पिछले 45 साल से चल रहे जेपी विरोधी प्रचार में नरेंद्र मोदी के 2014 और पुन: 2019 में एनडीए की सरकार का प्रधानमन्त्री बनने के बाद से एक नया विमर्श उभरा है। इस विमर्श की तीन निराधार स्थापनाएं हैं – (1) जेपी द्वारा प्रवर्तित बिहार आन्दोलन में आरएसएस और उससे सम्बद्ध जनसंघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की मुख्य भूमिका थी। (2) प्रतिक्रियावादी शक्तियों और अंतरराष्ट्रीय ताकतों के गठजोड़ ने इंदिरा-विरोधी आन्दोलन चलाने के लिए दिग्भ्रमित जेपी का इस्तेमाल किया। और (3) जेपी द्वारा‘सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन’ में आरएसएस और सम्बद्ध संगठनों का सशर्त सहयोग लेना ‘हिन्दू राष्ट्र’ के अभियान समेत राष्ट्रीय एकता और संविधान पर बढ़ रहे सभी खतरों की जड़ है। (देखें : द आरएसएस – ए.जी. नूरानी (2019) (नयी दिल्ली, लेफ्ट वर्ड, पृष्ठ 172-202)।
अब इस सच का क्या करें कि सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन नवम्बर,’74 के बाद से बिहार में चुनाव की चुनौती की ओर मुड़ चुका था और राष्ट्रीय स्तर पर 6 मार्च,’75 का दिल्ली प्रदर्शन इसकी अंतिम बड़ी घटना थी। बिहार के 318 विधायकों में से कुल 42 विधायकों ने ही विधानसभा भंग करने के समर्थन में इस्तीफा दिया था। आगामी विधानसभा चुनाव को अपना मोर्चा बनाने के कारण बिहार के बाहर इसका प्रभाव नगण्य हो गया था। अगर आरएसएस के सम्बद्ध संगठन इसका आधार थे तो यह सब क्यों हुआ? क्योंकि 1974 में भी आरएसएस की देश भर में 10,000 शाखाएं और 10 लाख सदस्य थे!
दूसरे, 1980–’87 के बीच अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में ‘गांधीवादी समाजवाद’ के बल पर सत्ता की ओर बढ़ने में लगातार फिसल रही भारतीय जनता पार्टी लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में 1987-1999 के बीच बाबरी मस्जिद–राम जन्मभूमि मुद्दे को सत्ता की सीढ़ी बनाने के बाद ही कांग्रेस की राजनीतिक ताकत और वामपंथियों की वैचारिक चुनौती का मुकाबला करने में सफल हुई (देखें : नूरानी (2019) पृष्ठ 226)? यह सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन (1974-’79) की बजाय मंदिर-मंडल-भूमंडलीकरण के त्रिकोण के दौर (1989-’98) में हुआ। तब क्रमश: राजीव गांधी (1984-’89), वीपी सिंह (1989-’90), चंद्रशेखर (1990-‘91), नरसिंह राव (1992-’97), आईके गुजराल (1996-’97) और देवगौड़ा (1997-’98) प्रधानमन्त्री थे।
इस आरोप के पक्ष में जेपी के भारतीय जनसंघ के अखिल भारतीय अधिवेशन में 5 मार्च ’75 को दिये एक भाषण का निम्नलिखित अंश बराबर एक‘अर्धसत्य’ की तरह उद्धृत किया जाता है : ‘सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन को समर्थन देनेवाले किसी संगठन को प्रतिक्रियावादी और फासिस्ट कैसे कहा जा सकता है? अगर जनसंघ फासिस्ट है तो मैं भी फासिस्ट हूँ।’ यह भाषण अगले दिन 6 मार्च को देश के सभी प्रमुख अखबारों में और अगले पखवाड़े में‘पांचजन्य’ और ‘एवरीमैंस’ में भी छपा था। (देखें : इन द नेम ऑफ़ डेमोक्रेसी – बिपन चन्द्र (2003) (पूर्व उद्धृत, पृष्ठ 145-146)।
लेकिन इन सब सवालों का पूरा प्रसंग सिर्फ जयप्रकाश नारायण (1977) की प्रिजन डायरी (पापुलर प्रकाशन, बम्बई), ब्रिटिश समाजवैज्ञानिक जेफ्री ओस्तर्गार्ड (1985) की महत्त्वपूर्ण अंग्रेजी किताब ‘नॉन-वोयलेंट रिवोल्यूशन इन इंडिया’ (नयी दिल्ली, गांधी शांति प्रतिष्ठान) और कुसुम देशपांडे (2010) की विनोबा – अंतिम पर्व (परमधाम प्रकाशन, वर्धा) में सामने आया है। बाकी सबने इसे ‘अर्ध-सत्य’ की तरह इस्तेमाल किया है।
