क्या सोच रहे हैं उत्तर प्रदेश के मतदाता

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— डॉ सुनीलम की चुनावी डायरी —

पिछले दिनों मेरा उत्तर प्रदेश के पाँच जिलों- मुजफ्फरनगर, सीतापुर लखनऊ, गाजीपुर और बनारस जाना हुआ। गाजीपुर बॉर्डर (उत्तर प्रदेश–दिल्ली की सीमा, जहाँ राकेश टिकैत के नेतृत्व में धरना जारी है) तो आता जाता ही रहा हूँ। यात्रा के दौरान उत्तर प्रदेश के चुनाव को लेकर तमाम लोगों से बातचीत हुई। बातचीत से लगता है कि योगी सरकार के खिलाफ उत्तर प्रदेश में माहौल बनता जा रहा है। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की यात्राओं ने हलचल पैदा की है। लखीमपुर खीरी की घटना की प्रतिक्रिया गाँव-गाँव में दिखलाई पड़ रही है।

बातचीत से यह समझ में आया कि केवल जातिगत समीकरण से इस बार चुनाव जीता या हारा नहीं जाएगा।

किसानों के बीच लखीमपुर खीरी की घटना, गन्ने की बकाया राशि और धान का रेट न मिलने, बढ़ती बेरोजगारी और महँगाई आगामी चुनावों में बड़े मुद्दे बनकर उभरेंगे।

परंतु दूसरी ओर मोदी-योगी सरकार की आवास योजना का लाभ जिन्हें मिला है उनसे जरूर भाजपा वोट की उम्मीद कर सकती है। 1 और 2 रुपये किलो अनाज का लाभ भी सभी गरीब परिवारों को पूरा नहीं मिला है।

किसानों को गत तीन वर्षों में अठारह हजार रुपये की किसान सम्मान निधि मिलनी थी वह नहीं मिली है, न ही उज्ज्वला योजना में मिले मुफ्त गैस सिलेंडरों को भरवाने की स्थिति में लाभार्थी हैं।

पूरे उत्तर प्रदेश में आम मतदाता समाजवादी पार्टी को मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर देखते, जानते और मानते हैं। सभी का यह कहना है कि यदि कोई एक पार्टी भाजपा को हरा सकती है तो वह समाजवादी पार्टी है, लेकिन प्रियंका गांधी की सक्रियता का असर भी सभी जगह दिखलाई पड़ता है। कांग्रेस की 7 घोषणाओं ने भी प्रभाव बढ़ाया है।

परंतु यह भी सभी मानते हैं कि कांग्रेस किसी भी स्तर पर  भाजपा को जमीनी टक्कर देने की स्थिति में नहीं है। उसके पास न तो कार्यकर्ता हैं और न ही जातीय आधार।

बनारस प्रवास के दौरान बार-बार लोगों ने मुझे प्रियंका गांधी की प्रभावशाली रैली के बारे में बताया। तब मैंने तमाम जानकारों से पूछा कि यह संख्या कैसे जुटी? क्या यह स्वतःस्फूर्त थी या लायी गयी थी। पहले तो सभी कहते रहे कि यह उत्तरप्रदेश में योगी सरकार के खिलाफ लोगों के आक्रोश के चलते आयी थी। जब मैंने फिर से  कुरेदा कि क्या वास्तव में लोग स्वतःस्फूर्त रूप से आए थे यानी अपने संसाधन खर्च करके? तब मालूम हुआ कि कई महीनों  से प्रियंका की यात्रा की तैयारी के लिए कांग्रेस की टीमें काम कर रही थीं तथा करोड़ों रुपये खर्च कर संसाधन उपलब्ध कर भीड़ जुटायी गयी। इसके बावजूद विश्लेषणकर्ता यह बता रहे थे कि पहली बार ऐसी स्थिति बनी है कि कांग्रेस भीड़ जुटा पा रही है अर्थात अब कांग्रेसियों की बस में बैठने को लोग तैयार हो रहे हैं।

मैंने जब यह जानना चाहा कि अखिलेश यादव यदि बनारस में सभा करते है तो कितने लोग आएंगे? सभी एक स्वर में मानते हैं कि समाजवादी पार्टी का मजबूत संगठन गांव गांव में है तथा प्रियंका की रैली की तुलना में सपा कभी भी बड़ी भीड़ जुटाने की क्षमता रखती है। 25 अक्टूबर को प्रधानमंत्री बनारस जा रहे हैं, उसके लिए गांव गांव से सरकारी मशीनरी और पार्टीतंत्र के बूते भीड़ जुटाने की तैयारी जोर-शोर से चल रही है। लेकिन मैंने जिस तरह से 50 हजार किसानों की स्वतःस्फूर्त संख्या सीतापुर में किसान पंचायत में देखी, वैसी पार्टियों में नहीं जुटती है। पार्टियों द्वारा जुटायी जाती है।

