— रामबाबू अग्रवाल —
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के साथ इंदौर शहर की भी ऐतिहासिक यादें जुड़ी हुई हैं। इंदौर ही वो शहर था जहां महात्मा गांधी के मन में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने का विचार पहली बार आया था।
इंदौर में महात्मा गांधी पहली बार 29 मार्च 1918 को हिंदी साहित्य समिति के मानस भवन का शिलान्यास और दूसरी बार 20 अप्रैल 1935 में इसी भवन का उदघाटन करने आए थे। भवन के उदघाटन के लिए पहुंचे बापू को इंदौर के नेहरू पार्क में बैठकर ही सबसे पहले हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का विचार आया था।
28 मार्च 1918 को 103 साल पहले हिंदी का प्रचार-प्रसार इंदौर से पूरे देश में पहुंचाने के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इंदौर आए थे। एक दिन बाद 29 मार्च 1918 को आठवें हिंदी साहित्य सम्मेलन के मंच से महात्मा गांधी ने 15 हजार लोगों को संबोधित करते हुए हिंदी के प्रचार-प्रसार का शंखनाद किया। बापू ने महाराजा होलकर से अनुरोध किया था कि अपने राज्य के सभी विभागों में हिंदी का प्रयोग कर इसे बढ़ावा दें। हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए महाराजा होलकर ने 10 हजार रुपए का दान महात्मा गांधी को दिया था। महात्मा गांधी चार दिन इंदौर में ही रुके थे।
जब लोग अपने हाथ से बग्घी खींचने लगे…
• 28 मार्च 1918 का दिन इंदौर के लिए स्वर्णिम था, जब महात्मा गांधी होलकर स्टेट रेलवे से इंदौर आए।
• ठीक 10 बजे गाड़ी स्टेशन पर रुकी तो कस्तूरबा गांधी गाड़ी से उतरीं। पता चला, गांधीजी अगली गाड़ी से आ रहे हैं।
• 12.00 बजे जैसे ही दूसरी गाड़ी पहुंची महात्मा गांधी की जय के नारे गूंजने लगे।
• स्टेशन के बाहर का अप्रतिम दृश्य, इंदौर की जनता का बापू के प्रति प्रेम और आदर का परिचायक था। बापू को जुलूस में ले जाने के लिए चार घोड़े वाली बग्घी सजायी गयी थी, लेकिन जनसमूह ने बग्घी को घोड़ों से अलग कर दिया और स्वयं ही अपने हाथों से खींचने की तैयारी में जुट गये। यह बापू को मंजूर नहीं था। उन्होंने बग्घी में बैठने से इनकार कर दिया। गाँधीजी के साथ आये लोगों ने कहा कि महात्मा गाँधी पैदल ही जाएंगे लेकिन लोगों का नारा था कि “महात्मा गाँधी को हाथोंहाथ बग्गी से ही ले जाएंगे।” अंत में जीत जनता की ही हुई और लोगों ने अपने हाथों से उनकी बग्घी को खींचा।
• जुलूस खजूरी बाजार पहुंचा तो आर्य स्कूल में लड़कियों ने महात्मा गांधी की वंदना का पाठ किया।
• आर्य सेवा समिति ने अभिनंदन पत्र प्रदान किया। ब्रिटिश गवर्नमेंट ने अपने नोटों और सिक्कों पर से हिंदी (देवनागरी) के अक्षरों को हटा लिया था। सम्मेलन में इसे पुनः अमल में लाने की आवाज उठायी गयी थी। यह प्रस्ताव इंदौर के सर सेठ हुकमचंद ने प्रस्तुत किया था।
• इसका समर्थन महात्मा गांधी और सभा में मौजूद बाकी लोगों ने किया।
• बाबू राजेंद्र प्रसाद प्रस्ताव लाये कि भारत के सभी विश्वविद्यालयों में विज्ञान, इतिहास और भूगोल के प्रश्नों के उत्तर हिंदी और अंग्रेजी में लिखना बच्चों की मर्जी पर रखा जाए।
राष्ट्रपिता दूसरी बार 1935 में इंदौर आए थे। इस बार वह हिंदी सभा की अध्यक्षता करने पहुंचे थे। दक्षिण भारत से भी हिंदी भाषा को लेकर मिल रही काफी शानदार प्रतिक्रिया के कारण उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की मुहिम शुरू की थी।
