— क़ुरबान अली —
(दूसरी किस्त)
सन 1948 में जब सोशलिस्ट, कांग्रेस पार्टी से बाहर आ गये और स्वतंत्र रूप से सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया तो कांग्रेस के टिकट पर जीत कर उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य बने आचार्य जी और उनके सहयोगियों ने विधानसभा से इस्तीफा दे दिया। हालांकि उस समय न इसकी जरूरत थी, न किसी ने माँग की थी। लेकिन आचार्य जी का मानना था कि कांग्रेस से अलग पार्टी बना लेने के बाद विधानसभा का सदस्य बने रहना उनके लिए नैतिक रूप से उचित नहीं होगा। इसके बाद हुए उपचुनावों में वे खुद और उनके लगभग सभी साथी सहयोगी चुनाव हार गये। इन चुनावों में आचार्य जी के खिलाफ अत्यंत अशोभनीय प्रचार किया गया लेकिन वे अपने राजनितिक सिद्धान्तों और आदर्शों से विमुख नहीं हुए।
आचार्य नरेंद्रदेव मानव समाज के कल्याण और नैतिक जीवन के विकास के लिए अन्याय का विरोध आवश्यक समझते थे, उनका विचार था कि शोषणविहीन समाज में सामाजिकता के आधार पर मनुष्य का नैतिक विकास हो सकता है लेकिन स्वार्थ-प्रेरणा पर आश्रित वर्ग-समाज में सामाजिक भावनाओं का विकास बहुत कुछ अवरुद्ध हो जाता है। इसलिए वे राजनैतिक स्वराज्य के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक स्वराज्य के लिए भी प्रयत्नशील रहे, राजनैतिक स्वतंत्रता मिल जाने के बाद जीवन पर्यन्त देश में जनतांत्रिक समाजवादी समाज निर्मित करने का प्रयास करते रहे। आचार्य नरेंद्रदेव जी को देश और दुनिया मार्क्सवादी-समाजवादी तथा बौद्ध दर्शन का प्रखर विद्वान जानती और मानती है। लेकिन किसान आंदोलन में आचार्य जी के महत्त्वपूर्ण योगदान की जानकारी कम ही लोगों को है।
1920 में असहयोग आंदोलन के दौरान अवध के चार प्रमुख जिलों रायबरेली, फैजाबाद, प्रतापगढ़ और सुल्तानपुर में किसान आंदोलन तेजी से चला। आचार्य जी ने इस आंदोलन में खुलकर भाग लिया तथा उनके प्रभावशाली भाषण के चलते किसान आंदोलन में डटे रहे। सरकार ने आंदोलन को दबाने के लिए 7 जनवरी 1921 को मुंशीगंज में गोली चलायी। दमन के बावजूद आंदोलन उग्र रूप धारण कर लगातार चलता रहा, तब सरकार को किसानों की बेदखली रोकनेवाली माँग स्वीकार करनी पड़ी। अवध आंदोलन आचार्य जी की भूमिका के चलते सफल रहा। आंदोलन के दौरान किसानों को यह प्रतिज्ञा करायी गयी कि वे गैरकानूनी टैक्स अदा नहीं करेंगे, बेगार-बिना मजदूरी नहीं करेंगे। पलई, भूसा तथा रसल बाजार भाव पर बेचेंगे तथा नजराना नहीं देंगे। बेदखल खेत को कोई दूसरा किसान नहीं खरीदेगा तथा बेदखली कानून मंजूर होने तक सतत संघर्ष चलाएंगे।
1936 में भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई। किसान सभा के गठन में आचार्य जी की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। इसी वजह से आचार्य जी को 1939 में गया में हुए किसान सभा अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया जिसमें आचार्य जी ने किसान सभा और कांग्रेस संगठन के संबंधों पर जोर देते हुए कहा कि साम्राज्यवाद के विरोध में दोनों को एकसाथ खड़े होकर किसान क्रांति को मज़बूत करने की जरूरत है ताकि किसान जमीन का मालिक बन जाए। राज्य और किसानों के बीच मध्यवर्ती शोषकों का अंत हो जाय। कर्जे के बोझ से किसानों को छुटकारा मिले तथा श्रम का पूरा लाभ उन्हें मिल सके। सोशलिस्ट पार्टी ने आचार्य जी की प्रेरणा से 25 नवंबर 1949 को लखनऊ में एक विशाल ‘किसान मार्च’ आयोजित किया जिसमें 50 हजार से ज्यादा किसानों ने भाग लिया। फरवरी 1950 में डॉ. लोहिया की अध्यक्षता में रीवा में हिंद किसान पंचायत का पहला अधिवेशन हुआ, तब आचार्य जी ने किसानों का हौसला बढ़ाते हुए किसानों से संगठित होने का आह्वान किया।
