जी हाँ, हम अंधभक्‍त हैं, क्‍या भारत-पाक महासंघ का विचार डरावना है?, क्‍या डॉ आंबेडकर सफल हैं, डॉ. लोहिया असफल!, क्‍या बौद्धिक जगत में लोहिया की पहचान नहीं?

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— प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन —

(चौथी किस्त)

लेखक ने इस लेख में लोहिया के विचार भारत-पाक महासंघ की अप्रासंगिकता भी पेश की है। वे लिखते हैं कि– “भारत-पाक महासंघ (भारत-पाक एका) का प्रस्‍ताव लोहिया विचार का दूसरा पहलू है जिसकी प्रासंगिकता आज संदिग्‍ध हो गयी है। आज भारत-पाक महासंघ के प्रस्‍ताव को सुनकर पाकिस्‍तान या भारत के अन्‍य किसी भी पड़ोसी देश के नागरिक को डर लगता है कि उसे यह प्रस्‍ताव दक्षिण एशिया में भारत के वर्चस्‍व का पर्याय लगता है। ……. आज के हालात में उनके प्रस्‍ताव को हू-ब-हू दोहराने से फायदा कम नुकसान ज्‍यादा है।

गांधीजी, सरहदी गांधी, बादशाह ख़ान, जयप्रकाश नारायण और डॉ. लोहिया ये चार लोग थे, जिन्‍होंने हिंदुस्‍तान-पाकिस्‍तान के बँटवारे का विरोध किया था।

तवारीख का हर तालिबे इल्‍म जानता है। हिंदुस्‍तान-पाकिस्‍तान-बंगलादेश एक इतिहास एक तंजीम रवायत, जबान, नस्‍ल के लोग हैं। इनका बँटवारा सियासी वजह से हुआ है, उसी के खामियाजा के रूप में हिंदुस्‍तान-पाकिस्‍तान की सत्ताधारी ताकतें नफ़रत का व्‍यापार करती हैं। और यह न केवल हिंदुस्‍तान-पाकिस्‍तान के रूप में हुआ, दुनिया के दूसरे मुल्‍क जैसे साउथ कोरिया, नॉर्थ कोरिया, साउथ वियतनाम, नॉर्थ वियतनाम, ईस्‍ट-जर्मनी, वैस्‍ट-जर्मनी के रूप में भी भाई-भाई की तकसीम हुई।

आज की दुनिया में इस तरह के बँटवारे के लिए संजीदा शहरियों में नफ़रत है और मुल्‍क एकीकरण की ओर बढ़ भी रहे हैं, और तो और, उत्तरी कोरिया अपने खूंखार तानाशाह के राज में भी एक-दो बार मिलन के लिए कदम बढ़ा चुका है, जर्मनी के बीच की दीवार गिर चुकी है। यूरोपियन यूनियन अपना कदम बढ़ा रही है। हिंदुस्‍तान-पाकिस्‍तान के गद्दीनशीनों की बात अगर हम छोड़ दें तो आम अवाम मिलने की तरफदार है। हिंदुस्‍तान-पाकिस्‍तान की आपसी लड़ाई में जो अरबों-खरबों रुपयों की बर्बादी के साथ वतन के फौजी शहीद हुए उसको रोका जा सकता है।

लोहिया की यही तो खूबी थी कि जो सच है, उसके साथ खड़े रहो उसकी कितनी भी कीमत चुकानी पड़े। लोहिया पूरी दुनिया में इंसानी एकता और समता के लिए विचार देते हैं कि विश्‍व सरकार बने तथा उसकी एक संसद हो, इंसान बिना पासपोर्ट के एक दूसरे मुल्‍क में आ जा सकें, हालाँकि वो मानते थे कि इस विचार को अमलीजामा पहराने में अनेकों दुश्‍वारियाँ हैं, परंतु फिर भी उनकी सलाह थी कि इस बाबत कुछ करना ज़रूरी है।

