— विजय राय —
अमृतराय विलक्षण प्रतिभा के धनी रचनाकार थे। वे व्यक्ति नहीं संस्था थे। प्रेमचंद की विराट प्रगतिशील परम्परा के सच्चे उत्तराधिकारी होने के साथ-साथ वे उसके संवाहक भी थे। अमृतराय की बहुआयामिता में ‘एक्टिविज्म’ एक प्रमुख घटक था। अमृतराय के कथाकार, उपन्यासकार, आलोचक, संपादक, व्यंग्यकार, नाटककार और प्रगतिशील आंदोलन को गति प्रदान करनेवाले प्रतिबद्ध कार्यकर्ता के रूप का सम्यक मूल्यांकन नहीं हो सका। उन्हें ‘कलम का सिपाही’ के जीवनीकार और कतिपय महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के अंग्रेजी से हिंदी में सृजनात्मक अनुवाद के लिए बार-बार याद किया गया। साहित्य के नये पाठक और ज्यादातर नये लेखक भी उनके इसी रूप को जानते हैं या फिर प्रेमचंद के कनिष्ठ पुत्र के रूप में।
वर्ष 2021 अमृतराय का जन्मशती वर्ष है और बड़ी ख़ामोशी के साथ धीरे-धीरे बीत गया है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। यह हमारी हिंदी के प्रतिबद्ध लेखकों और लेखक संघों के मौलिक स्वभाव का स्थायी भाव है। हमारे फे़सबुक पर सुबह से रात तक बैठे कई स्वनामधन्य आलोचक, लेखक और संपादक ‘हिंदी समाज की अपने एक महत्त्वपूर्ण लेखक के प्रति यह उदासीनता एक गंभीर चिंता व विचार का विषय होना चाहिए’ के अपने सारगर्भित वक्तव्य से खुद को दायित्व-मुक्त कर अपने हिंदी निर्माता होने के गौरव से भर जाते हैं। इन कलमगीरों को किसी वक्तव्य या टिप्पणी लिखने से पहले अपनी तरफ़ भी देखना चाहिए।
हुज़ूर, यह आपका भी कर्तव्य था कि अमृतराय को जितना आपने पढ़ा-समझा है उसके आधार पर कुछ लिख-पढ़ देते ताकि सनद रहती और हमारी नयी पीढ़ी उनके अवदान को जान पाती। मैंने हिंदी के अनेक साहित्यकारों से फ़कत दो सवालों के जवाब ‘लमही’ के अमृतराय विशेषांक हेतु मांगे थे जिनमें से सिर्फ़ विश्वनाथ त्रिपाठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, रेखा अवस्थी, चंचल चौहान और विभूति नारायण राय ने ही मेरे निवेदन का मान रखा।
खै़र। विगत लगभग एक-डेढ़ वर्ष से ‘लमही’ के मान्य लेखकों से अनुरोध कर-कर और उन्हें अपने परिस्मारकों से तंग कर जो नतीजा निकला है वह अमृतराय विशेषांक के रूप में हमने अपने पाठकों के लिए जारी कर दिया है। यद्यपि कोविड-19 के कारण बीच-बीच में बहुतेरी बाधाएं आयीं लेकिन सभी को पार कर इस समवेत प्रयास का जो स्वरूप बना जिससे अमृतराय की कारयित्री प्रतिभा और अवदान का हम मूल्यांकन कर सके उस पूरे कच्चे चिट्ठे को अविकल रूप से इस विशेषांक में हमने शाया किया है। इस विशेष अंक का पूरा श्रेय मैं अपने लेखकों को देना चाहूंगा, जिन्होंने कई-कई माह तक रात-दिन अमृतराय के साथ बिताया है। अपने संपादकीय में मैंने इस अंक के लेखकों की महत्त्वपूर्ण बातों, निष्कर्षों और ध्यातव्य अंशों को उद्धृत कर अंक की सामग्री की महत्ता और उपयोगिता को रेखांकित करने की कोशिश की है।