काठियावाड़ी वेशभूषा में आए थे बापू। बापू को यूं तो हमेशा ही सबने उनकी खादी की धोती में देखा था पर जब वो 20 अप्रैल 1935 को हिंदी साहित्य समिति के मानस भवन के शिलान्यास के लिए इंदौर आए तो उन्होंने काठियावाड़ी वेशभूषा पहनी थी। इस दौरान उनकी काठियावाड़ी पगड़ी आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी।
1935 में महात्मा गांधी इंदौर में 20 से 23 अप्रैल तक ठहरे थे। इस दौरान समिति का 24वां हिंदी साहित्य सम्मेलन हुआ था जिसमें गांधीजी सभापति थे। उस वक्त के बिस्को पार्क (नेहरू पार्क) में आयोजित सम्मेलन में उन्होंने फिर राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की पैरवी की थी।
बापू की चिता की राख, रक्त के नमूने और चरखे पर काता सूत इंदौर ने सहेजे
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की शहादत को 73 वर्ष से ज्यादा बीत गए। इंदौर में एक संस्थान ऐसा है जो न सिर्फ गांधीजी के आदर्शों पर चल रहा है बल्कि सात दशकों से गांधीजी के सबसे करीब भी है। खंडवा रोड के कस्तूरबा ग्राम रूरल इंस्टीट्यूट को आम लोग शिक्षण संस्थान, शेल्टर होम और कृषि शोध संस्थान के रूप में जानते हैं। इस संस्थान की खासियत सिर्फ इतनी ही नहीं है।
शहर और पूरे प्रदेश में यही एक जगह है जहां महात्मा गांधी के रक्त के अंश, उनकी चिता की राख, कोयले के साथ ही उनकी इस्तेमाल की गयी चप्पलें संग्रहित रखी गयी हैं। कस्तूरबा ग्राम संस्थान के छोटे से संग्रहालय में बापू की अपनी पत्नी कस्तूरबा के साथ दुर्लभ तस्वीरें देखी जा सकती हैं। कस्तूरबा के साथ बापू इंदौर के ही एक छात्रावास में खड़े नजर आते हैं। उनके हाथों से काता गया सूत भी कस्तूबा ग्राम के संग्रहालय का हिस्सा है।
खुद गांधी ने बनाया
1944 में कस्तूरबा गांधी की मृत्यु हुई तो स्वयं गांधीजी ने उनकी याद में कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय ट्रस्ट की स्थापना की। ट्रस्ट कुछ दिन सेवाग्राम वर्धा में रहा और 1950 में इसे इंदौर में खंडवा रोड पर स्थापित किया गया। ट्रस्ट के पहले अध्यक्ष महात्मा गांधी रहे बाद में सरदार पटेल व सुशीला नायर भी अध्यक्ष बने। इस ट्रस्ट की स्थापना के लिए एक-दो आने से लेकर चवन्नी-चवन्नी तक का दान लोगों ने बापू की अपील पर किया और कुछ ही दिनों में एक करोड़ की राशि इकट्ठा हो गयी थी। असल में देखा जाए तो महिलाओं और बच्चों की उन्नति के लिए काम करनेवाला यह देश का पहला एनजीओ है। देश के 23 राज्यों में इसके 300 से अधिक केंद्र हैं। सरकार ने आंगनवाड़ी के जिस कंसेप्ट को अपनाया वो कस्तूरबा ग्राम से ही आया है।
स्थायी प्रदर्शनी
कस्तूरबा ग्राम में एक स्थायी प्रदर्शनी लगी है। इस प्रदर्शनी में गांधीजी की चप्पल, अस्थियां, भस्मी, चिता के कोयले, रक्त के नमूनों की स्लाइड, गांधीजी के हाथ से बुनी शॉल, उनका काता सूत भी है। एक फोटो प्रदर्शनी भी है। यहां एक तस्वीर में गांधीजी इंदौर के शारदाराजे होलकर छात्रावास में बा के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। इसके साथ ही सरदार पटेल, पंडित नेहरू के साथ भी कई तस्वीरें हैं। संस्थान की लाइब्रेरी में गांधी द्वारा लिखी गई किताबें भी हैं।