुछ लोग
डरते हैं बोलने से हम कि ‘डरते हैं हम’
पर हैं खुश भी कि कोई तो बोलता है
क्या फ़र्क़ पड़ता है नाम से,कौन हैं वे
है पता इतना नहीं हैं वे हमारे बीच से
डर रहे हैं हम बोलने से उनके नाम भी
जानते हैं नहीं बोल पाएँगे उनके जैसा
डरते हैं सोचकर हम कई बार यह भी
कहाँ जाएँगे करने गुहार बोलने की !
बंद कर देंगे जब कुछ लोग भी बोलना