राजेन्द्र यादव ने 14 अगस्त 1996 को अमृतराय के निधन पर ‘हंस’ सितम्बर 1996 अंक के संपादकीय में लिखा था- ‘अमृतराय अपने ‘हंस’ के माध्यम से मेरी कहानियों के आदि संपादक भी रहे हैं। पहली कहानी रामरख सिंह सहगल के ‘कर्मयोगी’ में छपी और दूसरी ‘जय गंगे’ ‘हंस’ में। अमृत हमारी पीढ़ी की सोच और समझ को ढालने वाले प्रारंभिक प्रशिक्षक भी रहे हैं। कहानियों से ही नहीं उन्होंने रामविलास शर्मा की कट्टरता के विरुद्ध प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं, साहित्य का संयुक्त मोर्चा जैसी लेखमालाओं से अधिक उदार और सर्जनात्मक वातावरण दिया। उनका गद्य विलक्षण रूप से प्रभावशाली है। वे बेहद उदार और संवेदनशील संपादक थे। उन्होंने पहले ‘हंस’ फिर ‘नई कहानियां’ मिलाकर लगभग पन्द्रह वर्ष के संपादन काल में न जाने कितनी नयी प्रतिभाओं का प्रोत्साहन-परिचय दिया।’
विष्णु खरे लिखते हैं कि ‘जब प्रेमचंद गुज़रे, तब उनके दोनों बेटे किशोर वय के थे और सन् 1936 के बाद के कुछ अत्यंत संघर्षपूर्ण वर्षों के बावजूद श्रीपत और अमृत ने अदम्य जिजीविषा, आपसी समझदारी तथा पिता की साहित्यिक विरासत को संभालने की व्यावसायिक सूझ-बूझ के बल पर वह स्थापित किया, जिसे अच्छे अर्थों में ‘प्रेमचंद साम्राज्य’ कहा जा सकता है। आज प्रेमचंद की जो ख्याति है, उसके पीछे अंशतः श्रीपत और अमृत का यह योगदान भी है कि उन्होंने अपने पिता की पुस्तकों को जीवित, उपलब्ध और प्रसारित रखा। यह ठीक है कि प्रेमचंद ‘सोने की ख़ान’ है और श्रीपत तथा अमृत ने जो सुख-समृद्धि देखी, वह उनकी पुस्तकों की बिक्री पर ही टिकी हुई थी, लेकिन हिंदी साहित्य कल्पनाशून्य, अयोग्य तथा निकम्मी संतानों और विधवाओं तथा उनके धूर्त सलाहकारों से भरा पड़ा है, जिन्होंने दिवंगत साहित्यकारों की विरासत का तिया-पांचा कर रखा है और ऐसी साहित्यिक तथा प्रकाशन-संस्कृति में हमें अमृत और श्रीपत के काम-काज और उपलब्धियों पर गर्व होना चाहिए, भले ही वह सशर्त हो, जब तक सन् 1986 में प्रेमचंद कॉपीराइट के बाहर नहीं आ गये, तब तक एक महानतम साहित्यकार की कृतियां और उनसे हुई आमदनी उसी के परिवार में रही- यह भारत में बहुत बड़ी बात है।’
हरीश त्रिवेदी लिखते हैं कि ‘आज लोग अनुमान भी नहीं लगा सकते कि ‘कलम का सिपाही’ छपने के पहले प्रेमचंद की क्या दशा थी। उनकी जन्म-तिथि तक तो निश्चित रूप से मालूम नहीं थी, कहीं कुछ छपती थी कहीं कुछ और। और प्रेमचंद के जीवन की ही प्रामाणिक गाथा अमृतराय ने नहीं कही, उन्होंने उनके कृतित्व के एक बड़े भारी हिस्से को भी अपने हाथों गढ़ा या फिर पुनर्जीवन दिया। ‘सेवा-सदन’ को कई हिंदीवाले अब भी प्रेमचंद का पहला उपन्यास मानते हैं जबकि है वह पांचवां! पहले के चार उर्दू में लिखे उपन्यासों को अमृतराय ही हिंदी में प्रकाश में लाये, उनको ऐसी हिंदी में ढालते हुए जो जहां तक मुमकिन हो प्रेमचंद की ही हिंदी लगे। प्रेमचंद की छप्पन कहानियां ढूंढ़ के लाये ख़ासकर उर्दू के रिसालों से, और उन्हें भी हिंदी का जामा पहना कर, जैसा कि उन्होंने खुद ही कहा, ‘गुप्त-धन’ नाम से दो खंडों में छापा। इसी प्रकार प्रेमचंद के सैकड़ों लेखों और संपादकीय टिप्पणियों का तीन जिल्दों में संग्रह छापा ‘विविध प्रसंग’ नाम से। जैसा कि उल्लेख हो चुका है, प्रेमचंद के पत्र भी दो खण्डों में छापे ‘चिट्ठी-पत्री’ नाम से।’
