जी हाँ, हम अंधभक्त हैं ; लोहिया और गांधी ; क्या लोहिया का राजनीतिक दर्शन अधूरा है?

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—प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन —

(दूसरी किस्त)

सी ही एक और घटना विश्वयुद्ध के दौरान हुई। गांधीजी का ऑल इंडिया रेडियो पर एक बयान प्रसारित किया गया जिसमें इंग्लैंड के वेस्टमिन्सटर ए.बे. की युद्ध में हो रही बमबारी के कारण बरबादी पर दुख प्रकट किया था क्योंकि ए. बे. ब्रिटिश इतिहास व ब्रिटिश स्थापत्य कला का एक महान स्मारक था। ऐसी संभावित बर्बादी से गांधीजी के आँसू निकल आए थे। लोहिया लिखते हैं कि शायद यह अकेला अवसर था जब मैं गांधीजी से सचमुच नाराज हुआ…… हालाँकि मैं जानता था कि ब्रिटिशों के प्रति भावुकता तथा ए.बे. की संभावित बरबादी की कल्पना से गांधीजी के आँसू आए होंगे

लोहिया ने गांधीजी को लिखा कि वेस्ट  मिन्स्टर ए.बे. के विनाश की संभावना से आप जितने चिंतित हुए उतना ही आपको जर्मनी के मेंथीन सभागार, मास्को के क्रेमलिन और अमेरिका के जैफरसन स्मृति स्थान के विऩाश की संभावना से भी होना चाहिए था। दूसरे दिन अखबार में उनका (गांधीजी का) वक्तव्य पढ़कर मेरा गुस्सा शांत हो गया, मैंने उन्हें पत्र लिखा कि यद्यपि रेडियो पर सुनकर मैं नाराज हुआ था, लेकिन पूरा वक्तव्य पढ़कर मेरे में कोई शंका न बची।

मैंने गांधीजी को लिखा कि यह पूरी तरह साफ है कि जब उन्होंने वेस्ट मिनस्टर ए.बे. की बरबादी की बात की तब वे समस्त मानवता और उसके निर्माण और ऐतिहासिक वैभव को गले लगाने का प्रयत्न कर रहे थे और यह संभव था। अतः वेस्ट मिन्स्टर ए. बे. को प्रतीक माना था। मुझे खुशी है कि गांधी जी ने हरिजन में तत्काल ही दूसरा वक्तव्य प्रकाशित किया कि चाहे मिन्स्टर ए.बे., चाहे रूस का क्रेमलिन, चाहे अमरीका का जेफरसन स्मारक किसी की बरबादी में उन्हें क्लेश होगा।

लोहिया गांधीजी के प्रति कितनी अगाध श्रद्धा रखते थे, इसका एक उदाहरण 1939 में त्रिपुरी में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन का है। सुभाषचंद्र बोस ने दूसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष पद पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी, गांधीजी, सरदार पटेल इसके विरोध में थे, गांधीजी ने पट्टाभिसीतारमैय्या को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। लोहिया की पार्टी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टीने सुभाष बोस के पक्ष में वोट डालकर उनकी जीत को सुनिश्चित करने का निर्णय लिया। गांधीजी के कारण डॉ. लोहिया सुभाष बाबू का समर्थन करने को तैयार नहीं थे। उनकी मान्यता थी कि सुभाष बाबू को कुछ ऐसा ढंग निकालना चाहिए कि कम से कम वे गांधीजी से लड़ाई मोल न लेते। लोहिया का कहना था कि केवल महात्मा गांधी के नेतृत्व में ही जन सत्याग्रह चलाया जा सकता है। हमको किसी भी ऐसी नीति का समर्थन नहीं करना चाहिए जो कांग्रेस में विभाजन करती हो। तब भी हमारा यह फैसला था और शायद अब भी रहे कि गांधीजी से लड़ने से कुछ हासिल करना मुश्किल है।

ऐसे अनेकों उदाहरण हैं। जहाँ डॉ. लोहिया की पहली प्रतिक्रिया गांधीजी की सीख से अलग थी, परन्तु गांधीजी पर अगाध श्रद्धा तथा यह मानकर गांधीजी जो कहते या करते है, वह तजुर्बों का निचोड़ तथा वक्त की जरूरत है, उसमें व्यक्तिगत मान-सम्मान, स्वार्थ की बू होने का सवाल ही नहीं है।

लोहिया ने अपने जीवन में केवल एक मौके पर गांधीजी का दोष निबंध में लिखा कि 1947 में हिंदुस्तान के बंटवारे के दोष से गांधीजी मुक्त नहीं किये जा सकते, इसी के साथ उन्होंने यह भी कबूल किया अपनी इस राय के बारे में भी मुझे शक है।

गांधीजी ने कहा कि बंटवारा उनकी लाश पर ही होगा। उनकी मौत बंटवारे के बाद ही हुई। वे बंटवारे से लड़ते हुए नहीं मरे। बंटवारे और उनकी मौत के बीच छह महीने से भी कम वक्त गुजरा। लेकिन यह छह महीने देश के इतिहास में निर्णायक महत्त्व के हैं।

आगे लोहिया लिखते हैं मैं गांधीजी पर इल्जाम लगाने वालों में नहीं हूँ। देश के बंटवारे के लिए जिस तरह श्री जिन्ना, श्री नेहरू और सरदार पटेल मुख्य रूप में दोषी थे उस तरह का दोषी मैं उन्हें नहीं मानता, लेकिन दूसरे नंबर के दोषी वे भी थे।

