हमारे स्कूल में एक बड़े योग्य शिक्षक थे। उनका नाम था– श्री दत्तात्रेय भीखा जी रानाडे। उनका मुझ पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उनके पढ़ाने का ढंग निराला था। उस समय मैं 8वीं कक्षा में था। किन्तु अंग्रेजी व्याकरण में हमारे दर्जे के विद्यार्थी 10वीं कक्षा के विद्यार्थियों के कान काटते थे। मैं अपनी कक्षा में सर्व-प्रथम हुआ करता था। मेरे गुरुजन भी मुझसे प्रसन्न रहा करते थे। किन्तु संस्कृत के पण्डित महाशय अकारण मुझसे और मेरे सहपाठियों से नाराज हो गये और उन्होंने वार्षिक परीक्षा में हम लोगों को फेल करने का इरादा कर लिया। हम लोग बड़े परेशान हुए। उस समय मेरी कक्षा के अध्यापक मास्टर राधेरमण लाल स्कूल की लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन थे। इनका भी हम लोगों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा था।
अपने जीवन में एक बार यह विरक्त हो गये थे। इनके घर पर हम लोग प्रायः जाया करते थे। यह अपने विद्यार्थियों को बहुत मानते थे। लाइब्रेरी की कुंजी मेरे सुपुर्द थी और मैं ही पुस्तकें निकालकर दिया करता था। मुझे याद आया कि पण्डित जी दो वर्ष के कैलेण्डर अपने नाम ले गये हैं। ख्याल आया, कहीं इन्हीं वर्षों के एण्ट्रेंस के प्रश्नपत्र से प्रश्न न पूछ बैठें। मैंने अपने सहपाठियों के साथ बैठ कर उन प्रश्नपत्रों को हल किया। देखा गया कि उन्हीं प्रश्नपत्रों से सब प्रश्न पूछे गए हैं। परीक्षा-भवन में पण्डितजी ने मुझसे पूछा कि कहो, कैसा कर रहे हो? मैंने उत्तेजित होकर कहा कि जीवन में ऐसा अच्छा परचा कभी नहीं किया। उन्होंने कोर्स के बाहर के भी प्रश्न पूछे थे। मुझे उन्हें विवश होकर 50 से 46 अंक देने पड़े और कोई भी विद्यार्थी फेल न हुआ। यदि मैं लाइब्रेरियन महाशय का सहायक न होता तो अवश्य फेल हो गया होता।
सन 1905 में पिताजी के साथ मैं बनारस कांग्रेस में गया। पिताजी के निकट संपर्क में आने से मुझे भारतीय संस्कृति से प्रेम हो गया था। यह मौखिक प्रेम था। उसका ज्ञान तो कुछ था नहीं। किंतु इसी कारण आगे चलकर मैंने एम.ए. में संस्कृत ली। 1904 में पूज्य मालवीय जी फैजाबाद आए थे। भारत धर्म महामण्डल से संबद्ध होने के नाते वह मेरे पिताजी से मिलने घर पर आए। गीता के एक-आध अध्याय सुने। मेरे शुद्ध उच्चारण से बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि एण्ट्रेंस पास कर प्रयाग आना और मेरे हिंदू बोर्डिंग हाउस में रहना। पूज्य मालवीय जी के दर्शन प्रथम बार हुए थे। उनका सौम्य चेहरा और मधुर भाषण अपना प्रभाव डाले बिना रहता नहीं था। यद्यपि मैंने सेण्ट्रल हिंदू कालेज में नाम लिखाने का विचार किया था, किंतु साथियों के कारण उस विचार को छोड़ना पड़ा। एण्ट्रेंस पास कर मैं इलाहाबाद पढ़ने गया और हिंदू बोर्डिंग हाउस में रहने लगा। मेरे तीन-चार सहपाठी थे। हमको एक बड़े कमरे में रखा गया था। छात्रावास में रहने का यह पहला अवसर था।
बंगभंग के कारण कांग्रेस में एक नये दल का जन्म हुआ था, जिसके नेता लोकमान्य तिलक, श्री विपिनचन्द्र पाल आदि थे। उस समय तक मेरे कोई खास राजनैतिक विचार न थे। किंतु कांग्रेस के प्रति आदर और श्रद्धा का भाव था। मैं सन 1905 में दर्शक के रूप में कांग्रेस में शरीक हुआ था। प्रिंस ऑफ वेल्स भारत आनेवाले थे और उनका स्वागत करने के लिए एक प्रस्ताव गोखले ने कांग्रेस के सम्मुख रखा था। तिलक ने उसका घोर विरोध किया। अन्त में दबाव में उसे वापस ले लिया। किंतु उस समय पण्डाल से बाहर चले आए। विरोध की यह पहली ध्वनि सुनाई पड़ी। सन 1906 में कलकत्ते में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। प्रयाग आने पर मेरे विचार तेजी से बदलने लगे। हिंदू बोर्डिंग हाउस उग्र विचारों का केंद्र था। पण्डित सुन्दरलाल जी उस समय विद्यार्थियों के अगुआ थे। अपने राजनीतिक विचारों के कारण वह विश्वविद्यालय से निकाले गये। उस समय बोर्डिंग हाउस में रात-दिन राजनीतिक चर्चा हुआ करती थी। मैं बहुत जल्द गरम दल के विचार का हो गया।
हममें से कुछ लोग कलकत्ते के अधिवेशन में शरीक हुए। रिपन कालेज में हम लोग ठहराये गये। नरम-गरम दल का संघर्ष चल रहा था और यदि श्री दादाभाई नौरोजी सभापति न होते तो वहीं दो टुकड़े हो गये होते। उनके कारण यह संकट टला। इस नवीन दल के कार्यक्रम के प्रधान अंग स्वदेशी, विदेशी माल का बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा थे। कांग्रेस का लक्ष्य बदलने की भी बातचीत थी। दादाभाई नौरोजी ने अपने भाषण में ‘स्वराज’शब्द का प्रयोग किया और इस शब्द को लेकर दोनों दलों में विवाद खड़ा हो गया। यद्यपि पुराने नेता बहिष्कार के विरुद्ध थे। उनका कहना था कि इससे विद्वेष और घृणा का भाव फैलता है, तथापि बंगाल के लिए उनको भी इसे स्वीकार करना पड़ा।
(जारी)