राजेन्द्र कुमार का कहना है कि ‘अमृतराय रामविलास शर्मा से असहमत होते हैं तो इसलिए नहीं कि रामविलास शर्मा का हर हाल में विरोध ही करना है, बल्कि इसलिए कि रामविलास जी अपने फ़तवानुमा निष्कर्षों पर पुनर्विचार करें। वैसे यथास्थान अमहमत तो अमृतराय अकसर उन लेखकों से भी होते हैं, जिन पर रामविलास शर्मा द्वारा लगाये गये आरोपों को एकांगी मानते हैं। उदाहरण के लिए, राहुल के बारे में रामविलास शर्मा के इस निष्कर्ष को वे उनकी नासमझी बताते हैं कि ‘जहाँ स्वाधीनता, जनतंत्र और प्रगतिशील साहित्य के मोर्चे का सवाल है, मैं राहुल जी को हिंदी लेखकों में उस मोर्चे का प्रबल शत्रु समझता हूं।’ (संदर्भः ‘प्रवाह’ के मार्च 51 के अंक में छपा रामविलास जी का लेख) लेकिन राहुल के बारे में अमृतराय यह भी बताने में संकोच नहीं करते- “पंद्रह अगस्ती आज़ादी के सवाल पर मैं उनसे भिन्न मत रखता हूँ। पाकिस्तान और उर्दू के सवाल पर मैं उनसे भिन्न मत रखता हूं। मेरी समझ में इन प्रश्नों पर उनके दृष्टिकोण में सांप्रदायिक ढंग की असहिष्णुता है और दायित्वबोध की कमी है जो उनके जैसे ऊंचे और प्रभावशील जनवादी विचारक को शोभा नहीं देती।’’ (‘साहित्य में संयुक्त मोर्चा, पृ0 152)।’
रेखा अवस्थी का कहना है कि ‘अमृतराय का वैविध्यपूर्ण मूल्यांकन हिंदी कहानी में उनकी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति का सूचक है। उनकी कहानियां, रिपोर्ताज, रेखाचित्र, संस्मरण जैसी विधाओं को भी अपनी यथार्थवादी कथात्मकता में समन्वित कर लेती हैं। उनके कथ्य और शिल्प में व्यंग्यात्मक शैली ने उनकी वैचारिक जीवन दृष्टि को पूरी तरह से व्यक्त करने में कलात्मक योगदान किया है और हिंदी भाषा को प्रतिरोध की व्यंजना से समृद्ध किया है।’
विष्णुकांत शास्त्री ने अपने संस्मरण में लिखा है कि ‘प्रगतिशील लेखक संघ के कठमुल्लेपन से भी वे खिन्न थे। कम्युनिस्ट पार्टी तो उन्होंने 1957 में ही छोड़ दी थी, किंतु वे प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य बने रहे। उनकी राय में अब यह उठती दूकान है। उनके अनुसार इसका एक प्रमाण यह भी है कि सन् 1936 में बन्ने भाई इसके सेक्रेटरी थे और 1970 में भी वे ही हैं। अब इसका उपयोग इसके सहारे नेतागिरी करने का, रूस, पूर्वीय यूरोप आदि घूमने का ही रह गया है। अब नये और ईमानदार लोग या तो इसमें आते नहीं या आते भी हैं तो तुरंत इसके कार्यकलाप से विभ्रांत हो अलग हो जाते हैं। यह कथन दुःखद हो सकता है पर सत्य है।’
रणजीत साहा लिखते हैं कि ‘इन तीनों (सुभाष-सत्यजित-अमृत) महारथियों के रचनात्मक क्षेत्र अलग-अलग रहे लेकिन तीनों ही अपनी-अपनी प्रतिश्रुतियों के प्रति आजीवन समर्पित रहे। तीनों ही अपनी युगीन आकांक्षाओं को अपने भावादर्शों के अनुरूप संबोधित करते रहे। कहना न होगा, जिनकी याद हमेशा हरी रहेगी में अमृत जी ने अमृतलाल नागर, कृशन चन्दर, जैनेंद्र कुमार, निराला, प्रेमचंद, फादर कामिल बुल्के, मक़बूल फिदा हुसेन, महादेवी, रांगेय राघव, राधाकृष्ण, राहुल सांकृत्यायन और सुहैल अज़ीमाबादी को बड़ी शिद्दत से याद किया है और उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं को अपने निकष और अनुभव के आधार पर देखा, परखा और संजोया है। सुभाष मुखोपाध्याय के लिए वह शीर्षक में ‘बक्सा के एक शेर के नाम’ और सत्यजित के साथ ‘महान् कलाकार, महान आदमी’ जोड़ते हैं। अमृतराय ने अपने संस्मरणों में इन सबके बारे में कुछ-न-कुछ ऐसा अवश्य बताया है, जिससे उनके व्यक्तित्व का अज्ञात पक्ष या अनजाना पहलू उजागर हो जाता है।’