वस्तुत: 18 मार्च ’74 और 6 मार्च, ’75 के बीच जेपी और विभिन्न छात्र-युवा संगठनों और कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक दलों के बीच सीधे संवाद और सशर्त सहयोग का समय था। इन बारह महीनों में देश की राजनीति और जेपी की भूमिका दोनों में बहुत बड़ा बदलाव आया था। देश की अर्थ-व्यवस्था में मुद्रास्फीति और महँगाई का उछाल था। जुलाई, ’74 से वेतन-वृद्धि पर रोक लगा दी गयी थी। खाद्यान्न व्यापार के राष्ट्रीयकरण ने किसानों और व्यापारियों को असंतुष्ट कर रखा था। तस्करी और जमाखोरी रोकने के लिए किये गये कानूनी संशोधनों ने पुलिस और प्रशासन को ‘मीसा’ के रूप में नयी ताकत दे दी थी। उद्योगों से लेकर कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में असंतोष और हड़तालों की बढ़ोतरी थी। अकेले मई,74 की राष्ट्रव्यापी रेल हड़ताल से 17 लाख कामगार प्रभावित हुए। इंदिरा गांधी की अपील घट गयी थी और कांग्रेस में पूर्व कम्युनिस्टों और पूर्व-समाजवादियों में मतभेद बढ़ते जा रहे थे।
’73-’74 के भ्रष्टाचार विरोधी नवनिर्माण आन्दोलन के कारण गुजरात में कांग्रेस मंत्रिमंडल को इस्तीफा देना पड़ा और विधानसभा भंग करनी पड़ी। फिर भी कांग्रेस को फरवरी,’74 में उत्तर प्रदेश और ओड़िशा के विधानसभा चुनावों में बहुमत मिला। इसके परिणामस्वरूप 29 अगस्त, ’74 को चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में सात दलों – भारतीय क्रांति दल, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, स्वतंत्र पार्टी, उत्कल कांग्रेस, राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक दल, स्वतंत्र खेतिहर संघ और हरिजन संघर्ष समिति – के विलय से भारतीय लोकदल का गठन भी दलीय राजनीति में नया मोड़ था। जबलपुर के लोकसभा उप-चुनाव में ‘जनता उम्मीदवार’ के रूप में छात्रनेता शरद यादव की जीत का अलग महत्त्व था।
जेपी एक निर्दलीय वरिष्ठ सर्वोदयी व्यक्तित्व से सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन के पथ-प्रदर्शक लोकनायक हो चुके थे। अपने सरोकारों में तात्कालिक और दीर्घकालीन लक्ष्यों का अन्तर भी समझाने लगे थे। इसमें यह बात प्रमुखता से सामने रखी जाने लगी कि मौजूदा आन्दोलन ‘दल-विहीन लोकतंत्र’ के लिए नहीं है। यह बहुदलीय व्यवस्था के संवैधानिक ढांचे के अंतर्गत ही दो दलीय व्यवस्था के विकास और ईमानदार व्यक्तियों को चुनने का एक प्रयास है। इसलिए हमें चमत्कार की अपेक्षा नहीं है। निर्दलीयता का आग्रह रखनेवाले जेपी समय रहते एक नये दल का गठन करने या मौजूदा दलों को एकजुट करने के उपायों से आगे गांधी के रास्ते पर जाने का जोर दे रहे थे – ‘बिहार आन्दोलन का आवेग और प्रभाव अनंत काल तक नहीं रहनेवाला है।’
वैसे जेपी का इंदिरा गांधी की सरकार में बढ़ते केन्द्रीयकरण, कम्युनिस्ट प्रभाव और कांग्रेस पार्टी में पनपते व्यक्तिवाद के कारण 1972 से ही मोहभंग जारी था। जेपी ने बैंक राष्ट्रीयकरण और खाद्यान्न-व्यापार के सरकारीकरण को जनहितकारी मानने से इनकार किया था। वह 25वें संविधान संशोधन और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में तीन जजों की वरिष्ठता की अनदेखी करते हुए न्यायमूर्ति अजितनाथ रे के मनोनयन से बेहद चिंतित हुए थे। दैवयोग से इन सभी प्रसंगों में जेपी के दृष्टिकोण और प्रमुख गैर-कांग्रेसी तथा गैर-कम्युनिस्ट दलों की प्रतिक्रिया में एकरूपता थी। इससे इंदिरा गांधी विचलित थीं और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व की तरफ से आग में घी डाला जा रहा था। फिर भी जेपी ने सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के निर्दलीय चरित्र के महत्त्व को समझाने की कोशिश जारी रखी- ‘यह आन्दोलन न तो कांग्रेस विरोधी है और न इनकी कमान किसी एक दल या दलों के मोर्चे के हाथ में रही है।’ जेपी ने 6 मार्च,’75 के जनता मार्च तक यही रुख बनाए रखा। इसमें कांग्रेस के अंदर के समाजवादी खेमे की तरफ से भी सहयोग मिलता रहा।
इस आरोप के बारे में जेपी के अनुसार सच यह था कि ‘बिहार आन्दोलन में आरएसएस की सीधी भूमिका न होने के बावजूद जनसंघ और विद्यार्थी परिषद में सक्रिय सदस्यों के माध्यम से 18 मार्च, ’74 से ही हिस्सेदारी थी। जयप्रकाश नारायण ने इसमें अपनी शर्तों और अपने सहकर्मियों के साथ एक निर्दलीय शांति प्रदर्शन के जरिए 8 अप्रैल से सहयोग शुरू किया था। लेकिन इसमें सिर्फ जनसंघ और विद्यार्थी परिषद् सक्रिय नहीं थे। सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, कांग्रेस (संगठन), भारतीय लोकदल, और मार्क्सिस्ट कोआर्डिनेशन कमिटी और इनके युवा संगठन भी सक्रिय भागीदार थे। कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और फॉरवर्ड ब्लाक आन्दोलन की समन्वय समिति में शामिल नहीं थे लेकिन आन्दोलन को समर्थन दिया था…
जेपी के इस दावे में दम था। क्योंकि जब उन्होंने 25-26 नवम्बर, ’74 को पहला राजनीतिक दल संवाद आयोजित किया तो उसमें सभी गैर-कांग्रेसी और गैर-कम्युनिस्ट दलों ने हिस्सा लिया। इस सम्मेलन ने परस्पर सहयोग बढ़ाने के लिए एक संचालन समिति बनायी जिसके अध्यक्ष जेपी और सचिव गांधी शांति प्रतिष्ठान के मंत्री राधाकृष्ण बनाये गये। अब देखा जाए कि इस महत्त्वपूर्ण सम्मेलन में किन दलों के किन नेताओं की उपस्थिति थी? कांग्रेस (संगठन) की ओर से मोरारजी देसाई, अशोक मेहता और श्यामनंदन मिश्र, जनसंघ की ओर से लालकृष्ण आडवाणी, अटलबिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख और डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी, सोशलिस्ट पार्टी की ओर से नानासाहब गोरे, जॉर्ज फर्नांडिस, मधु लिमये, और प्रमिला दंडवते, भारतीय लोकदल की ओर से चरण सिंह, राजनारायण, पीलू मोदी, कर्पूरी ठाकुर, और पी.के. सिंहदेव, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के एरा सेझियन, अकाली दल से प्रकाश सिंह बादल, रेवोलुशनरी सोशलिस्ट पार्टी के त्रिदिब चौधरी, आर्य समाज के स्वामी अग्निवेश, और दो निर्दलीय सांसद शमीम अहमद शमीम और पी.जी. मावलंकर। इनमें से अधिकांश की साम्प्रदायिकता के विरुद्ध स्पष्ट प्रतिबद्धता थी और जनसंघ या आरएसएस से अलग जनाधार था। सर्वोदय आन्दोलन से सिद्धराज ढड्ढा, मनमोहन चौधरी, नारायण देसाई और राधाकृष्ण थे। बुद्धिजीवियों की तरफ से बी.जी. वर्गीज (सम्पादक, हिन्दुस्तान टाइम्स), अर्थशास्त्री बी.एस. मिन्हास, राजनीतिशास्त्री रजनी कोठारी, अर्थनीति विशेषज्ञ जे.डी.सेठी और विधिवेत्ता ए.जी.नूरानी उपस्थित थे।
ये सभी गांधी के सर्वधर्म समभाव और संविधान में निर्दिष्ट धर्मनिरपेक्षता के प्रति अनुकूल सोच वाले थे। कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद से भी सम्मेलन के पहले मशविरा हो चुका था। इंदिरा कांग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा लगभग सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के नेतृत्व ने जेपी के निमंत्रण का सम्मान किया। इसमें सिर्फ आरएसएस और जनसंघ का वर्चस्व देखना जानबूझकर अनजान बनना होगा।
