गांधीजी का उत्तराधिकार

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— नंदकिशोर आचार्य —

हात्मा गांधी के आलोचक ही नहीं, उनके अधिकांश प्रशंसक भी इस बात से बहुत व्यथित दिखाई देते हैं कि गांधीजी ने जवाहरलाल नेहरू को अपना उत्तराधिकारी क्यों घोषित कर दिया। उनका खयाल है कि यदि जवाहरलाल नेहरू के बजाय सरदार पटेल को गांधी ने अपना उत्तराधिकारी घोषित किया होता तो भारत के लिए अधिक बेहतर होता। कुछ लोगों का तो यह भी खयाल है – और अच्छे-खासे विद्वानों का भी – कि कांग्रेस का बहुमत तो सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में था, लेकिन गांधीजी के दबाव के कारण उन्हें जवाहरलाल नेहरू को स्वीकार करना पड़ा।

सबसे पहले तो यह स्पष्ट कर दिया जाना जरूरी है कि महात्मा गांधी के लिए ‘उत्तराधिकारी’ का आशय क्या था। क्या वह अपनी संपत्ति का उत्तराधिकारी तलाश रहे थे? क्या वह भारत को अपनी संपत्ति समझते थे, जिसे उत्तराधिकार में पंडित नेहरू को सौंप देना चाहते थे? क्या यह वक्तव्य देते समय वह अपने को भारत के प्रधानमंत्री पद पर देख रहे थे, जिसका उत्तराधिकारी वह जवाहरलाल नेहरू को घोषित कर रहे थे? ऐसा समझना निश्चय ही गांधीजी के साथ बड़ा अन्याय होगा।

महात्मा गांधी के बारे में कोई सोचता भी नहीं था कि आजादी मिलने के बाद वह प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति जैसे किसी पद पर आसीन होंगे। उन्हें राजनीतिक सत्ता के बरक्स एक स्वायत्त नैतिक सत्ता के रूप में ही देखा-समझा जा सकता था और जब वह नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर रहे थे निश्चय ही उनका आशय इस नैतिक सत्ता से ही रहा होगा। नैतिक सत्ता का उत्तराधिकारी वही व्यक्ति हो सकता था जो गांधीजी की तरह ही देश के सभी वर्गों के बहुसंख्यक लोगों के दिलों पर राज करता हो। जवाहरलाल नेहरू ही ऐसे व्यक्ति थे, जी गांधीजी के बाद कांग्रेस के नेताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय थे और गांधीजी की ही तरह जिनका गहरा भावनात्मक असर लोगों पर पड़ता था। इसी बात को पहचानते हुए गांधीजी ने स्पष्ट वैचारिक मतभेदों के बावजूद जवाहरलाल नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था।

जवाहरलाल नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित करनेवाला गांधीजी का वक्तव्य उन्नीस सौ बयालीस में उस समय दिया गया था, जब महात्मा गांधी ने औपचारिक तौर पर कांग्रेस का नेतृत्व छोड़ने का फैसला किया था। इस संबंध में एक प्रस्ताव कांग्रेस महासमिति की वर्धा बैठक में रखा गया था। हवा में अफवाहें थीं कि कांग्रेस के नेताओं और महात्मा गांधी, विशेष तौर पर नेहरू और उनके गहरी खाई बन चुकी है। इस वक्तव्य का फौरी उद्देश्य जहां इन अफवाहों पर विराम लगाना था, वहीं दूरगामी दृष्टि से जवाहरलाल नेहरू से कुछ अपेक्षाएं प्रकट करना भी था – साथ-ही-साथ इसमें नेहरू की राजनीतिक हैसियत का स्वीकार भी था।

वक्तव्य का संबंधित अंश इस प्रकार है : “किसी ने कहा कि पंडित जवाहरलाल और मैं विलग हो गए हैं। यह आधारहीन है। जवाहरलाल तभी से मेरा विरोध करते आ रहे हैं जब से वे मेरे जाल में फंसे। आप लाठी से वार करके पानी को बांट नहीं सकते। हमें विलग करना उतना ही मुश्किल है। मैंने हमेशा कहा है कि राजाजी नहीं, सरदार पटेल नहीं बल्कि जवाहरलाल ही मेरे उत्तराधिकारी होंगे। उनके मन में जो बात आती है वे कह देते हैं, लेकिन वे सदैव करते वही हैं जो मैं चाहता हूं। जब मैं चला जाऊंगा तो वे वही करेंगे जो मैं अभी कर रहा हूं। तब वे मेरी ही भाषा बोलेंगे। अंततः उन्हें मेरी भाषा बोलनी पड़ेगी। यदि ऐसा नहीं भी होता है, तो भी मैं कम-से-कम इसी विश्वास के साथ मरना चाहता हूं।”

