— कुमार प्रशांत —
बात कुछ ऐसी बनी है कि हमारे पास एक भरा-पूरा उड्डयन मंत्रालय है, एक वजनदार नागरिक उड्डयन कैबिनेट मंत्री हैं लेकिन हमारे पास कोई उड़ता हुआ जहाज नहीं है। कहूँ तो ऐसे भी कह सकता हूँ कि विस्तीर्ण आसमान तो है हमारे पास लेकिन उसमें उड़ती कोई चिड़िया नहीं है। टाटा ने अड़सठ सालों बाद 18,000 करोड़ रुपयों में दुनिया का सबसे महँगा ‘रिटर्न’ टिकट खरीद कर अपने अपमान का बदला ले लिया है। उसने आसमान भी ले लिया है और सारे पंछी भी ले लिये हैं। विनिवेश का हर सौदा इस बात की खुली घोषणा है कि सरकार विफल हुई और उसका मंत्रालय निकम्मा साबित हुआ है। एक प्रश्न जो कोई पूछ नहीं रहा वह यह है कि क्या विफल सरकार व निकम्मे मंत्रालय का विनिवेश करके भी देख न लिया जाए? शायद डगमगाते अर्थतंत्र को पटरी पर लाने का यह एक रास्ता हो!
टाटा से जब भारत सरकार ने एयर इंडिया छीना था तब 1952 में जेआरडी ने तब के संचारमंत्री जगजीवन राम से पूछा था : “आप लोग जिस तरह अपने दूसरे विभागों को चलाते हैं, क्या आप समझते हैं कि हवाई सेवा चलाना भी उतना ही आसान है? अब आपको खुद ही आटे-दाल का भाव मालूम हो जाएगा!” जगजीवन राम ने थूक गटकते हुए जवाब दिया था : “भले अब यह सरकारी विभाग बन जाएगा लेकिन इसे चलाने में आपको हमारी मदद तो करनी होगी।” आज चेहरे बदल गये हैं लेकिन सवाल और जवाब नहीं बदले हैं।
सवाल यह है कि खासी अच्छी कमाई करती और खासा अच्छा रुतबा रखनेवाली एयर इंडिया सरकारी हाथों में आते ही ऐसी बुरी दशा को कैसे पहुँच गयी कि उसे खरीदने वाले का अहसान मानना पड़ रहा है हमें?
और यह बात भी गहराई से समझने की है कि 1953 में एयर इंडिया का राष्ट्रीयकरण करने के बाद से आज तक भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर जितनी भी राजनीतिक पार्टियाँ हैं वे सब-की-सब एकाधिक बार एयर इंडिया की मालिक रह चुकी हैं लेकिन हवाई जहाज चलाना किसी को नहीं आया। यह भर सच होता तो भी हम सरकारों की अयोग्यता का रोना रो लेते लेकिन सच कुछ और ही है, और बेहद कड़वा है। सच यह है कि एयर इंडिया के हर मालिक ने निजी विमान कंपनियों के हित में काम किया और सार्वजनिक क्षेत्र की इस कंपनी को डुबोने में लोक-लाज का कोई खयाल नहीं किया।
इसकी भी एक खुली जांच होनी चाहिए कि नागरिक उड्डयन मंत्री और मंत्रालय के वरिष्ठतम अधिकारी इसकी मलाई कैसे खाते रहे और कैसे ऐसी नीतियाँ बनाते रहे कि एयर इंडिया हवा से उतर कर, जमीन में धँसती रही। किसी निजी कंपनी में ऐसे हुआ होता तो अब तक कितने सर जमींदोज हो गये होते और कितने जेल की सलाखों के पीछे होते। लेकिन यहाँ आलम यह रचा जा रहा है कि यह इस सरकार की कितनी बड़ी सफलता है कि उसने एक डूबी हुई, दम तोड़ चुकी कंपनी एयर इंडिया को टाटा के मत्थे मढ़ दिया और देश को मालामाल कर दिया! यह झूठ की पराकाष्ठा है।
थोड़ी कहानी तो आँकड़े ही कह डालते हैं। 2009-10 से अब तक सरकार ने एयर इंडिया की फटी झोली में, हमारी जेब से निकाल कर 54,584 करोड़ रुपए नकद और 55,692 करोड़ रुपये बाजार से उठाये गये कर्जों के एवज में जमानतस्वरूप डाले हैं। सरकार बता रही है कि एयर इंडिया में प्रतिदिन का घाटा 20 करोड़ रुपयों का था। इसलिए इस बोझ को कंधे से उतारना जरूरी था। अगर यह सच है तो हम मान रहे हैं कि सबका साथ-सबका विश्वास लेकर, सबके प्रयास से देश का विकास करने की कोशिश में लगी इस सरकार ने टाटा कंपनी को मामू बनाया। अगर यह सच है तो इससे दो बातें स्वतः सिद्ध होती हैं : पहली यह कि सरकार ‘सबका विकास’ के दायरे में टाटा कंपनी को शरीक नहीं करती है (तभी तो उसे मामू बनाया न!) और दूसरी बात यह कि टाटा इतनी लल्लू कंपनी है कि उसने यह भंगार खरीद लिया। क्या ये दोनों बातें सरकार का काइयां चेहरा नहीं दिखाती हैं?