जेपी को प्रतिक्रियावादियों का अगुआ माननेवालों में इस बात की चर्चा नहीं होती कि सिर्फ जनसंघ ही नहीं बल्कि समाजवादियों, गैर-सरकारी कांग्रेसियों और वामपंथियों से भी जेपी का लगातार सकारात्मक संवाद और सहयोग था। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नम्बूदरीपाद, ज्योति बसु, ज्योतिर्मय बसु, पी. सुन्दरैया और प्रमोद दासगुप्ता के साथ दिल्ली, बंगाल और केरल में विशेष मुलाकातें हुईं। इस सिलसिले में 18 सितम्बर ’74 का जेपी, मधु दंडवते, पी. सुन्दरैया और प्रमोद दासगुप्ता का संयुक्त वक्तव्य और नम्बूदरीपाद के 74-77 के बीच के अनेकों आलेख देखने चाहिए। इस पार्टी ने 1971 के भारत-पाक युद्ध के मौके पर लागू किये गये ‘आपातकाल’ को हटाने के लिए जेपी की पहल पर चलाये गये अभियान को समर्थन दिया था। इसकी शुरुआत 6 अप्रैल,’74 को ‘इमरजेंसी विरोधी दिवस’ के रूप में की गयी। इसके समर्थन में पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुब्बाराव ने भी बेंगलुरु की जनसभा में भाषण दिया। इस प्रावधान के अंतर्गत 6,000 व्यक्ति बिना मुकदमा चलाये विभिन्न जेलों में ‘मीसा बंदी’ थे और भारत रक्षा कानून का इस्तेमाल शांतिपूर्ण आंदोलनों को दबाने में किया जा रहा था। इसका एक स्पष्ट उदाहरण 8 से 27 मई की देशव्यापी रेल-हड़ताल का दमन था। 12 जून’75 के बाद इस दल ने भी इंदिरा गांधी के इस्तीफे की माँग का समर्थन किया था।
जेपी की यह मान्यता थी कि 1969 में हुई कांग्रेस-टूट के बाद भारतीय लोकतंत्र के सामने नये खतरे आ गये हैं। इंदिरा गांधी की सत्ता पर पकड़ के बावजूद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और सोवियत रूस पर निर्भरता बढ़ती गयी है। कांग्रेस में अनेकों छद्म कम्यूनिस्ट हैं जो सदैव लोकतंत्र के दुश्मन रहे हैं। इनके पीछे कम्युनिस्ट पार्टी का हाथ है। सोवियत रूस का भी योगदान है। वैसे यह नोट करने की जरूरत है कि इमरजेंसी राज के दौरान प्रधानमन्त्री निवास में संजय गांधी के इर्द-गिर्द बने गिरोह का कम्युनिस्ट-विरोध जेपी की कल्पना के बाहर था। (देखें : पी.एन. धर (2000) पूर्वोक्त; पृष्ठ 312)।
इस तस्वीर का दूसरा पहलू यह था कि जेपी के सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन और इंदिरा गांधी के इमरजेंसी राज के कारण सर्वोदयी सर्व सेवा संघ और सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी समेत सभी विचारधाराओं और संगठनों में अंतर्विरोध बढ़ गये। आचार्य विनोबा भावे ने 27 दिसम्बर ’74 से मौनव्रत ले लिया था और सर्व सेवा संघ की केन्द्रीय समिति के 24 में से 21 सदस्य सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के सहयात्री बन गये। मात्र तीन सदस्य इंदिरा सरकार से बढ़ती दूरी और विरोधी दलों के साथ जेपी की बढ़ती निकटता के आलोचक थे। जबकि सर्वोदय से जुड़े युवाओं ने तरुण शांति सेना के माध्यम से आन्दोलन में प्रभावशाली योगदान किया। जनवरी,’75 में स्थापित छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी ने जेपी के अभियान में नया उत्साह पैदा कर दिया था। संघर्ष वाहिनी की स्थापना के जरिये जेपी ने निर्दलीय छात्र-युवा शक्ति का मार्ग प्रशस्त किया था। यह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और समाजवादी युवजन सभा समेत विभिन्न गैर-कांग्रेसी दलों से जुड़े छात्र-युवा संगठनों के प्रति जेपी की निराशा का भी प्रमाण था।
