(महात्मा गांधी सार्वजनिक जीवन में शुचिता, अन्याय के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष और सत्यनिष्ठा के प्रतीक हैं। उनकी महानता को दुनिया मानती है। फिर भी गांधी के विचारों से मतभेद या उनके किसी कार्य से असहमति हो सकती है। लेकिन गांधी के बारे में कई ऐसी धारणाएं बनी या बनायी गयी हैं जिन्हें गलतफहमी ही कहा जा सकता है। पेश है गांधी जयंती पर यह लेख, जो ऐसी गलतफहमियों का निराकरण करता है। गांधी की छत्रछाया में पले-बढ़े और उनके सचिव मंडल का हिस्सा रहे स्व. नारायण देसाई का यह लेख गुजराती पत्रिका ‘भूमिपुत्र’ से लिया गया है। नारायण भाई ने गांधी की बृहद जीवनी भी लिखी है।)
2. क्या गांधीजी रंग-द्वेषी थे?
एक-दो शंकाएँ गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका के प्रवास-काल को लेकर उठायी जाती हैं। आजकल दक्षिण अफ्रीका के कुछ लोग इस बात को लेकर खिन्न होते हैं कि गांधीजी ने उनके लिए एक-दो जगह ‘काफिर’ शब्द का प्रयोग किया है। इस तरह की शिकायत पर अपने तर्क की इमारत खड़ी करके कुछ दूसरे लोग कहते हैं कि गांधीजी रंग-द्वेषी थे! यह बात सही है कि गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका में रहने तक उनके प्रेम की परिधि जगव्यापी नहीं हो पायी थी। दक्षिण अफ्रीका में बसे हिंदुस्तानियों के मसलों में ही उन्होंने दिलचस्पी दिखायी और उनके प्रति हो रहे अन्याय को दूर करने के लिए सक्रिय हुए। पूरे देश में काले लोगों के प्रति जो तिरस्कार और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जो रंग-द्वेष नजर आता था, उसकी बाबत गांधीजी ने ऐसा-कुछ न कहा न किया, जो उल्लेखनीय हो। उस समय उनके चिंतन की यह सीमा थी। यह सही है कि उन दिनों काले लोगों को लेकर हिंदुस्तानी जो शब्द इस्तेमाल करते थे, वही शब्द गांधीजी ने भी एक-दो बार इस्तेमाल किये हैं। फिर, उन्होंने हिंदुस्तानियों का पक्ष रखते हुए एक-दो स्थान पर ऐसी भी भावना व्यक्त की है कि काले लोगों की अपेक्षा हिंदुस्तानी काफी आगे बढ़े हुए हैं इसलिए दोनों को एक ही तराजू पर तौलकर कानून नहीं बनाया जाना चाहिए। इस दलील में यह भाव मौजूद है कि काले लोगों की तुलना में हिंदुस्तानी श्रेष्ठ हैं और यह भाव शायद गांधीजी के लेखों में भी व्यक्त हुआ था।
लेकिन मनुष्य-मनुष्य के आपसी व्यवहार की कसौटी पर देखें, तो उन दिनों भी ऐसा आभास नहीं मिलता कि गांधीजी के मन में रंग-द्वेष की भावना थी। जब वह भारत से दूसरी बार अफ्रीका जा रहे थे तब डरबन बंदरगाह पर उनका विरोध करने के लिए गोरों ने अपने घरों में काम करनेवाले कालों का इस्तेमाल विरोध-प्रदर्शन में किया। पर इस वजह से गांधीजी ने कालों के प्रति जरा-भी द्वेष-भाव नहीं दर्शाया। सत्याग्रह में अधिकतर हिंदुस्तानी थे, इसके अलावा कुछ गोरे, कुछ चीनी और कुछ मलय लोग भी शामिल होते थे। पर ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि काले वर्ण के स्थानीय पड़ोसियों के साथ कभी झगड़ा हुआ हो। जेल में आपराधिक मामले में बंद एक काले कैदी ने गांधीजी को शौचालय से बाहर धकेल दिया था। गांधीजी ने इस घटना के बारे में बताया है, पर उसमें कहीं भी पूरे काले समुदाय के प्रति तिरस्कार का भाव नहीं है।
जुलू विद्रोह के वक्त गांधीजी ने ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति हिंदुस्तानियों की वफादारी सिद्ध करने के लिए डोली (स्ट्रेचर) उठानेवाली टुकड़ी बनायी थी। वह लड़ाई, लड़ाई ही नहीं थी। गांधीजी ने यह दर्ज किया है कि गोरों ने काले लोगों को एकतरफा संहार किया था। गोरों के विरोध के बावजूद, जख्मी काले लोगों की सेवा गांधीजी ने खूब प्रेमपूर्वक की थी और उनकी भाषा न जानते हुए भी उनके प्रेमभाजन बने थे।
3. क्या गांधीजी मशीन मात्र के विरोधी थे?