अमृतराय की कहानियों का विवेचन करते हुए शंभु गुप्त ने लिखा है- ‘सांप्रदायिकता, भारत-विभाजन के समय हुए दंगे, हिंदुत्ववाद की गहरी और व्यापक जड़ें, आजादी की वर्गीय वास्तविकता, खोखली योजनाबाज़ी, बंधक और बिकी हुई न्याय-व्यवस्था, युवा पीढ़ी की क्रांतिकारिता और समय की प्रतिक्रांतिकारी शक्तियां, कांग्रेस बेईमानियां और दोग़लापन, भारतीय/हिंदू समाज की पितृसत्तावादी अंतःसंरचना; अपने रचना-काल के मद्देनज़र प्रायः हर ज़रूरी और प्रासंगिक मुद्दे पर अमृतराय ने कहानियां लिखीं। ऊपर जिन कहानियों के नाम लिये गये, उनमें तो प्रमुखता के साथ ये मुद्दे आए ही हैं, इनके अलावा भी बहुत सारी कहानियों में टुकड़ों-टुकड़ों में और संदर्भों के बतौर इनका अंकन हुआ है। संदर्भ के रूप में हुआ यह अंकन इस बात की तसदीक़ करता है कि लेखक का ज़ेहन किस क़दर इन मुद्दों से लबरेज़ है, कैसे हर समय वे उसके दिमाग़ पर छाये रहते हैं। ये संदर्भ मिलकर बड़े विश्लेषण की मांग करते हैं।’
रमेश अनुपम लिखते हैं कि ‘फ़ासिज़्म के जिस खतरे को आज पूरा देश महसूस कर रहा है, उस फ़ासिज़्म को लेकर सन् 1947 में स्वयं अमृतराय की राय क्या थी, इसे इस लंबी टिप्पणी के माध्यम से ही समझा जा सकता है ’अब एक स्वाभाविक सा प्रश्न यह उठ सकता है कि ये तो युद्ध की कहानियां है। अब युद्ध समाप्त हो जाने पर इन्हें प्रकाशित करने में अनुवादक का क्या प्रयोजन है? इसी प्रश्न पर मुझे कुछ कहना है। पहली बात तो यह कि हिटलर का अंत हो जाने पर भी फासिज़्म का अंत नहीं हुआ है। ऐसी दशा में जनता का फासिस्ट विरोधी संग्राम न रुका है और न रुक सकता ही है। साम्राज्यवादी समाचार पत्रों तक से यह बात साफ़ है कि जर्मनी में और दूसरी जगहों पर फासिज़्म को फिर से जिलाने के लिए ब्रिटिश और अमेरिकन साम्राज्यवाद की ओर से अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों का जाल फिर से बिछाया जा रहा है। जिन आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों में फासिज़्म का जन्म होता है वे काफी हद तक अब भी वर्तमान हैं।’
सियाराम शर्मा लिखते हैं कि ‘किसी लेखक या आलोचक का अपने युग के ज्वलंत सवालों से टकराना ही उसकी उत्तरजीविता का सबसे बड़ा प्रमाण है। अपने युग के सवालों और चुनौतियों से बचकर कोई भी लेखक बड़ा नहीं बन सकता। अमृतराय अपने समस्त लेखन में अपने समय के सवालों से जूझते और टकराते दिखाई पड़ते हैं। आज विश्व स्तर पर पूंजीवाद की गतिरुद्धता के कारण फासीवाद की प्रवृत्तियां पुनः सिर उठा रही हैं। आज जब फासीवादी हमलों से हमारे देश का ताना-बाना बिखर रहा है, ऐसे में तत्कालीन फासीवाद के विरुद्ध अमृतराय का संघर्ष हमें शक्ति देता है। वे स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि ‘फासिज़्म पूंजीवाद की सबसे स्पष्ट और खूंखार शक्ल है।’ देश में वर्ग चेतना पैदा न हो और जनता वास्तविकता से दूर रहे इसलिए वह अपने प्रोपेगैंडा की मशीनरी से जनता के समक्ष झूठ, फरेब और धोखे की टट्टी खड़ी किये रहती है। फासिस्ट सरकारें अपने भीतर के सड़ते घावों पर पर्दा डालने के लिए झूठ और फरेब की चादरें बुनती हैं। सुसंस्कृत मनुष्य परतंत्र नहीं हो सकता और फासिज़्म मनुष्य को परतंत्र बनाने का इच्छुक है। अतः वह सबसे पहले संस्कृति पर हमला करता है।’