आचार्य जी ने जमींदारी उन्मूलन कमेटी को 1947 में लिखे ‘मेमोरेंडम’ में कहा कि जिस तरह से जमींदारों ने किसानों को लूटा, खसोटा और चूसा है यदि उसका हिसाब लगाया जाय तो किसानों के ऋण से मुक्त होना जमींदारों के बूते की बात नहीं। ऐसी हालत में जमींदारों को मुजावजा देने का सवाल ही नहीं उठना चाहिए। आचार्य जी ने देवरिया सत्याग्रह में किसानों की फसल खराब होने के बाद भागीदारी करते हुए किसानों और सरकारी कर्मचारियों के भेद को समाप्त करने की माँग की। 1950 में पंजाब में भी नरेंद्रदेव जी ने हिसार जिले में बेदखली के खिलाफ संघर्ष किया था। आचार्य जी का किसान संघर्ष का लंबा इतिहास है। आचार्य जी जीवन पर्यन्त दमे के मरीज रहे। इसी रोग के कारण 19 फरवरी, 1956 को मद्रास (वर्तमान चेन्नई) के इरोड में उनका निधन हो गया।
उनके निधन पर भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 20 फरवरी 1956 को राज्यसभा में कहा :
“आचार्य नरेंद्रदेव की मृत्यु हम में से कई लोगों के लिए और खासकर मेरे लिए और देश के लिए एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के निधन से कहीं अधिक बड़ी क्षति है। वे कई क्षेत्रों में दुर्लभ और बहुत ही विशिष्ट व्यक्ति थे- आत्मा में दुर्लभ, मन और बुद्धि में दुर्लभ, मन की अखंडता में दुर्लभ और अन्य कई मामलों में भी। मुझे नहीं पता कि इस सदन में कोई ऐसा व्यक्ति मौजूद है या नहीं, जो मुझसे अधिक समय तक उनके साथ जुड़ा रहा। चालीस साल पहले हम एकसाथ आए थे और आजादी के संघर्ष की धूल और गर्मी में और जेल जीवन की लंबी खामोशी में हमने लंबा वक्त बिताया था, हम एकसाथ असंख्य अनुभव साझा करते थे- मैं अब भूल जाता हूँ- विभिन्न स्थानों पर चार या पाँच साल एकसाथ, और हम अनिवार्य रूप से एक दूसरे को करीब से जानने लगे और इसलिए,हममें से कई लोगों के लिए, यह एक गंभीर क्षति और एक गंभीर आघात है, और हमारे देश के लिए भी एक गंभीर क्षति है। नुकसान की यह सार्वजनिक और निजी भावना है और यह एक ऐसी भावना है जैसे कि कोई दुर्लभ विशिष्ट व्यक्ति हमारे बीच से चला गया हो और उसके जैसा व्यक्तित्व फिर से मिलना बहुत मुश्किल होगा। भले ही शरीर से वह हमारे बीच ना हों लेकिन उनकी यादें हमारे बीच हमेशा रहेंगी।”
राज्यसभा के सभापति और तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने कहा, “आचार्य नरेंद्रदेव अपने आदर्शों, निष्ठा और स्वतंत्र निर्णय-क्षमता के लिए सुविख्यात थे। वे उस समय समाजवादी थे जब समाजवाद लोक-प्रचलन में भी नहीं आया था। स्वाधीनता संघर्ष के दौरान उन्होंने कांग्रेस के सदस्य के रूप में कार्य किया। कालांतर में वे समाजवादी दल के एक प्रमुख नेता के रूप में सामने आए। शिक्षा के क्षेत्र में उनकी सेवाएँ लंबे समय तक स्मरण की जाएँगी। वे किसी भी रूप में छद्म से सर्वथा दूर थे। उनके विचारों ने हमारी पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया और हमारी नीतियों को नयी दिशा प्रदान की, हमने एक महान देशभक्त, एक महान नेता और एक बहुमूल्य व्यक्तित्व खो दिया है।”
लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने आचार्य जी को अजातशत्रु कहा था। उन्होंने कहा था कि आचार्य जी और गांधी जी के अतिरिक्त उन्हें अब तक कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो आदमियत,व्यक्तित्व, इंसानियत, बौद्धिक शक्ति, ज्ञान, वाक्पटुता, भाषण शक्ति, इतिहास और दर्शन की समझ आचार्य नरेंद्रदेव जैसी रखता हो। आचार्य नरेंद्रदेव जी समाजवादी समाज के साथ-साथ समाजवादी सभ्यता का निर्माण करना चाहते थे। उनका स्पष्ट मत था कि समाजवादी समाज को बनाने के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के साथ-साथ जनता के मानस को बदलने की, जागृत करने की, स्वयं अपनी समस्याओं को सुलझाने योग्य बनाने तथा समाजवादी नैतिक मूल्यों के समुचित प्रशिक्षण की नितांत आवश्यकता है।
