— राजेन्द्र राजन —
सोमवार 27 सितंबर को संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा आहूत भारत बंद को शानदार सफलता मिली। उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम, भारत के हर हिस्से में बंद रहा। जिस तरह से इसकी तैयारी चल रही थी और देश के सारे किसान संगठन जिस तरह इसे कामयाब बनाने के लिए कमर कसे हुए थे और जिस तरह इसे तमाम विपक्षी दलों से लेकर हर राज्य में सामाजिक संगठनों-संस्थाओं का समर्थन मिला, उसे देखते हुए बंद की जोरदार कामयाबी तय थी। सिर्फ उन लोगों को हैरानी हो सकती है जो किसान आंदोलन को मीडिया की निगाह से देखते रहे हैं। बहुत सारे चैनल तो किसान आंदोलन को एक नहीं, कई बार समाप्त या समाप्तप्राय बता चुके थे। क्या विडंबना है कि जिनका काम ही घटनाओं, गतिविधियों, स्थितियों पर नजर रखना, सूचनाएं जुटाना और देना है, वही किसान आंदोलन के बारे में सबसे ज्यादा गाफिल हैं। या जानबूझ कर गाफिल बने हुए हैं?
संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा आयोजित शायद यह तीसरा भारत बंद था। इसके पहले के भारत बंद के दो आह्वान को भी सफल ही कहा जाएगा, लेकिन यह तीसरा बंद और भी जोरदार रहा। इससे यह बात एक बार फिर शिद्दत से जाहिर हुई कि किसान आंदोलन का और विस्तार हुआ है और अब यह एक राष्ट्रीय आंदोलन होने का दावा कर सकता है। यह सही है कि पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड के तराई और राजस्थान के एक हिस्से में आंदोलन जितना सघन है उतना बाकी देश में नहीं, लेकिन अब यह नहीं कहा जा सकता कि यह तो सिर्फ एक-दो राज्य का आंदोलन है, बाकी देश के किसानों को तीन कृषि कानूनों से कहां परेशानी है!
तीन हफ्ते पहले हुई मुजफ्फरनगर की किसान पंचायत के बाद यह दूसरा मौका है जब किसान आंदोलन ने अपनी ताकत और जज्बे का परचम बुलंदी से लहराया है और दुनिया भर का ध्यान खींचा है। इससे उन लोगों की उम्मीदों पर पानी फिर गया है जो सोचते थे कि थक कर किसान आंदोलन खुद अपनी ऊर्जा खो देगा, या किसी आंतरिक कलह की भेंट चढ़ जाएगा। पिछले दस महीनों में किसान आंदोलन के नेतृत्व मंडल ने जैसी परिपक्वता और संजीदगी दिखायी है वह उम्मीद से बढ़कर है। मोर्चा ने श्रमिक संगठनों से लेकर आशा और आंगनवाड़ी सहायिका जैसे स्कीम वर्कर्स तक और अन्य मेहनतकश तबकों से जिस तरह जुड़ाव कायम किया है वह आंदोलन को और पुख्ता करेगा।
संयुक्त किसान मोर्चा ने पिछले दस महीनों में हर राष्ट्रीय और आंचलिक नायक को याद किया है। सर छोटूराम, बाबासाहब, फुले, भगतिसंह, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष बोस, शहीद ऊधम सिंह, बिरसा मुंडा…। प्रेरणा देनेवाले सारे दिवस भी मनाए और उन दिवसों को आंदोलन के किसी न कसी कार्यक्रम से जोड़ा। आठ मार्च के अलावा अलग से भी महिला किसान दिवस मनाया। इस तरह बताया कि सच्चा राष्ट्रवाद क्या होता है – देश के लोगों का एक दूसरे के सुख-दुख से जुड़ना। तमाम कष्ट उठाते हुए दिल्ली के बार्डरों पर धरने न सिर्फ जारी हैं बल्कि वे निशुल्क स्वास्थ्य जांच शिविर आयोजित करने, कुछ निशुल्क इलाज की व्यवस्था करने, पुस्तकालय चलाने जैसे समाज सेवा के काम भी करते हैं। भारत बंद के दिन राजस्थान में रक्तदान शिविर का भी आयोजन हुआ।
इस सब के अलावा, मौजूदा किसान आंदोलन का एक बड़ा योगदान सांप्रदायिक वैमनस्य को मिटाने की दिशा में रहा है। हिंदू-सिख तनाव पैदा करके आंदोलन को खत्म करने की सत्ताधारियों की चाल तो इसने नाकाम की ही, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की फिजां बदल दी, जहां 2013 में हुए मुजफ्फरनगर के दंगों के कारण हिंदू-मुसलिम करने का खेल आसान हो गया था।
इसलिए स्वाभाविक ही, जो लोग देश में सांप्रदायिक सोच के प्रसार और सांप्रदायिक तनाव के उभार से तथा लोकतांत्रिक अधिकारों पर हो रहे हमलों से दुखी व निराश थे, किसान आंदोलन को एक बड़ी उम्मीद की तरह देख रहे हैं।
लेकिन यह सब कर दिखानेवाले किसान, हमारे सत्ताधारियों की निगाह में किसान कहलाने तक के हकदार नहीं हैं। उनकी निगाह में ये ‘नकली’ किसान हैं! उनका आंदोलन ‘प्रायोजित’ आंदोलन है!