शम्भुनाथ का मानना है कि ‘कलम का सिपाही’ अमृतराय की अद्वितीय कृति है, उन्होंने उसे बड़े मन से लिखा है, ‘मैं कहना चाहता था कि यह मेरी ही चीज़ है जो मैं लिख रहा हूं, कि यह भी एक उपन्यास ही है जिसका नायक प्रेमचंद नाम का एक आदमी है। फर्क बस इतना ही है कि यह आदमी मेरे दिमाग की उपज नहीं है….।’ (भूमिका)। इस जीवनी की छाप अमृतराय के मन पर हमेशा बचा रह जाना स्वाभाविक है। उन्होंने इसमें लिखा था, ‘राजनीति में आजकल ख़ासा सन्नाटा है, वह दांव-पेच की लड़ाई चल रही है। सरकार अपनी भेदनीति से राष्ट्र के टुकड़े कर देना चाहती है और राष्ट्र अपनी आत्मा और अपनी एकता की रक्षा में लगा है। ‘भारत पर भेदनीति के आधार पर राज करने का एक लंबा इतिहास है। सत्ता का प्राचीन काल से ही एक मजबूत हथियार है भेदभाव। इसी तरह भारत का अपनी आत्मा और अपनी एकता के लिए किये गये बौद्धिक सांस्कृतिक संघर्षों का भी एक दीर्घ इतिहास है। प्रेमचंद का पूरा साहित्य इसी का आईना है।’
कुमार वीरेंद्र लिखते हैं कि ‘जो भी हो, अमृतराय ने ‘हंस’ के दस वर्षों (1942-52) के संपादन-काल में अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के बावजूद उसकी अलग पहचान बनाये रखी, इससे किसी को इनकार न होना चाहिए और न ही यह स्वीकार करने में किसी को कोई कठिनाई होनी चाहिए कि अनेक प्रकार के दबावों के बावजूद उन्होंने साहित्यिक मूल्यों को बनाये रखा। उनकी मूल्यगत प्रतिबद्धताओं के कारण ‘हंस’ कभी भी आर्थिक रूप से लाभदायी पत्रिका के रूप में स्थापित न हो सकी। लेकिन जो नयी तब्दीलियां हो रही थीं, नया विकास हो रहा था, सामाजिक संदर्भों में जो परिवर्तन हो रहे थे, आजादी के बाद यथार्थ की जो विविध अवधारणाएं उभर रही थीं, उस पर ‘हंस’ की निगाह थी और इसके माध्यम से अमृतराय ने सार्थक बहसें चलायीं।
अमृत जी उस गुट से भी बराबर टकराते रहे और ‘हंस’ के माध्यम से लगातार प्रतिवाद-प्रतिरोध करते रहे, जो प्रगतिशीलों के विरोध में जोरों से काम करते हुए मार्क्सवादियों पर हमले कर रहा था और देश, समाज और जीवन के नये संदर्भों को छोड़ विदेशी बासी विचारों का अनुकरण कर रहा था। यहां तक कि रामविलास शर्मा जैसे अपनों ने भी जब दर्द दिया और तलवारें भांजीं तो अमृतराय को भी खड्गहस्त होना पड़ा, और स्वीकारना पड़ा कि ‘कहने की ज़रूरत नहीं कि मेरा इस तरह सोचना और सोचना ही नहीं हंस के माध्यम से महीने के महीने उसको परिवेशित करना मेरे कई साथियों को प्रिय नहीं था। निश्चय ही उन्हें इसमें मेरे पलायन की गंध आती होगी और इस नाते मैं उनकी दृष्टि में किंचित् संदिग्ध और अपांक्तेय रहा।’