श्री नेहरू और श्री जिन्ना को किसी हद तक समझा जा सकता है। सत्ता के भूखे होने के कारण उनमें ज्ञान और दूरदर्शिता नहीं थी। वे पहले बंटवारे के परिणामों को नहीं देख सकते थे कि लगभग दस लाख पुरुष, स्त्रियाँ और बच्चे हथियारी मुठभेड़ों में नहीं, बल्कि जानवरों की तरह मारे जाएँगे। और करीब दो करोड़ लोग अपने घरों से उजड़ जाएँगे। ऐसे हत्याकांड का दसवां हिस्सा भी न हो यही बंटवारे के हक में सबसे बड़ा तर्क था जिसके कारण देश की विशाल आबादी ने उसे स्वीकार कर लिया। लोहिया सवाल करते हैं कि गांधीजी ज्ञानी और दूरदर्शी थे, इसलिए भी कि उनमें संकीर्ण स्वार्थ नहीं था, उस समय इस दूरदर्शिता ने उनका साथ क्यों नहीं दिया…. मैं यह मानने को तैयार हूँ कि कांग्रेस पार्टी के युवावर्ग में कुछ कमी भी, गांधीजी ने अपने ढंग से बार-बार हमें टटोला और हमें लायक नहीं पाया।

लेखक ने लोहिया को एक मायने में पूर्ण राजनैतिक चिंतक, दार्शनिक मानने से भी इंकार कर दिया।

उनके शब्दों में लोहिया अपने पूरे राजनैतिक दर्शन को एक सुव्यवस्थित रूप से नहीं लिख पाए। उनके प्रसिद्ध लेख इकोनमिक्स आफ्टर मार्क्स या कुछ हद तक उनके लेख संग्रह  मार्क्स गांधी एंड सोशलिज्म को छोड़ दें, लोहिया ने अमूमन अपनी बात टुकड़ों में रखी, इन अलग-अलग टुकड़ों को जोडकर एक समग्र दृष्टि रखने का काम लोहिया नहीं कर पाए। इसलिए ध्यान से खोजबीन करने पर उनकी दृष्टि में अंतर्विरोध और विसंगतियाँ भी नजर आती हैं। लोहिया के चिंतन में एक बेपरवाह शिल्पी का सा अधूरापन है। मोटी रूपरेखा है लेकिन बारीकियाँ और तफसील नहीं। तीखे सवाल हैं, लेकिन स्पष्ट जवाब नहीं। कड़े और ठोस निषेध हैं लेकिन विकल्प नहीं।

आरोपों से ऐसा लगता है कि लोहिया ने क्योंकि किसी लाइब्रेरी में बैठकर, दस-बीस किताबों की कतरन-उतरन को इकट्ठा कर, विधिवत लोहिया दर्शन भाग-एक-दो-तीन चार वगैरहा के रूप में नहीं लिखा, इसलिए उनमें एक समग्र दृष्टि रखने का काम लोहिया नहीं कर पाये।

मुश्किल यह है कि यहाँ भी लेखक सपाट बयानबाजी कर रहे हैं। लोहिया के दर्शन में कहाँ अंतर्विरोध है, विसंगति है? सवाल है परंतु जवाब नहीं। स्वतंत्र बुद्धिजीवी लेखक महोदय ने दूरबीन लगाकर जो लोहिया के अधूरेपन को पकड़ा है उसकी पुष्टि के लिए एक तो उदाहरण देते।

लोहिया ने, कब कहाँ किस विषय पर क्या लिखा, बोला उसका काफी बड़ा हिस्सा हिंदी-अंग्रेजी में राममनोहर लोहिया रचनावली में लिपिबद्ध है। लोहिया का विचार दर्शन एक किताब की तरह नहीं लिखा गया। लोहिया एक सिद्धांतकार के साथ-साथ सक्रिय सत्याग्रही चाहे वे विदेशी सल्तनत के जुल्म के खिलाफ हो अथवा अपने ही देश के निजाम की बदइंतजामी, गैरबराबरी, सरकारी जुल्म और लूट के खिलाफ हो लगातार संघर्ष करते रहे। अपने लड़कपन में अंग्रेजी राज के युद्ध विरोधी भाषण देने में मिली, दो साल की सजा से शुरू हुआ सिलसिला, बढ़ते-बढ़ते 1942 के भूमिगत आंदोलन, गोवा, नेपाल में क्रांति का सूत्रपात तथा रहनुमायों लगभग अँग्रेजी राज में साढ़े तीन वर्ष जेल यातना, आजादी के बाद अपनी ही सरकार के ज़ोर-जुल्म, गैर-इंसाफी के खिलाफ़ मुसलसल संघर्ष करनेवाला होने के बावजूद उनके विचार दर्शन में छोटी से छोटी बात भी कहीं विरोधाभास का शिकार नहीं है।

लोहिया का विचार दर्शन, किताबी यूटोपिया, शब्दाडंबर वाला नहीं है। अध्ययन, मनन तथा सक्रिय भागेदारी करने, कष्टों को भोगने, सैकड़ों बुद्धिजीवियों, लाखों कार्यकर्ताओं के सवाल-जवाब का सामना तथा उसके समाधान का रास्ता सुझाने से बना है।

(जारी)

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