राहुल सांकृत्यायन ने आचार्य जी के बारे में कहा था कि उनकी अंग्रेजी भाषा पर असाधारण पकड़ थी। बौद्ध दर्शन पर उनकी किताब ‘अभिकोशभाष्य’ को उन्होंने ऐतिहासिक ग्रन्थ बताया। कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो का अनुवाद भी आचार्य जी और राहुल जी ने मिलकर शुरू किया था।
राममनोहर लोहिया ने आचार्य जी के बारे में कहा था कि वे “बौद्ध दर्शन, बौद्ध साहित्य, बौद्ध इतिहास के साथ-साथ राजनीति की गहराई से जानकारी रखनेवाले विद्वान थे। मंत्री-पद न लेना, इनकार करना उनके लिए छोटी बात थी। आचार्य जी के भाषण शिक्षाप्रद और जोशीले होते थे। उन्होंने काशी विद्यापीठ में हजारों विद्यार्थियों को समाजवादी विचार से शिक्षित किया।”
समाजवादी लेखक और पत्रकार और अब राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश के अनुसार, “आचार्य नरेंद्रदेव और उनके सहयोगियों का सम्यक मूल्यांकन होना शेष है। पतनोन्मुख सत्ता या समाज सर्वदा सत्ताधीशों या उनके प्रियजनों के अवदान के संदर्भ में चारण गीत गाता है। यह दोषपूर्ण दृष्टि है। इससे बीमार समाज जनमता-पनपता है, जो समाज अपने मनीषियों-ऋषितुल्य चिंतकों को भुलाने लगे, वह गंभीर सामाजिक रोग से पीड़ित होकर बिखरता है। आज हम ऐसे ही दौर से गुजर रहे हैं। इस माहौल में आचार्य जी जैसे तपस्वी, त्यागी और उद्भट विद्वान की याद अँधेरे में बढ़ रही युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा-स्रोत है।” आचार्य नरेंद्रदेव और उनके साथियों ने न सिर्फ राष्ट्रीय आंदोलन की अगुआई की बल्कि एक वैकल्पिक और नये समाज के लिए अपने जीवन की आहुति दी। सत्ता को ठुकराकर संघर्ष का वरण किया।
आचार्य जी उन चिंतकों में से थे, जो सदैव समय और वर्तमान की परिधि से आगे देखते-आँकते थे। वह देश, काल की सीमा से परे एक नये समाज की बुनियाद रखनेवाले मनीषी थे। वह सांस्कृतिक पुनर्जागरण के पुरोधा रहे। उन्होंने ‘क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों’ की परिकल्पना की, जो राष्ट्रीय और समाजवादी क्रांति के लिए अपरिहार्य हैं। वह जीवनपर्यंत मार्क्सवादी रहे। राष्ट्रीयता की बात जिस शिद्दत से उन्होंने की, वह अनूठी है। देश में समाजवाद का सपना देखनेवाले वह शिखर पुरुष रहे। इस संबंध में गांधीजी और उनके बीच गंभीर चर्चा हुई। इस कारण भारतीय संस्कृति-परंपरा के तहत देसी मुहावरे में उन्होंने समाजवाद को परिभाषित करने की कोशिश की। कट्टर मार्क्सवादियों की तरह अफीम के रूप में उन्होंने ‘धर्म’ की चर्चा नहीं की, बल्कि उसकी सकारात्मक ऊर्जा को पहचाना। उन्होंने निराकार समाजवादियों की कल्पना नहीं की। उनका सपना था, ‘‘जहाँ-जहाँ आम जनता की बहुतायत है, वहाँ-वहाँ समाजवादी पाये जाने चाहिए। जनता के स्वार्थ,हक के लिए जहाँ भी जन संघर्ष हो रहा हो या साम्राज्यवादी या शोषणवादी ताकतों के खिलाफ लड़ाई चल रही हो, समाजवादियों को उसका हरावल दस्ता बनना चाहिए।”
‘वर्ग चेतना’ और राष्ट्रीय चेतना के बीच आचार्य जी ने सेतु बनाने का प्रयास किया। उन्होंने स्वीकार किया कि जो समाज, देश, क्षेत्रीय संकीर्णताओं सांप्रदायिक-भाषिक, जातिगत और क्षुद्र स्वार्थों की परिधि में लिपटा हो, वहाँ राष्ट्रीय चेतना अंकुरित नहीं होती। किसानों के संबंध में आचार्य जी ने गंभीरता से उस दौर में ही विचार किया। वह मानते थे, ‘‘कोई अकेला नेता समाजवादी राज्य की स्थापना नहीं कर सकता। ऐसे समाज की स्थापना मजदूर और किसान ही कर सकते हैं या उनकी पार्टी कर सकती है।’’
भारतीय समाजवाद के इस पितामह को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि ।
(यह लेख 2016 में आचार्य नरेंद्रदेव की जयंती के अवसर पर 31 अक्टूबर को लखनऊ में उनकी याद में दिये गये स्मृति-व्याख्यान पर आधारित है।)