आँकड़े ही इस कहानी का दूसरा पक्ष हमारे सामने रखते हैं। टाटा ने 18,000 करोड़ रुपयों में एयर इंडिया खरीदा है जिसमें से देश को मात्र 2,700 करोड़ रुपये नकद मिलेंगे। बाकी 15,3000 करोड़ रुपये उस 60,000 करोड़ रुपयों के कर्ज में से बाद कर दिये जाएंगे जो 31 अगस्त 2021 की तारीख में एयर इंडिया पर थे। तो देश को इस विनिवेश से मिला क्या? घरेलू हवाई अड्डों पर 1,800 अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के उतरने व ठहरने की सुविधा, विदेश में 900 तथा देश में 4,400 सुरक्षित हवाई स्थानों की सुविधा, 30 लाख से अधिक निश्चित यात्री, 141 विमानों का जत्था, 13,500 प्रशिक्षित व अनुभवी कर्मचारी तथा घरेलू आसमान में 13.2 फीसद की हिस्सेदारी। मानिए कि एक बनी-बनायी, जाँची-परखी हवाई कंपनी भारत सरकार ने टाटा को उपहार में दे दी है। अब इस कंपनी को चाहिए तो बस एक कुशल, ईमानदार प्रबंध तथा व्यापार-बुद्धि, जो दोनों टाटा के पास है। इसलिए तो सौदा पूरा होने के बाद रतन टाटा ने इतने विश्वास से कहा : “हम एयर इंडिया की खोयी प्रतिष्ठा फिर से लौटा लाएंगे!” हम सब एयर इंडिया को और रतन टाटा को इसकी शुभकामना दें।
सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियाँ हमारी गाढ़ी कमाई से बनायी गयी वे राष्ट्रीय संपत्तियाँ हैं जिन्होंने लंबे औपनिवेशक शोषण से बाहर निकले देश की आत्मनिर्भरता को मजबूत बनाया है।
अंतरराष्ट्रीय मंदी के लंबे दौर से हम खुद को जिस हद तक बचा सके, उसके पीछे हमारी इन आत्मनिर्भर परियोजनाओं की, लघु उद्योगों के जाल की बड़ी भूमिका रही है। सार्वजनिक क्षेत्र की हमारी कंपनियाँ देश की उन जरूरतों को पूरा करती हैं जिनकी तरफ मात्र मुनाफा व सुरक्षा को देखने वाले निजी व्यापारी तथा कॉरपोरेट देखते भी नहीं हैं।
सार्वजनिक क्षेत्र के पास दो सबसे बड़ी ताकत होती है : जनता से मिलनेवाली बड़ी अकूत पूँजी और सत्ता से मिलनेवाली सुविधाएँ व संरक्षण। किसी भी व्यापारिक उपक्रम को सफल बनानेवाले ये दोनों तत्त्व, किसी कॉरपोरेट को नहीं मिलते हैं। उसे यह सब चोर दरवाजे से हासिल करना पड़ता है। फिर यह कैसे और क्यों होता जा रहा है कि विनिवेश के नाम पर हम सार्वजनिक क्षेत्रों को खोखला बनाते जा रहे हैं? कारण दो हैं : सरकारों ने सार्वजनिक उपक्रमों को, लोक कल्याण की अपनी प्रतिबद्धता की नजर से नहीं देखा बल्कि इससे मनमाना कमाई का कॉरपोरेटी रास्ता बनाया है। उसने सार्वजनिक क्षेत्र के नाम पर ऐसे उपक्रमों में हाथ डाला जो किसी भी तरह लोक कल्याण के उपक्रम नहीं थे। दूसरी तरफ सरकारी होने के कारण उनके प्रति किसी की निजी प्रतिबद्धता नहीं रही। तो नजर भी गलत रही और प्रतिबद्धता भी खोखली रही।
सार्वजनिक उपक्रमों की कठोर समीक्षा का सिलसिला न कभी बनाया गया, न चलाया गया। इसलिए ये उपक्रम निकम्मे मंत्रियों और चालाक नौकरशाहों का आरामगाह बन गये। अब विनिवेश के नाम पर वे ही लोग अपनी नंगी विफलता व बेईमानी को छुपाने में लगे हैं।
अत्यंत केंद्रित औद्योगिक क्रांति के साथ ही एक नया चलन सामने आया : पूँजी व सत्ता का गठजोड़! यह गठजोड़ हमेशा सार्वजनिक हित के खिलाफ काम करता रहा है। यहीं से उपनिवेशों का क्रूर शोषणकारी चलन बना। अब उसने नया रूप धरा है और विनिवेश व विकास के नाम पर पूँजी तथा प्राकृतिक संसाधन को कॉरपोरेटों के हवाले कर रहा है। इसलिए हमें सावधानीपूर्वक यह देखना चाहिए कि सार्वजनिक पूँजी और प्राकृतिक संसाधनों का निजीकरण न हो। इसमें से शोषण व गुलामी के सिवा दूसरा कुछ हमारे हाथ आएगा नहीं।