अमृतराय द्वारा अनूदित ‘अग्निदीक्षा’ पर लिखते हुए शंभु गुप्त लिखते हैं कि ‘अपने देश भारत के संदर्भ में अमृतराय अपनी कहानियों में आज़ादी के आसपास और उसके कुछ समय बाद तक चलते रहे क्रांतिकारी-परिवर्तनकारी जनांदोलनों के हवाले देते हैं। ‘लाल धरती’ की ही ‘तेलंगाना के वीरों से’, ‘नयी दुनिया के मेमार’, ‘बक्सा के एक शेर के नाम’, ‘ज़िंदगी का खिराज’, ‘बाल बच्चेदार कबूतर’, ‘अभियोग’ आदि कहानियां इस दृष्टि से देखी जा सकती हैं। इन कहानियों की वैचारिक पीठिका कुल मिलाकर स्तालिनवाद ही है। भारत की कथित अहिंसक आजादी की इससे तुलना कई स्थानों पर इन कहानियों में बाकायदा मिलती हैं।… हिंदी के प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह अमृतराय से और उनकी कहानियों से लगभग परहेज़-जैसा व्यवहार करते रहे थे। कहीं इसका कारण मूलभूत रूप से यह तो नहीं था कि नामवर जी की व्यावहारिक आलोचना में चूंकि नेहरूवाद एक प्रमुख/प्रधान/अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण अवयव की तरह सन्निहित है जब कि अमृतराय की कहानियां; ख़ासतौर पर ‘लाल धरती’ संग्रह की कहानियां; स्टालिनवाद को प्रस्थापित करती प्रतीत होती हैं। ये दोनों विचार-सरणियां स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे के बहुत दूर और असमन्वित रूप में दिखाई देती हैं अतः इनसे नाभिनालबद्ध लेखकों के बीच भी यह दूरी होना स्वाभाविक है।… जो हो। कहना यहां यह है कि किसी भी लेखक का सबसे अच्छा आकलन किसी के कहे-सुने पर नहीं, बल्कि उसकी स्वयं की रचनाओं की वस्तु और अंतर्वस्तु के आधार पर व उनके सतर्क परीक्षण द्वारा ही किया जा सकता है।’
विश्वनाथ त्रिपाठी का कहना है कि ‘अमृतराय का साहित्यिक व्यक्तित्व यशस्वी था, वे विज्ञापनी मानसिकता से दूर थे। अमृतराय आकर्षक व्यक्तित्व के युवक लगते थे। हरिशंकर परसाई ने उन्हें साहित्य में राज कपूर कहा है।’ मुरली मनोहर प्रसाद सिंह का मानना है कि ‘आज अमृतराय को सामान्य और विशिष्ट दोनों हिंदी पाठक ‘कलम का सिपाही’ के रचनाकार के रूप में गहरी आत्मीयता और अभिन्नता के साथ याद करता है क्योंकि कलम का सिपाही सिर्फ जीवनी नहीं है बल्कि हिंदी उर्दू और स्वाधीनता आंदोलन की सभी महत्त्वपूर्ण प्रवृत्तियों का साहित्यिक इतिहास और उल्लेखनीय दस्तावेज़ भी है।’
‘अ हाउस डिवाइडेड’ पर लिखते हुये गजेंद्र पाठक लिखते हैं कि ‘यह किताब हिंदी और उर्दू के बंटे हुए घर की टीस से पैदा हुई अमृतराय की बेचैनी की सर्जनात्मक निष्पत्ति है। हिंदी और उर्दू का घर उन्हें अपनी जाति की विरासत की वजह से प्राप्त हुआ हो या नहीं लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि यह घर उनकी पैतृक विरासत से जुड़ा हुआ है। प्रेमचंद हिंदी और उर्दू दोनों की उपलब्धि हैं और अमृतराय हिंदुस्तान की भाषिक रवायत की इस ख़ूबसूरती में अपने पिता के योगदान से बेखबर नहीं थे। जिस घर को सुंदर बनाने में प्रेमचंद जैसे पिता का योगदान हो उस घर के बंटने पर अमृतराय इस किताब के जरिये अपने मानसिक हाहाकार को अभिव्यक्त करते हैं।’
अमृतराय जन्मशती वर्ष में उनके कृतित्व का लेखा-जोखा और मूल्यांकन प्रस्तुत करने के पीछे उनके सृजनात्मक अवदान की सार्थक पड़ताल करना रहा है, जिससे नयी पीढ़ी हिन्दी के अपने इस बड़े रचनाकार को बखूबी जान सके।