गांधी, भगतसिंह और आंबेडकर : विकल्प की त्रिवेणी

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— पुनीत —

गांधी को हम जितना दबाने की कोशिश करते हैं उनकी स्मृति उतनी प्रबलता से लौट आती है। आज की राजनीति मूल्यविहीन हो गई है, इसमें कोई दो राय नहीं। जब राजनीति में मूल्य और आत्मा की बात होती है, गांधी लौट आते हैं। मानो जैसे कभी गए ही न हों। गांधी को मिटाने की हसरत रखने वाले लोगों, उनके हत्यारे की पूजा करने वालों को भी उनके सामने नतमस्तक होना पड़ता है। वामपंथी और आंबेडकरवादी भी, उनको गाली देने के लिए ही सही, याद जरूर करेंगे। मानो गांधी की आत्मा के साथ वो बहस कर रहे हों। मैं सोचता हूं किसी अप्रासंगिक आदमी के पीछे वो अपना बहुमूल्य समय क्यों बर्बाद करते हैं।

अपना गुस्सा दिखाने के लिए वाट्सऐप एक्टिविस्ट सिर्फ शास्त्री जी का स्टेटस लगाएंगे। “जय जवान जय किसान” नारे का हवाला देंगे। ऐसे ‘वाट्सऐप वीरों’ ने किसान आंदोलन में क्या भूमिका निभाई है, उन्हें खुद से पूछना चाहिए। जब देश के जवान और किसान सरकार के आमने सामने थे, तब वे लोग क्या कर रहे थे, तब क्या गूगल पर शास्त्री जी की एक भी तस्वीर नहीं मिली?

गांधी, धर्म और जाति

जो लोग यूरोपीय सेकुलरिज्म से प्रभावित होकर धर्म और राजनीति को अलग रखना चाहते है, उन्हें गांधी बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। हमें यह पूछना चाहिए कि क्या यूरोपीय सेकुलरिज्म भारत में अब तक सफल हो पाया है? क्या यह हमारी परिस्थितियों में व्यावहारिक है? गांधी की राजनीति धर्म के बिना संभव नहीं थी। पर उनके धर्म ने उन्हें दूसरों से नफरत करना सिखाया या मोहब्बत? यह सवाल पूछना आवश्यक है। भारत के लोग बहुत धार्मिक हैं, यह कोई नई बात नहीं है। तो ऐसे लोग राजनीति में धर्म का त्याग कर देंगे, ऐसी सोच क्यों? जब हमारे लोग अपने मूल्य और संस्कार धर्म से लेते हैं, तो वे उन मूल्यों के आधार पर अपनी राजनीति क्यों नहीं चला सकते?

गांधी जातिवादी नहीं थे। वह जाति प्रथा के विरुद्ध थे। ऐसा कहना सही है कि पहले वह वर्णाश्रम के कायल थे लेकिन बाद में तो उनके रुख में इतना क्रांतिकारी बदलाव आया कि वह अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन देने लगे। छुआछूत के खिलाफ तो वह शुरू से थे उसे मिटाने के लिए कृतसंकल्प थे। इसीलिए उन्होंने सन 1932 में हरिजन सेवक संघ की स्थापना की थी। उन्हीं के आग्रह पर आंबेडकर पर संविधान की मसविदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया था।

गांधी, भगतसिंह और आंबेडकर

आज के भारत की राजनीति में इन तीन इतिहास पुरुषों की आत्मा और उनके विचार घूमते रहते हैं। साधारणतया गांधी को भगतसिंह और आंबेडकर के विरुद्ध खड़ा किया जाता है। ऐसा करना सही है या गलत, मैं नहीं जानता। पर क्या ऐसा करना व्यावहारिक है, लाभदायक है? मेरे हिसाब से बिलकुल नहीं। क्या आज की स्थिति में जब भारत की आत्मा और मूल्यों को खतरा है, तब हमें इनमें से कौन बचा सकता है? कोई एक, कोई दो या तीनों? मेरे विचार में तीनों। मुझे एक तस्वीर याद आ रही है, कन्हैया कुमार ने कांग्रेस में शामिल होने के बाद, राहुल गांधी को एक तस्वीर भेंट की थी जिसमें गांधी, आंबेडकर और भगतसिंह तीनों थे। मैं कन्हैया कुमार का समर्थक नहीं हूं, परंतु इस तस्वीर के आधार से सहमत हूं। आज की वैकल्पिक राजनीति में तीनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

गांधी के धर्म और राजनीति के परिपेक्ष्य में सोच को समझे बिना हम सांप्रदायिकता के जहर से मुक्त नहीं हो सकते। भगतसिंह के समाजवादी भारत को समझे बिना, हम अंबानी, अडानी और सरकार की तिगड़ी की पर्यावरण, मजदूर, गरीब विरोधी दमनकारी नीतियों से आजाद नहीं हो सकते। आंबेडकर के संवैधानिक मूल्य तो भारत को बचाने की लड़ाई में सबसे बड़े हथियार हैं ही, उनके सामाजिक मुक्ति और कल्याण को अपनाए बिना तो भारत का गणतंत्र जो अभी कमजोर है, बिखरा हुआ है, सुदृढ़ हो ही नहीं सकता। तीनों का आधुनिक भारत की आत्मा पर अलग प्रभाव और छाप है। आज इनके समर्थकों को इनके बीच अंतर से ज्यादा इस बात पर चिंतित होना चाहिए कि आरएसएस-बीजेपी की जोड़ी इस देश के साथ जो कर रही है, वह इन तीनों के सपनों के भारत को तबाह कर रही है। गांधी को भगतसिंह और आंबेडकर के खिलाफ खड़ा रखना उनके निहित स्वार्थ को पूरा करता है। इससे भारत में एक वैकल्पिक सोच और विपक्ष का बनना मुश्किल हो रहा है। एक विकल्प की राजनीति तीनों को साथ लेकर ही बनाई जा सकती है।

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