— प्रेम सिंह —
मैं किसी राजनीतिक पार्टी के आंतरिक मामलों को लेकर टिप्पणी नहीं करता हूं। पंजाब में नेतृत्व परिवर्तन के तरीके और नये नेतृत्व की क्षमता/संभावना पर मुझे कुछ नहीं कहना है। सिवाय इसके कि करीब अस्सी साल के वयोवृद्ध नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह को दिल्ली चक्कर नहीं लगाने, और कांग्रेस के दो राष्ट्रीय नेताओं – राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा – को ‘बच्चों जैसा’ और ‘गुमराह’ समझने का दंड कांग्रेस हाई कमान ने दे दिया है। कैप्टन ने सुन लिया होगा कि नए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने राहुल गांधी को क्रांतिकारी नेता बताया है। कैप्टन ने कुछ अति उत्साही राजनीतिक विश्लेषकों का यह मत भी सुन लिया होगा कि पंजाब की ‘क्रांति’ की धमक उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश तक पहुंच गयी है; कि यह मास्टर स्ट्रोक लगा कर राहुल गांधी पूरे फॉर्म में आ गये हैं; कि उन्हें जल्दी ही राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पंजाब जैसी क्रांति कर देनी चाहिए!
कैप्टन को ‘उदासी’ और ‘अपमान’ की मन:स्थिति से बाहर आकर देखना चाहिए कि उनके हटते ही पुराना दलित वोट-बैंक कांग्रेस की तरफ दौड़ पड़ा है; उन्हें साढ़े नौ साल बाद बतायी गयी यह सच्चाई स्वीकार करनी चाहिए कि वे जनता और काम से दूर रहनेवाले एक निकम्मे मुख्यमंत्री थे। उन्हें राजा को रंक और रंक को राजा बना देने की हाई कमान की ताकत को समझ जाना चाहिए। अपने 52 साल के राजनीतिक करियर में बहुत से उतार-चढ़ाव देखनेवाले बहुमुखी प्रतिभा के धनी कैप्टन को अब यह भी देखना चाहिए कि भारत के लोकतंत्र में हाई कमान कल्चर विधायकों-सांसदों को ही नहीं, विश्लेषकों/विशेषज्ञों को भी स्वीकार्य है।
इस लेख में पंजाब में नेतृत्व परिवर्तन की घटना पर दो मुद्दों के संदर्भ में विचार किया गया है। एक मुद्दा दीर्घकालिक महत्त्व का है, और दूसरा तात्कालिक महत्त्व का। पहले तात्कालिक महत्त्व के मुद्दे पर विचार करते हैं जो किसान आंदोलन से जुड़ा है। यह बताने के लिए बहुत तथ्य और तर्क देने की जरूरत नहीं है कि यह आंदोलन पंजाब की कोख से जन्मा है, और उसकी ताकत और दीर्घजीविता के पीछे बतौर मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कृषि कानूनों के बनते समय राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) में शामिल शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) के नेताओं की तरह कैप्टन का भी विशेष सरोकार नहीं था। लेकिन इन कानूनों के खिलाफ आंदोलन खड़ा होने पर उन्होंने आंदोलन के पक्ष में समझदारी और तटस्थता के साथ अपनी भूमिका निभायी।
किसान आंदोलन का राजनीतिक फायदा उठाने के प्रयास में सभी विपक्षी पार्टियां सक्रिय हैं। पंजाब में बड़ी संख्या में किसान अकाली दल से जुड़े रहे हैं। इसके बावजूद माना जा रहा था कि पंजाब में विधानसभा चुनाव में किसान आंदोलन का सबसे ज्यादा फायदा कांग्रेस को हो सकता है। हाई कमान ने जिस तरह से एक फूहड़ इंटरटेनर को आगे करके अपमानकारक तरीके से कैप्टन को हटाया है, उससे आंदोलनरत किसानों में भ्रम की स्थिति बन सकती है।