दरअसल किसानों का गुनाह यह है कि वे सड़कों पर उतर आए हैं और कायदे-कानून समझना खुद शुरू कर दिया है!
कल्पना कीजिए कि केंद्र में कांग्रेस की सरकार होती और ऐसा आंदोलन चल रहा होता, तो भाजपा-आरएसस की बोली क्या होती? तब ये अन्नदाता अन्नदाता कहते हुए हमदर्दी में मरे जा रहे होते! लेकिन अब ये खालिस्तानी, एजेंट, प्रायोजित, गुमराह, मवाली सब हैं, बस किसान नहीं हैं! इनकी लानत-मलामत सत्ताधारी वर्ग और सत्ता द्वारा परदे के पीछे से नियंत्रित मीडिया इसलिए कर रहा है क्योंकि इनके आंदोलन ने रंग में भंग कर दिया है। यह सच्चाई सामने दीवार पर एक चटख इबारत की तरह लिख दी है कि मोदी जी वास्तव में अपने किन लोगों के लिए अठारह घंटे काम करते हैं! वरना क्या जरूरत थी कृषि मंडियों से संबंधित नया कानून बनाने की, जबकि यह विषय राज्यों के तहत आता है?
तीनों कृषि कानूनों का औचित्य बताते हुए एक दफा संसद में प्रधानमंत्री ने कहा कि बाल विवाह रोकने जैसे प्रगतिशील कानून जब बनाये गये थे तब उनका भी इसी तरह विरोध हुआ था। क्या कृषि कानूनों की तुलना समाज सुधार के कानूनों से की जा सकती है? जमाखोरी रोकने का कानून बना तो वह एक प्रगतिशील कानून था। क्या चाहे जितनी जमाखोरी की छूट देनेवाला कानून भी एक प्रगतिशील कानून है?
और देश के सभी किसानों को स्वामीनाथन आयोग के फार्मूले के मुताबिक एमएसपी की गारंटी देने में मोदी जी को क्या परेशानी है, उन्होंने तो इसका वादा किया था। एक-दो नहीं, सैकड़ों रैलियों में। भाजपा के मंत्री कहते हैं कि एमएसपी पर सरकार लिखित आश्वासन देने को तैयार है। भाजपा ने अपने घोषणापत्र में फसल का लागत से डेढ़ गुना दाम सुनिश्चित करने का वादा किया था। वह लिखित आश्वासन ही तो था! उसपर अमल क्यों नहीं किया, सात साल हो गए। अठारह घंटे काम करनेवाले प्रधानमंत्री के लिए क्या सात साल का समय कम है?
किसान आंदोलन के सवालों से बचने या निपटने के लिए अब प्रधानमंत्री ने छोटे किसान का जुमला निकाल लिया है, कहते हैं कि कृषि कानूनों का विरोध बड़े किसान कर रहे हैं, छोटे किसानों का तो इन कानूनों से फायदा ही फायदा है। इस जुमले के जरिए उन्होंने भाजपा कार्यकर्ताओं को यह संदेश दे दिया है कि उन्हें क्या प्रचार करना है। प्रधानमंत्री छोटे किसानों के लिए कितने चिंतित हैं यह आप डीजल के दाम से समझ सकते हैं। चाहे तो यह भी पता लगा सकते हैं कि कितने छोटे किसानों को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का लाभ मिला? यह भी पता लगा लें कि किसान सम्मान निधि का पैसा क्या खेतिहर मजदूर और बटाईदार को भी मिलता है? क्या छोटे किसानों के लिए, वृद्धावस्था में, पेंशन की भी व्यवस्था मोदी जी ने कर दी है?