स्वदेशी आंदोलन के तहत जब गांधीजी ने विदेशी कपड़ों की होली जलाने के कार्यक्रम को समर्थन दिया, तब उनके और रवींद्रनाथ ठाकुर के बीच काफी मतभेद उभरे थे और यह सार्वजनिक चर्चा का भी विषय बना था। गांधीजी के परम मित्र सी.एफ.एंड्रूज भी इस मत के थे कि विदेशी कपड़ों की होली न जलायी जाए। इस आंदोलन को लेकर रवींद्रनाथ की दूसरी शिकायत यह भी थी कि स्वयंसेवक इसमें शामिल होने के लिए जनता पर दबाव डालते हैं। हो सकता है कि दस साल रवींद्रनाथ ने जो स्वदेशी आंदोलन बंगाल में देखा था उनकी धारणा के पीछे उसका अनुभव भी रहा हो। गांधीजी ने खुद यह स्पष्ट कर दिया था कि स्वदेशी आंदोलन में शिरकत के लिए किसी भी प्रकार का दबाव डालने का तो प्रश्न ही नहीं उठना चाहिए। कपड़े जलाने के विरुद्ध रवींद्रनाथ की एक दलील यह थी कि इसमें लोगों का गुस्सा जाहिर होता है, इसलिए यह हिंसा है। गांधीजी ने साफ कर दिया था कि लोगों के मन में आज भी खूब गुस्सा भरा हुआ है। कपड़े की होली के द्वारा वे लोगों के इस गुस्से को व्यक्ति के बदले वस्तु की तरफ मोड़ देते हैं। गांधीजी ने पूरे देश के लिए आधे घंटे का सूत्रयज्ञ का जो कार्यक्रम सुझाया था, रवींद्रनाथ ने उसपर पर भी विरोध जताया। सामान्य रूप से रवींद्रनाथ बड़े यंत्रों के समर्थक थे। गांधीजी ने कहा कि मुझे करोड़ों लोगों को तरस खाकर किसी के दिये दान पर नहीं रखना है। इसी के साथ, उन्होंने खुद कपड़ा तैयार कर उसे फख्र से इस्तेमाल करने की सलाह दी थी और चरखे के पक्ष में यह तर्क पेश किया था कि इससे करोड़ों लोगों को आजीविका मिलेगी।
गांधीजी के बारे में एक गलफहमी यह थी कि वह यंत्र मात्र के विरोधी थे। गांधीजी ने इस बात से साफ इनकार किया था। उनका कहना था कि हमारा शरीर भी एक जटिल मशीन ही है। क्या मैं इसका विरोध करता हूँ? गांधीजी सिर्फ यह चाहते थे कि मनुष्य यंत्रों पर अंकुश रखे, यंत्रों का गुलाम न बने। गांधीजी का सारा दर्शन यंत्र-संस्कृति का विरोधी था, जिसके साथ गलाकाट प्रतिस्पर्धा, लोगों के रोजगार छीने जाने, मानवीय संबंधों के ह्रास और इंसान में बढ़ते बेगानेपन जैसे अनिष्ट भी जुड़े हुए हैं। गांधीजी ने यह बात 1909 में ही ‘हिंद स्वराज’ में कही थी। आज बड़ी मशीनों की संस्कृति को न्योता देकर गाजे-बाजे के साथ लाया जा रहा है। गांधीजी मनुष्य को मशीन का गुलाम बनाने के खिलाफ थे।
(जारी)