विचारधाराविहीनता समकालीन कॉरपोरेट राजनीति की केंद्रीय प्रवृत्ति है। इसके चलते सभी राजनीतिक पार्टियों के घरों के दरवाजे खत्म हो चुके हैं। कोई नेता अथवा नेता बनने का अभिलाषी किसी घर से निकल कर कितनी ही बार किसी भी घर में आ-जा सकता है; सत्ता के लिए संविधान और मानवता के मूलभूत मूल्यों के साथ तोड़-मरोड़ कर सकता है।
फोर्ड फाउंडेशन के बच्चों द्वारा बनायी गयी आम आदमी पार्टी (आप) कॉरपोरेट राजनीति की अपनी पार्टी है। लिहाजा, वह स्वाभाविक तौर पर राजनीति में विचारधाराविहीनता की खुलेआम वकालत करती है। भाजपा से कांग्रेस में आए नवजोत सिंह सिद्धू के तार आप से जुड़े हैं। हाई कमान जब उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाने की कवायद में जुटा था, तब सिद्धू ने कहा था, “उनके विज़न को आम आदमी पार्टी समझती है।“ कहना न होगा कि उनके ‘विज़न’ मॉरपोरेटपरस्त नीतियों-कानूनों के विरोध में डट कर खड़े किसान आंदोलन की कोई जगह नहीं है। शायद इसीलिए किसानों ने सिद्धू को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के हाई कमान के फैसले का विरोध किया था।
अभी कांग्रेस में जंग जारी है कि विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा। जिस तरह से हाई कमान का हाथ सिद्धू की पीठ पर है, वे मान कर चल रहे हैं कि चुनाव और मुख्यमंत्री दोनों का चेहरा वे ही हैं। उनकी कोशिश होगी कि चुनाव परिणामों के बाद वे अपने समर्थकों और आप के साथ मिल कर अगला मुख्यमंत्री बन जाएं। हो सकता है हाई कमान को भी यह स्थिति स्वीकार्य हो। क्योंकि कैप्टन की जगह मुख्यमंत्री बनाये गये चन्नी हाई कमान का पहला और सीधा चुनाव नहीं थे। कई तरह के दावं-पेचों के बीच एक सामंजस्य-उम्मीदवार के रूप में उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया।
अपनी गरिमा के प्रति हमेशा सचेत रहनेवाले कैप्टन बार-बार कह चुके हैं कि वे सिद्धू का हर हालत में विरोध करेंगे। अकाली और आप इस भ्रम की स्थिति का पूरा फायदा उठाने की कोशिश करेंगे। इन दोनों का ही किसान आंदोलन से स्वार्थ का नाता है। विधानसभा चुनाव में जो भी पार्टी जीते या आगे रहे, पंजाब की धुरी पर टिके किसान आंदोलन के पीछे जाने का खतरा बन गया है। इस दरपेश खतरे से निपटने की तैयारी किसान आंदोलन के नेतृत्व और आंदोलन के समर्थकों को करनी चाहिए।
अब दीर्घावधि महत्त्व के मुद्दे पर विचार करते हैं जो सुरक्षा से जुड़ा है। यह ध्यान रखना तो महत्त्वपूर्ण होगा ही कि पंजाब देश का एक सीमावर्ती राज्य है, ज्यादा गंभीरता से यह ध्यान रखने की जरूरत है कि पंजाब करीब एक दशक तक उग्रवादी/अलगाववादी आंदोलन की गिरफ्त में रह चुका है। उस आंदोलन की जमीन भले ही देश में यहां के नेतृत्व की गलतियों से तैयार हुई थी, उसके समर्थन और सहायता का एक बड़ा आधार पाकिस्तान समेत विदेशों में था। वह आधार आज भी बना हुआ है।
अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा आदि देशों में बसे सिख समुदाय के कट्टरवादी तत्त्व भारत से अलग खालिस्तान की मांग के समर्थक हैं। शुरू से कुछ अलगाववादी नेता पाकिस्तान में रह कर अपनी गतिविधियां करते रहे हैं। पंजाब और देश के अन्य हिस्सों से रुक-रुक कर अलगाववादियों की गतिविधियों और गिरफ्तारियों की खबरें आती रहती हैं। इससे पता चलता है कि पंजाब में कट्टरवादी प्रवृत्ति और तत्त्व विद्यमान हैं, जिसका फायदा विदेशों में बैठे कट्टरवादी उठाते हैं।