इससे स्पष्ट होता है कि यह उत्तराधिकार किसी पद या प्रतिष्ठा का नहीं बल्कि भारतीय समाज के प्रति उन कर्तव्यों का उत्तराधिकार था जिन्हें गांधीजी निभा रहे थे और चाहते थे कि जवाहरलाल भी उन्हें उसी तरह निभाते रहेंगे। जवाहरलाल नेहरू ने उन कर्तव्यों को ठीक तरह से निभाया या नहीं, इसे लेकर बहस हो सकती है। मेरी अपनी राय में जवाहरलाल नेहरू इस दायित्व को निभाने में गांधीजी से भिन्न दिशा में ही गए। स्वयं उन्होंने नवंबर, 1963 में लोकसभा में दिए गए अपने एक वक्तव्य में यह स्वीकार किया था कि गांधीजी के रास्ते को छोड़ना एक भूल थी। लेकिन यह एक अलग बहस की बात है।

फिलहाल यह स्पष्ट समझ लेना जरूरी है कि गांधीजी जिस उत्तराधिकार की बात कर रहे हैं, वह प्रधानमंत्री पद का उत्तराधिकार नहीं है। वह केवल एक नैतिक दायित्व का उत्तराधिकार है, जिसे पूरा करना, न करना अथवा किसी अन्य तरीके से पूरा करना अंततः उत्तराधिकारी की मानसिक बनावट पर निर्भर करता है। इसलिए इस वक्तव्य को गांधीजी द्वारा जवाहरलाल नेहरू को भारत पर थोप दिए जाने के अर्थ में लेना न केवल गांधीजी के साथ अन्याय होगा बल्कि स्वयं नेहरू और कांग्रेस के अन्य नेताओं को गांधीजी की कठपुतलियां मान लेना होगा और ऐसा करना न केवल उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व के साथ बल्कि फिर स्वयं गांधीजी के साथ भी अन्याय होगा। गांधीजी का प्रशिक्षण लोगों को स्वतंत्र करता था और इसी कारण कुमारप्पा जैसे उनके अनुयायी स्वयं गांधीजी से मिलने से भी इसलिए इनकार कर सकते थे कि उन्होंने इसके लिए उनसे पहले समय नहीं लिया है। समय-समय पर कांग्रेस के नेता – राजाजी, सरदार पटेल, मौलाना आजाद, राजेंद्र बाबू आदि भी – गांधीजी से असहमति प्रकट करते रहते थे। आखिर भारत विभाजन तक का प्रस्ताव उन्होंने गांधीजी की सहमति पाये बिना ही स्वीकार कर लिया था। इसलिए वे जवाहरलाल नेहरू को सिर्फ गांधीजी के कारण प्रधानमंत्रित्व सौंप देंगे, यह मान लेना संगत नहीं लगता और न यह संगत लगता है कि उन्हें मनवाने के लिए गांधीजी उन पर कोई अस्वाभाविक दबाव डालते। फिर जिस समय यह वक्तव्य दिया गया, उस समय तो भारत छोड़ो आंदोलन भी नहीं हुआ था और न ही भारत के प्रधानमंत्रित्व के बारे में कोई मंत्रणा हो रही थी।

अधिकांश लोग इस बात को भी भूल जाते हैं कि जिस समय जवाहरलाल नेहरू को अंतरिम सरकार बनाने का निमंत्रण दिया गया, उस समय वह कांग्रेस के अध्यक्ष थे और इसी हैसियत से उन्हें निमंत्रण मिला था। कांग्रेस अध्यक्ष के नाते उन्हें स्वयं कांग्रेस कार्यसमिति ने अंतरिम सरकार बनाने का निमंत्रण स्वीकार कर लेने का निर्देश दिया था।

कांग्रेस कार्यसमिति की इस बैठक को गांधीजी ने सरदार पटेल के बजाय जवाहरलाल नेहरू के पक्ष में प्रभावित करने का किसी तरह का कोई प्रयत्न किया था, इसका कोई जिक्र प्राप्त नहीं होता। इसलिए यह मान लेना उचित नहीं लगता कि कांग्रेस के न चाहते हुए भी गांधीजी ने जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनवा दिया।

कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते जवाहरलाल को ही सरकार बनाने का निमंत्रण मिलना स्वाभाविक था। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इतिहास की अधिकांश अधकचरी पुस्तकों और आफिशियल बेबसाइट में भी मौलाना आजाद के बाद सीधे आचार्य कृपलानी को ही कांग्रेस अध्यक्ष बताया गया है। यदि मौलाना आजाद के विवरण को स्वीकार किया जाए तो यह भी मानना होगा कि गांधीजी भी इस समय सरदार पटेल को कांग्रेस अध्यक्ष चाहते थे, लेकिन आजाद ने अपनी ओर से सार्वजनिक रूप से नेहरू का नाम प्रस्तावित कर दिया था, अतः उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। स्वयं मौलाना आजाद ने भी बाद में अपने इस प्रस्ताव पर पश्चात्ताप प्रकट करते हुए लिखा है कि शायद उस परिस्थिति में सरदार पटेल नेहरू से अधिक उपयुक्त अध्यक्ष होते – यद्यपि उनके अनुसार भारत विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने वाले प्रथम कांग्रेस नेता भी सरदार पटेल ही थे। इसलिए गांधीजी के प्रशंसकों और आलोचकों, दोनों को उन्हें इस आरोप से तो मुक्त कर ही देना चाहिए कि उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को भारत पर थोप दिया।

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