इस लेख में आरोप है कि “पिछले एक दशक में डॉ. आंबेडकर के राजनैतिक दर्शन में दिलचस्‍पी बढ़ी है लेकिन डॉ. लोहिया के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ।” आजकल एक राजनैतिक पैंतरा बड़ी तेज़ी से उभरा है। जब कोई तर्कहीन होकर, दूसरों पर आरोप लगाता है तो बाबासाहब, डॉ. भीमराव आंबेडकर के नाम की आड़ का संदर्भहीन इस्तेमाल करके सोचता है कि मैं जो कुछ भी लिखूँगा, दलित उसे मान लेंगे और जिस पर मैं हमला कर रहा हूँ, वो दलित विरोधी घोषित हो जाएगा तथा मेरे को कोई छू भी नहीं पाएगा। ऐसे आदमी गलहफहमी के शिकार हैं। बाबासाहब के अनुयायी ऐसे लोगों से ज्‍यादा होशियार हैं, वे सब समझते हैं कि बाबासाहब के नाम का इस्‍तेमाल तर्क पर आधारित है या अपने व्‍यक्तिगत स्‍वार्थ के लिए।

डॉ. आंबेडकर को, दलित घर में पैदा होने पर जो जिल्‍लत-जलालत भोगनी पड़ी, उससे उनमें विद्रोह उत्‍पन्‍न हुआ। अपने ज्ञान, अनुभव और संघर्ष के आधार पर उन्‍होंने सताए हुए समाज को संदेश दिया कि “शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो जिसके कारण दलित समाज उनके पीछे लामबंद हो गया। लोहिया ने जाति और पैदायश की बिना पर वो जुल्‍म अन्‍याय नहीं सहा, परंतु समाजवादी होने के कारण, जाति के कोढ़ के खिलाफ़ किसी से कम न लिखा और संघर्ष किया। लोहिया जाति तोड़ने पर लगे रहे आज की राजनीति में तोड़ो नहीं, जाति जोड़ो का ज़ोर चल रहा है। गांधी, आंबेडकर, लोहिया की तमाम कोशिशों के बावजूद जातिप्रथा यहाँ तक कि मजहब बदलने के बावजूद अभी भी बनी हुई है।

हमारे आलिम साथी ने लिख दिया कि “आज बौद्धिक जगत में लोहिया की कोई जगह नहीं है, एक औसत बुद्धिजीवी अगर लोहिया का नाम जानता है तो लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव के जनक के रूप में….. आज लोहिया को या तो भुला दिया गया है या फिर उन बातों के लिए याद किया जाता है, जो लोहिया की राजनीति और विचार का मर्म नहीं है।

इसको पढ़कर अफसोस हुआ कि क्‍या हमारे साथी इतने अज्ञान तथा बेखबर हैं। क्‍योंकि हक़ीक़त इस मामले में  एकदम उलट है बौद्धिक जगत के मशहूर-मारूफ आलिम-फाजिल जमात के नामी-गिरामी विद्वान् लोहिया की वैचारिक तपिश, चिंतन की लपट से नयी और पुरानी दोनों पीढ़ियों के अनगिनत बुद्धिजीवी, अवाक, स्‍तब्‍ध, रोमांचित, गुरु के  भाव से सरोबार रहे हैं। अगर उन सबका, ब्‍यौरेवार वर्णन किया जाए तो वह सैकड़ों पन्‍नों की जिल्‍द में बँधी कई किताबों की शक्‍ल में बनेगी। हमारे जानबूझकर बेखबर साथी की मासूमियत तथा उनकी सपाट आरोप लगाने की आदत को दिखाने के लिए कुछ नजीरे जो कलमबंद हैं उनको पेश करना ज़रूरी है।