विदेशों में बैठे अलगाववादियों की यह धारणा है कि पंजाब की राजनीति में अकाली दल और कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़े बिना खालिस्तान का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता। पिछले आम चुनावों अथवा विधानसभा चुनावों के दौरान मीडिया में इस तरह की खबरें छपी आती थीं कि विदेशों में बैठे अलगाववादियों ने आप को समर्थन दिया। आप नेताओं की पंजाब में विद्यमान कट्टरवादी तत्त्वों से सांठ-गांठ की खबरें भी अकसर आती रहती हैं।
यह ध्यान देने की बात है कि खालिस्तान के नाम पर चलाये जानेवाले अलगाववादी आंदोलन के नेताओं को कभी धन की कमी का सामना नहीं करना पड़ा। उलटा वे अकाली-कांग्रेसी वर्चस्व को तोड़ने के लिए धन मुहैया करते हैं। कैप्टन द्वारा सिद्धू को पाकिस्तानपरस्त बतानेवाले बयान को कुछ विश्लेषकों ने जल्दबाजी में दिया गया बयान बताया। लेकिन पंजाब के अलगाववादी आंदोलन के संदर्भ में कैप्टन पहले भी पाकिस्तान को खतरा बताते रहे हैं। (अन्यथा वे भारत और पाकिस्तान के बीच बंटे पूर्व और पश्चिम पंजाब के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्ते के हिमायती रहे हैं। अपने पहले मुख्यमंत्रित्व-काल में उन्होंने पाकिस्तान स्थित पंजाब के मुख्यमंत्री की मेजबानी की थी।) चन्नी को मुख्यमंत्री बनाए जाने पर दिए गए अपने बधाई संदेश में उन्होंने केवल एक सुरक्षा के मुद्दे की तरफ उनका ध्यान दिलाया है।
फौज में केवल तीन साल रहे, लेकिन वे नेशनल डिफेन्स एकेडेमी (एनडीए) और इंडियन मिलिटरी एकेडेमी (आईएमए) के ग्रेजुएट हैं। सेना के प्रशिक्षण और सेवा ने उनके व्यक्तित्व और कार्यशैली पर ही असर नहीं डाला है, राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता के बारे में भी उनका नजरिया बनाया है। नरेंद्र मोदी समेत आरएसएस/भाजपा के नेता कैप्टन की राष्ट्रवादी निष्ठा के प्रशंसक हैं। लेकिन ऐसा करते वक्त वे भूल जाते हैं कि कैप्टन एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी हैं।
आरएसएस/भाजपा की सरकार और नेता बार-बार किसान आंदोलन में भागीदारी करनेवालों पर खालिस्तानी होने का आरोप लगा चुके हैं। यह एक अति संवेदनशील और भावनात्मक मुद्दा है। देश की राजनीति में सत्ता के लिए लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ का खेल निर्लज्जतापूर्वक चल रहा है। इस सब के बीच खालिस्तान के हिमायती मौके की ताक में बैठे हैं। खालिस्तान आंदोलन के चलते देशवासियों ने पंजाब और उसके बाहर भयानक दंश झेला है। उसकी आवृत्ति न हो, यह कैप्टन समेत सभी पार्टियों के संजीदा नेताओं की जिम्मेदारी है। कैप्टन ने एक बार कहा था कि वे उस भयानक अंधकारमय दशक के अनुभव पर किताब लिखेंगे। वे एक कद्दावर नेता हैं। बौनों से लड़ने में अपनी ऊर्जा नष्ट करने के बजाय वे राष्ट्र और पंजाब की सुरक्षा पर अपना ध्यान लगाएं तो उनका कद और बड़ा होगा।