जयप्रकाश नारायण ने अपने सतहत्तर बरस के कर्मयोगी जीवन में देश-दुनिया के साथ एकतरफा योगदान का सम्बन्ध रखा। किसी चुनाव में उम्मीदवार बनकर अपने लिए वोट नहीं माँगा। कभी किसी सरकारी पद पर नहीं रहे। अनेकों प्रकार के संगठनों और आन्दोलनों को बहुत कुछ समर्पित करने के बावजूद अपना कोई ‘पंथ’ या ‘सम्प्रदाय’ नहीं बनाया। फिर भी देशभर में उन्हें स्वतंत्रता, नागरिक अधिकारों, राष्ट्रीय एकता, समाजवाद, सर्वोदय, अहिंसक क्रान्ति और विश्वशांति के मार्गदर्शक के रूप में याद किया जाता है। सर्वोदय के लिए समर्पित रचनात्मक संस्थाओं से लेकर गांधी-लोहिया-जयप्रकाश धारा से जुड़े हजारों आदर्शवादी सार्वजनिक कार्यकर्ता जेपी के जीवन और चिन्तन से प्रकाश पाते रहे हैं। उनके महाप्रस्थान के चार दशकों बाद भी लोकतंत्र संवर्धन मंचों और नागरिक अधिकार आन्दोलन से लेकर किसान संगठन, मजदूर सभा और विद्यार्थी-युवा समितियों तक जेपी की प्रेरणा का प्रवाह है।
इस सब के बावजूद कई लोग अब भी यह सवाल उठाते हैं कि‘आखिर जेपी के आन्दोलन से क्या मिला?’ इसकी शुरुआत 1977 में जेपी की बनायी जनता पार्टी की सरकार के प्रधानमन्त्री श्री मोरारजी देसाई ने की थी (देखें : जेपी एक जीवनी– अजित भट्टाचार्य व अरविन्द मोहन (2006) (नयी दिल्ली, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ 236)। इसपर अगर कोई याद दिलाए तो गलत नहीं होगा कि ‘बाकी सब छोड़िए। आपका प्रधानमन्त्री बनने का 11 बरस लंबा सपना तो जेपी ने ही पूरा किया!’ ऐसी सोच वाले व्यक्ति यह कैसे भूल जाते हैं कि जेपी की पहल के दो पहलू थे– (1) 1970- से जून 75 तक का लोकतंत्र सुधार अभियान का दौर, और (2) 26 जून ‘75 से – 21 मार्च,’77 का ‘तानाशाही हटाने के लिए विपक्ष एकता की रचना’ का घटनाचक्र। यह तो इतिहास में दर्ज हो ही चुका है कि दोनों अवधियों में जेपी का किसी भी विचारधारा और किसी भी दल के किसी भी नेता के मुकाबले देश में बहुत जादा प्रभाव था। आखिर क्यों?
दूसरी तरफ, इंदिरा गांधी ने जेपी को ‘एक दयनीय’ व्यक्ति (‘पुअर ओल्ड जे.पी.!’) बताया- आजीवन ‘बुद्धिभ्रष्ट’ (‘कन्फ्यूज्ड माइंड’), ‘नेहरू के प्रति ईर्ष्यालु’ (‘जेलसी ऑफ़ माई फादर’), ‘हताश जिन्दगी’ (‘सच ए फ्रस्ट्रेटेड लाइफ’) और पदलिप्सा (‘इट वाज नानसेंस टु से दैट ही दिड नाट वांट ऑफिस। वन पार्ट ऑफ़ हिम दिड, वेरी मच सो…’) से पीड़ित रहे। इसी सोच को एक तुकबंदी बनाकर यह भी फैलाया गया कि ‘जेपी की‘सम्पूर्ण क्रांति’ अर्थात ‘सम्पूर्ण भ्रान्ति!’ जाने-अनजाने इसकी शुरुआत आचार्य विनोबा भावे ने की थी। (देखें : कुसुम देशपांडे (2010) पूर्वोक्त; पृष्ठ 471).
इंदिरा गांधी के 1973-‘79 के बीच मुख्य सलाहकार रहे पीएन धर के अनुसार जेपी के आन्दोलन और इंदिरा गांधी की इमर्जेन्सी दोनों ने देश में स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अनिवार्य संस्थाओं को कमजोर किया। समाज में कानून-व्यवस्था के प्रति सम्मान के भाव को कम किया। इमर्जेन्सी में सत्ताधारियों द्वारा विधिसम्मत तरीकों की अवहेलना की गयी और जेपी आन्दोलन ने सत्ता-व्यवस्था की अवमानना को औचित्य और गौरव प्रदान किया (देखें : इंदिरा गांधी, इमरजेंसी एंड इंडियन डेमोक्रेसी – पीएन धर (2000) (नयी दिल्ली, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ 373).
सबसे हास्यास्पद आरोप
यह सबसे हास्यास्पद आरोप है कि जयप्रकाश नारायण ने ही‘सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन’ में समर्थन लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे हिन्दू साम्प्रदायिक संगठन को प्रतिष्ठा दिलायी। (देखें : इन द नेम ऑफ़ डेमोक्रेसी – बिपन चन्द्र (2003) (गुडगाँव, पेंगुइन बुक्स, पृष्ठ 145)। इस दावे से यह सवाल पैदा होना स्वाभाविक है कि क्या जेपी के साथ 1974-78 के दौरान सहयोग से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे सम्बद्ध जनसंघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद राजनीतिक दृष्टि से बेअसर और सम्मानरहित संगठन थे? यदि जेपी द्वारा आरएसएस और जनसंघ के बारे में 1974-77 में की गयी तारीफ से प्रतिष्ठा मिली तो क्या 1978-79 अर्थात अंतिम दिनों में प्रकट निराशा से इनका प्रभाव घट गया?