यह केवल लोहिया थे, जिनके इर्द-गिर्द, सियासतदानों, मशहूर लेखकों, कलाकारों, पेंटरों, नाटककार, संगीतकारों, कवि, शायरों का जमावड़ा लगा रहता था। लेखक ने क्‍योंकि ‘आज’ शब्‍द के इस्‍तेमाल से लिखा है इसलिए हमने भी पहले शुरुआत हाल-फिलहाल में भी लोहिया को बौद्धिक जगत में किस शिद्दत के साथ याद किया जा रहा है, उसकी कुछ नजीरें पेश की हैं। आई. टी. एम. विश्‍वविद्यालय, ग्‍वालियर द्वारा आयोजित डॉ. राममनोहर लोहिया स्‍मृति व्‍याख्‍यानमाला में भारत के भू.पू. उपराष्‍ट्रपति मौ. हामिद अंसारी ने 23 सिंतबर 2015 को अपने व्‍याख्‍यान में कहा कि “कोई भी तमगा, राममनोहर लोहिया की शख्सियत को पूरी तरह से बयां नहीं कर सकता। बीस साल से भी ज्‍़यादा हिंदुस्‍तान की सियासत की धुरी वो बने रहे। वे एक आलिम विद्वान् थे। इंसानी आज़ादी, न्‍याय और गरिमा से जुड़े सभी मुद्दों में वे बेहद दिलचस्‍पी रखते थे। डॉ. लोहिया को कानूनी ज्ञान में कितनी महारत हासिल थी इसका उस घटना से पता चलता है जब 1939 में बर्तानिया हुकूमत ने हिंदुस्‍तान को जबरन दूसरे विश्‍वयुद्ध में अंग्रेजों का साथ देने के लिए मजबूर किया तो लोहिया ने इसकी मुखालफत करते हुए भाषण दिया। सरकार ने उनको गिरफ्तार कर अंग्रेज़ मजिस्‍ट्रेट की अदालत में पेश किया। लोहिया ने अदालत में अपने केस की खुद पैरवी करते हुए कानूनी मिसालें, नुक्‍ते, तर्क पेश किये। इनके कानूनी ज्ञान तथा छोटी उम्र को देखते हुए जज ने जहाँ एक ओर इनके कानूनी ज्ञान की बेहद तारीफ की वहीं इनको सलाह दी कि तुमको आंदोलन वगैरह छोड़कर वकालत के पेशे में आना चाहिए, क्‍योंकि तुम एक बेहद ही पहुँचे हुए वकील बन सकते हो।

हामिद अंसारी ने एक और घटना का जिक्र करते हुए बताया कि 1936 में जवाहरलाल नेहरू से इनका जुड़ाव तब हुआ जब नेहरू जी ने रवीन्‍द्रनाथ टैगोर की अध्‍यक्षता में ‘इंडियन सिविल लिबर्टीज यूनियन’ की स्‍थापना की। उस मौके पर बोलते हुए लोहिया ने (अफसरशाही और सरकार के रिश्‍ते पर) ‘नागरिक आज़ादी की अवधारणा’ (ख्‍याल) पर कहा कि हुकूमत के ओहदेदारों की हदबंदी साफ तौर पर दिखलाती है कि हुकूमत का काम नागरिक आज़ादी की हिफाजत करना है, लेकिन असल में देखा गया कि हुकूमत इसको न केवल नापसंद करती है बल्कि इसके उलट काम करती है। नागरिक आज़ादी के ख्‍याल से भरी हुई जनता बनाए गए स्‍पष्‍ट कानूनों की हदबंदी में रहने के लिए हुकूमत को मजबूर करती है।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस न्‍यायमूर्ति श्री वी. सुदर्शन रेड्डी ने आई. टी. एम. विश्‍वविद्यालय के लोहिया स्‍मृति व्‍याख्‍यान में 29 सितंबर 2017 को कहा “एक ऐसा इंसान (लोहिया) जो तमाम उम्र मुसलसल बिना रुके अमीरी-गरीबी की खाई पाटने, जाति और मर्द-औरत के भेद को मिटाने, बड़ी मशीनों के तथा सामाजिक नुकसानों को बताने में लगा रहा। मुट्ठी भर लोगों की हिंसा और दमनचक्र के शिकार अनगिनत-मर्द-औरत पुश्‍त-दर-पुश्‍त क्‍यों फँसे रहे, उसके क्‍या कारण थे? इसके बारे में खबरदार करता रहा। ऐसे इंसान की दूरदृष्टि का वर्णन करना क्‍या आसान है