संयुक्त किसान मोर्चा के 332 दिन से चल रहे किसान आंदोलन का प्रभाव भी चुनाव में जरूर पड़ेगा। सभी मानते हैं कि किसानों के साथ ज्यादती हो रही है तथा किसानों की समस्याओं को अविलंब हल करने की जरूरत है। किसानों को लेकर पार्टियाँ क्या चुनावी वायदे करती हैं इसका भी चुनाव नतीजों पर असर पड़ेगा। कांग्रेस मध्यप्रदेश चुनाव कर्जा-माफी के मुद्दे पर और छत्तीसगढ़ चुनाव 2500 रुपये प्रति क्विंटल धान खरीदी के मुद्दे पर जीत चुकी है।

सपा किसानों को लेकर क्या चुनावी वायदे करती है, इसका चुनाव नतीजों पर सीधा असर पड़ना तय है। यदि वह संयुक्त किसान  मोर्चा के सभी मुद्दों को अपने घोषणापत्र में जगह देती है तो योगी सरकार को जाने से कोई नहीं रोक सकेगा।

फ़िलहाल उत्तरप्रदेश में डर का माहौल है हालांकि ऐसा डर  मुजफ्फरनगर और सीतापुर की किसान महापंचायतों में तो नहीं नज़र आया परन्तु बनारस में भय का वातावरण स्पष्ट दिखलाई दिया। अभी से तमाम गांव स्तर के नेताओं के घर के बाहर पुलिस तैनात कर दी गयी है। यानी गुजरात की तरह उत्तरप्रदेश में भी विपक्ष के नेताओं की नजरबन्दी का मॉडल पुख्ता तरीके से बनारस में भी लागू किया जा रहा है।

लोकनीति सत्याग्रह किसान जनजागरण पदयात्रा के साथ मैं तीन दिन रहा। जिस रास्ते से यात्रा गुजर रही थी, आसपास से गुजर रहे या रास्ते में खड़े लोग किसानों  के मुद्दों को  सही बता रहे थे लेकिन भयभीत होने के कारण खुलकर सामने आने और बोलने को तैयार नहीं थे। इससे यह भी पता चला कि विपक्ष को योगी सरकार का भय खत्म करने के लिए काफी मशक्कत करनी होगी।

मैंने यह भी जानने की कोशिश की कि जिस तरह जिला पंचायत के चुनाव में योगी सरकार ने सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग कर, पैसे और गुंडई से जिला पंचायतों और ब्लॉकों में अध्यक्ष का चुनाव कब्जा लिया उसी तरह क्या विधानसभा का चुनाव योगी सरकार नहीं कब्जा लेगी? सभी का जवाब लगभग एक ही जैसा सुनने को मिला कि पंचायत चुनाव में तो ऐसा होता ही है। सत्तारूढ़ दल यही करता है परन्तु चुनाव की घोषणा होने के बाद स्थिति बदल जाएगी। कैसे बदल जाएगी? यह पूछने पर सभी एक ही जवाब देते हैं कि अभी योगी का विरोध करनेवाले किसी भी व्यक्ति को ठोक दिये जाने का डर है लेकिन चुनाव नजदीक आने पर यह संभव नहीं होगा।

अखबारों को देखकर मुझे यह स्पष्ट समझ में आ रहा है कि गोदी मीडिया सुनियोजित तौर पर प्रियंका गांधी को विकल्प के तौर पर पेश कर रहा है ताकि कांग्रेस को यह गलतफहमी हो जाए कि वह अकेले सभी सीटें लड़ सकती है। कांग्रेस नेताओं के बयानों से पता चलता है कि कांग्रेस यह गलतफहमी पालने भी लगी है कि वह यूपी और बिहार में अकेले चुनाव लड़कर विकल्प देने की स्थिति में होगी।

जबकि यह सर्वविदित तथ्य है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल ही मुख्य विपक्षी दल हैं। यदि बिहार में कांग्रेस पार्टी ने राजद से जरूरत से ज्यादा सीटें लेकर नहीं हारी होती तो आज बिहार में राजद की सरकार होती, नीतीश और भाजपा की नहीं।

मुझे लगता है कि चुनाव आते-आते यूपी में भी बंगाल के चुनाव की तरह पक्ष-विपक्ष के बीच मतदाताओं में ध्रुवीकरण हो जाएगा। योगी सरकार के खिलाफ वोट देनेवाले समाजवादी पार्टी के साथ खड़े होंगे। मेरे  इस आकलन से, जिन जिलों में मैं गया वहाँ के बुद्धिजीवी और राजनीतिक विश्लेषक व कार्यकर्ता सहमत दिखाई दिये। फिलहाल तो सब कयास ही लगा सकते हैं।मतदाता चमत्कार करता रहा है, इस बार भी कर सकता है।

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