इस दृष्टिकोण को सबसे पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से 1975 में प्रचारित किया गया। तबसे बार-बार की गयी इस चेष्टा का कुछ असर भी हुआ है। क्योंकि हर साल इमरजेंसी दिवस (26 जून) और जेपी के जन्म दिवस (11 अक्टूबर) पर किसी न किसी पत्र-पत्रिका में इसे पाँच दशकों से दुहराया जाता है। स्वयं जेपी की दिशा के प्रति आकर्षित कुछ लोगों में भी इस मान्यता का जिक्र बढ़ता जा रहा है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन शिखर नेतृत्व के अनुसार इमरजेंसी की घोषणा से जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सक्रिय ‘प्रतिक्रांतिकारी और फासिस्ट’ ताकतों के खिलाफ प्रगतिशील ताकतों के बीच संघर्ष का एक नया दौर शुरू हुआ। इसको कांग्रेस और कम्युनिस्ट एकता से जन-साधारण को 20-सूत्री कार्यक्रम के जरिये राहत दिलाते हुए परास्त किया जाना चाहिए। इन शक्तियों का सीआईए (अमरीकी गुप्तचर संगठन) से भी निकट सम्बन्ध है। आरएसएस, आनंद मार्ग और जमात-ए-इस्लामी को प्रतिबंधित करना पहला कदम है। अब कांग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बीच हर स्तर पर निकट सहयोग की तरफ बढ़ना होगा। (देखें : इमरजेंसी और कम्युनिस्ट पार्टी – राजेश्वर राव (अगस्त,1975) (नयी दिल्ली, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इण्डिया, अजय भवन, पृष्ठ 1-16)।
कम्युनिस्ट सिद्धांतकार मोहित सेन ने तो यहाँ तक दावा किया कि इमरजेन्सी भारत में लोकतंत्र का प्रतिरोध करनेवाली दक्षिणपंथी शक्तियों के फासिस्ट आन्दोलन पर प्रगतिशील ताकतों के द्वारा राजसत्ता के जरिए निर्णायक प्रहार है। इमरजेन्सी लागू होने से भारत की जनता हिटलर के नेतृत्व में हुए जनतंत्र-विनाश जैसे भयानक दौर से बचा ली गयी है। भारत में 1917 के रूस जैसी परिस्थितियाँ नहीं हैं। लेकिन प्रधानमंत्री के 20-सूत्री कार्यक्रम से आगे जाना होगा और कम्युनिस्ट पार्टी को अपना न्यूनतम कार्यक्रम भी प्रचारित करना होगा। (वही; पृष्ठ 26-39)।
यही आरोप श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल के पक्ष में राष्ट्र के नाम दिये गये पहले संबोधन से शुरू करके इमरजेंसी राज के खत्म होने तक बार-बार दुहराया। उन्होंने कहा कि जेपी ने आरएसएस, जनसंघ, मार्क्सवादियों और नक्सलवादियों को प्रतिष्ठा दी है। चुनाव के मोर्चे पर पराजित शक्तियाँ अलोकतांत्रिक तरीकों से अराजकता फैलाने में जुट गयी हैं (देखें : पीएन धर (2000) (पूर्वोक्त; पृष्ठ 309-310)। इनके भुलावे में आकर जेपी ने पुलिस और फौज तक को बगावत के लिए भड़काने की कोशिश की है (इंदिरा गांधी – पुपुल जयकर (1992) (गुडगाँव, पेंगुइन बुक्स; पृष्ठ 268-270)।
वैसे श्रीमती इंदिरा गांधी ने शुरू में, दिसम्बर,’74 तक, जेपी के अभियान को ‘ग्रैंड एलाएंस’ (संगठन कांग्रेस, जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी का 1971 में पराजित गठबंधन) की कोशिश बताया था (देखें : ब्लिट्ज, 7 और 14 दिसम्बर ’74)। लेकिन दो महीने बाद उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की शब्दावली का इस्तेमाल करते हुए इसे ‘फासिस्ट’ ( इटली के तानाशाह मुसोलिनी के अनुयायियों का संगठन) बताना शुरू कर दिया (देखें : खुशवंत सिंह को दिया गया साक्षात्कार, हिन्दुस्तान टाइम्स; 13 जनवरी ’75)। इमरजेन्सी लागू करने के साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जमाते इस्लामी, आनन्द मार्ग आदि 26 संघटनों को प्रतिबंधित करने के बाद ‘फासिस्ट’ ही जेपी का पर्यायवाची बना दिया गया। एक कांग्रेसी सांसद आरके सिन्हा ने कांग्रेस समर्थक अंग्रेजी अखबार ‘नेशनल हेरल्ड’ में लिखा कि ‘निष्पक्ष होने का दावा करनेवाले जयप्रकाश नारायण वस्तुत: राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर और नानाजी देशमुख के राजनीतिक बंधक (‘आइडोलाजिकल प्रिजनर’) हैंऔर जनहित में विफल सिद्ध हो चुके कुछ विपक्षी राजनीतिक दल उनको आगे रखकर अपने नापाक मंसूबों को पूरा करने में जुटे हैं।’(देखें: नेशनल हेरल्ड; 29 जून ’74)।
(जारी)
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