दरअसल, मोदी जी बरबादी को भी सपने की तरह बेचना चाहते हैं। नोटबंदी में उन्होंने यही किया था। फसल बीमा योजना में भी यही किया। जिस दिन उन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली को खत्म करना होगा, वे उसे सपने की तरह बेचेंगे, देखो हमने गरीबों को राशन के लिए लाइन में खड़े होने से आजादी दिला दी। तीन कृषि कानूनों को लेकर भी वे यही करना चाहते हैं। यानी अब एमएसपी को भूल जाओ। दुगुनी आमदनी के वायदे को भूल जाओ। यह नया तोहफा लो।
उनकी समस्या यह है कि यह तोहफा किसानों को पसंद नहीं आया। अब मोदी जी इसे सपने की तरह कैसे बेचें?
भारत बंद की सफलता के बाद एक वीडियो-संदेश जारी कर हमारे मित्र योगेन्द्र यादव ने सवाल रखा कि इस बंद से क्या खुलेगा? क्या मोदी जी की आत्मा का द्वार इससे खुलेगा? खुल जाए तो बहुत अच्छा। लेकिन उम्मीद बहुत कम है। ज्यादा संभावना यही है कि वे किसान आंदोलन से और उसके यूपी मिशन से हथकडों के जरिए और अपने मीडिया-बल से निपटना चाहेंगे। फिर चुनाव में धन-बल और सोशल इंजीनियरिंग के खेल का आसरा तो है ही।
मौजूदा किसान आंदोलन के कारण भाजपा की छवि किसान विरोधी बनती जा रही है। इससे होनेवाले नुकसान को मोदीजी भी समझते ही होंगे। फिर भी वे टस से मस नहीं हो रहे हैं तो इसका एक कारण उनका अहंकार होगा। लेकिन और भी कारण होंगे।
उनके पक्के समर्थक कट्टर मिजाज के लोग हैं, अड़ियल रवैये और यहां तक कि दमन करने से भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता बल्कि उनके बीच ‘मजबूत नेता’ के रूप में मोदी जी की ‘ब्रांडिंग’ ही होती है। दूसरे, कृषि कानूनों पर न झुक कर मोदी जी कॉरपोरेट जगत को यह जताना चाहते होंगे कि हर तरह का राजनीतिक जोखिम उठाकर और संसदीय नियमों-प्रक्रियाओं को ताक पर रखकर भी वे कॉरपोरेट के बताये एजेंडे को लागू करवा सकते हैं। किसी पर खास मेहरबानी लुटानी रही हो, तो वह भी एक वजह हो सकती है।
लेकिन ये सत्ता में वापसी के शुरुआती महीने नहीं हैं, जब सबकुछ उनके लिए खुशनुमा था और सरकार के गलत से गलत काम के खिलाफ जन-लामबंदी करना बहुत कठिन होता। यह मोदी जी का वह दौर है जब चारों तरफ जन असंतोष खदबदा रहा है। महंगाई, बेरोजगारी और सरकारी उपक्रमों, परिसंपत्तियों को धड़ाधड़ बेचे जाने से लेकर डराने-धमकाने के लिए छापे डालने तक, सरकार कठघरे में खड़ी नजर आती है। एक सर्वे भी बता चुका है कि मोदी जी की लोकप्रियतका का ग्राफ काफी नीचे आ गया है।
ऐसे में किसान आंदोलन का चलते रहना और फैलते रहना मोदी जी के लिए बहुत महंगा साबित हो सकता है। लेकिन क्या वह झुकेंगे? अगर वे राजनीतिक नुकसान के अंदेशे से तीन कृषि कानूनों को वापस ले लें तो वे नहीं चाहेंगे कि किसान आंदोलन एमएसपी की गारंटी पर आकर टिक जाए। भारतीय खाद्य निगम को गले तक कर्ज में डुबोकर उन्होंने अपनी दिशा तय कर रखी है।
फिर बंद से क्या खुलेगा? अधिक संभावना यही है कि एक ज्यादा बड़ी लड़ाई का द्वार खुलेगा।