भारत के राष्‍ट्रपति महामहिम श्री रामनाथ कोविद ने 11 फरवरी 1918 को आई. टी. एम. परिसर के व्‍याख्‍यान में कहा– “देश के कोने-कोने में जाकर समाज के अंतिम व्‍यक्ति को उसका सम्‍मानजनक स्‍थान दिलाने के लिए डॉ. लोहिया के अनवरत संघर्ष के साथ ग्‍वालियर का नाम भी जुड़ा हुआ है। सन् 1962 के चुनाव में ग्‍वालियर के लोकसभा क्षेत्र से रियासत की महारानी के खिलाफ़ सुक्खोरानी उम्‍मीदवार थी, जो एक सफाईकर्मी थी। 26 जनवरी 1962 के दिन भाषण देते हुए डॉ. लोहिया ने कहा कि यदि ग्‍वालियर के लोग सुक्‍खोरानी को विजयी बनाते हैं तो देश के इतिहास में यह एक दैदीप्‍यमान घटना होगी और इससे एक बड़ी सामाजिक और आर्थिक क्रांति का श्रीगणेश होगा। उन्‍होंने  यह भी कहा कि ग्‍वालियर का चुनाव उत्तर प्रदेश में फूलपुर के चुनाव से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है जहाँ वे स्‍वयं नेहरू जी के विरुद्ध उम्‍मीदवार थे। डॉ. लोहिया के इस वक्‍तव्‍य को चुनाव और दलगत राजनीति के संदर्भ में देखने के बजाय, महिलाओं और वंचितों के सशक्तीकरण की दिशा में एक क्रांतिकारी पहल के रूप में देखा जाना चाहिए। ऐसा लगता है कि संसद से सड़क तक, समाज के अंतिम व्‍यक्ति के हक में जन-चेतना की मशाल जलानेवाले डॉक्‍टर लोहिया सामाजिक विषमताओं और शोषण की राजनीति को चुनौती देने के लिए ही संभवत: पैदा हुए थे। ….. डॉ. लोहिया ऐसी भाषा का प्रयोग करते थे जो अशिक्षित व्‍यक्ति भी समझ सके। इसी उद्देश्‍य को व्‍यक्‍त करने के लिए वे साधारण आदमी की जबान में कहते थे।

राजापूत, निर्धन संतान

सबकी शिक्षा एक समान।

उनकी और भी ऐसी अनेक बातें लोगों की जबान पर चढ़ जाया करती थीं। उदाहरण के लिए ग़रीब किसानों के हक में भूमि सुधार की बात उन्‍होंने इन शब्‍दों में कही –

जो ज़मीन को जोते, बोये

वही ज़मीन का मालिक होवे।

जिसे अर्थशास्‍त्री अँग्रेज़ी में Rent seeking activities कहते हैं उसे समाप्‍त करने की बात निहायत  ही सरल और धारदार भाषा में डॉक्‍टर लोहिया इस प्रकार कहते हैं :

              लूटने वाला जाएगा,

              कमाने वाला खाएगा,

              नया ज़माना आएगा।

डॉ. लोहिया के निरंतर विवरण भरे जीवन, सब कुछ त्‍यागने के साहस और खरी-खरी बात को सीधे-सीधे कहने के उनके स्‍वभाव को देखते हुए उन्‍हें भारतीय राजनीति का कबीर कहा जा सकता है।

(जारी)

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