जेपी के आह्वान को लेकर कांग्रेस संसदीय दल और मंत्रिमंडल में भी मतभेद थे। इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार भी किया गया। जैसे कांग्रेस संसदीय दल के महामंत्री रामधन और कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के सदस्य चंद्रशेखर। 1977 के चुनाव में कांग्रेस का एक हिस्सा जगजीवन राम और हेमवतीनन्दन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी के नेतृत्व में जेपी के द्वारा स्थापित जनता पार्टी का सहयोगी बना। बिहार विधानसभा के कुल 88 विपक्षी विधायकों में से 38 ने त्यागपत्र दे दिया।
आरएसएस, जनसंघ और अ.भा.वि.प. में भी गहरी दरारें पैदा हुईं। इनके जेपी-समर्थक हिस्से में भारत की राजनीति, इस्लाम और मुसलमान, गांधीमार्ग और जेपी के सरोकारों के बारे में नयी समझ बनी। इस मतभेद का एक उदाहरण यह था कि जनसंघ के 24 में से 11 विधायकों को विधानसभा भंग करने की माँग के समर्थन में इस्तीफा न देने के कारण निष्कासित कर दिया गया था। आरएसएस पर प्रतिबन्ध के कारण गिरफ्तार किये गये सरसंघचालक देवरस द्वारा प्रधानमंत्री, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और आचार्य विनोबा भावे को भेजे गये अनेकों समझौता प्रस्ताव इसका दूसरा उदाहरण बना।
1971 से ही बिखराव के भँवर में फँसे समाजवादियों में से कई अनुयायी बन गये लेकिन कुछ सशंकित थे। एक समाजवादी विधायक ने बिहार विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र की बजाय समाजवादी पार्टी से ही इस्तीफा दे दिया था। कांग्रेस (संगठन) के नेताओं में भी गुजरात से लेकर बिहार तक मतभेद थे। वामपंथी दलों में भी विवाद था– भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी डांगे और मोहित सेन की अगुआई में खुलकर जेपी को प्रतिक्रियावादी और फासिस्ट आन्दोलन का अगुआ बता रही थी। लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, फारवर्ड ब्लाक, रिवोलूशनरी सोशलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी – सत्यनारायण सिंह गुट) की जेपी के दृष्टिकोण और सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन के प्रति सहानुभूति थी। लेकिन गुजरात और बिहार आन्दोलन में जनसंघ और कांग्रेस (संगठन) को लेकर एतराज था। फिर भी गुजरात और बिहार विधानसभा को भंग करके नया चुनाव कराने की माँग को समर्थन था।
यह तो भूला ही नहीं जा सकता कि इस दौर के जेपी और सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के पक्ष और विपक्ष में हुए ध्रुवीकरण से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी अछूती नहीं रही। इसमें भी 1978-’79 में बिखराव आया और इमरजेंसी राज का आँख मूँद कर समर्थन करनेवाले वरिष्ठतम नेता श्रीपाद अमृत डांगे 1978 में अध्यक्ष पद से हटाये गये और फिर 1981 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से ही निष्कासित कर दिये गये। डांगे 1981 में रोजा देशपांडे (बेटी) और वाणी देशपांडे (दामाद) द्वारा गठित इंडियन कम्युनिस्ट पार्टी के महामंत्री बने। दूसरे कांग्रेस समर्थक कम्युनिस्ट सिद्धांतकार मोहित सेन भी 1978 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से बाहर हो गये। इन्होंने अपने समर्थकों के साथ 1980 में ऑल इंडिया कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। 1989 में डांगे और मोहित सेन ने अपने संगठनों का विलय करके यूनाइटेड कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया। लेकिन यह संगठन कभी प्रासंगिक नहीं बन सका।