— डॉ सुनीलम —
यूं तो भारत में किसान आंदोलन का इतिहास आजादी के आंदोलन के साथ जुड़ा हुआ है। आजादी के बाद भी किसान आंदोलन चलते ही रहे हैं लेकिन 26 नवंबर 2020 से शुरू होकर 26 अक्टूबर 2021 को 11 माह पूरा करनेवाले संयुक्त किसान मोर्चा के वर्तमान आंदोलन ने देश में ही नहीं दुनिया में एक नया इतिहास रचा है। इसे दुनिया का सबसे लंबा और सबसे बड़ा आंदोलन माना जा रहा है ।
आंदोलन की शुरुआत
दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन की शुरुआत 26 नवंबर 2020 को हुई थी, जब देशभर से और मुख्यतः पंजाब से किसान सरकार के तमाम अवरोधों के बावजूद दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचे थे, जहां उन्हें पुलिस द्वारा रोक दिया गया था। तब से आज तक सर्दी, गर्मी, बरसात, सभी मौसमों की मुश्किलों का सामना करते हुए साढ़े छह सौ किसानों की शहादत के बाद भी शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन जारी है।
अनौपचारिक तौर पर वर्तमान किसान आंदोलन की शुरुआत मंदसौर गोली चालन के एक माह बाद 6 जुलाई 2017 को अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के ढाई सौ किसान संगठनों द्वारा पुलिस गोली चालन में शहीद छह किसानों को श्रद्धांजलि देकर हुई थी। श्रद्धांजलि के कार्यक्रम के दौरान सैकड़ों किसानों को गिरफ्तार किया गया था। रिहाई के बाद देश भर में ‘किसान मुक्ति यात्रा’ निकाली गयी थी। समन्वय समिति ने देश भर में 500 मुक्ति सम्मेलन किये थे। दो बार लाखों किसानों के दिल्ली में प्रदर्शन हुए थे।
समन्वय समिति के गठन के बाद चलाये जा रहे आंदोलन का मुख्य लक्ष्य देश के सभी किसानों की कर्जा मुक्ति और लाभकारी मूल्य की गारंटी के लिए संसद से कानून पारित कराना था परंतु सरकार ने किसानों की मांगों के अनुसार कानून बनाने की बजाय तीन ऐसे अध्यादेश किसानों पर थोप दिये जिन्हें कभी किसानों ने मांगे ही नहीं थे। तीनों अध्यादेशों को, कोरोना काल का लाभ उठाते हुए, संसद में अलोकतांत्रिक तरीके से पास कराकर किसानों पर थोप दिया गया। अध्यादेश लाने तथा कानून बना दिये जाने के बाद से आंदोलन लगातार जारी है।
कोरोना काल में 2020 में प्रदर्शन को अधिक प्रभावशाली और व्यापक बनाने के लिए अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने संयुक्त किसान मोर्चा का गठन किया था।
सरकार से बातचीत
केंद्र सरकार ने संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े 40 किसान संगठनों से 11 दौर की बातचीत की। इसमें पंजाब की 32 जत्थेबंदियों को शामिल किया गया। जानबूझ कर ऐआईकेएससीसी के वर्किंग ग्रुप को दरकिनार कर दिया गया।
बातचीत के दौरान केंद्र सरकार ने तीनों कानूनों में 15 कमियों को स्वीकार किया तथा बिजली बिल वापस लेने, पराली जलाने से जुड़े कानून में किसानों की सजा का प्रावधान खत्म करने, किसानों को अदालत जाने का अधिकार देने आदि मुद्दों पर कानून में तब्दीली करने का प्रस्ताव रखा लेकिन सरकार ने कोई अधिसूचना जारी नहीं की। सरकार कानून निरस्त नहीं करने पर अड़ी रही।
किसानों का मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा
सर्वोच्च न्यायालय में तीनों कृषि कानूनों की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गयी लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तीनों कृषि कानूनों की संवैधानिक वैधता को लेकर 11 महीनों में आज तक सुनवाई नहीं की गयी है। इस बीच सरकार के इशारों पर कुछ याचिकाकर्ता सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे और उन्होंने धरना देनेवाले किसानों को सीएए -एनआरसी के आंदोलनकारियों की तरह हटाने की गुहार लगायी लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करने से यह कह कर इनकार कर दिया कि शांतिपूर्ण विरोध करना नागरिकों का संवैधानिक अधिकार है।
सर्वोच्च न्यायालय ने किसानों के मुद्दे को लेकर 4 सदस्यीय समिति बना दी, जिसके सदस्य सरकार की नीतियों के समर्थक थे। इस कारण संयुक्त किसान मोर्चा ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनायी गयी समिति को मान्यता देने तथा उससे बातचीत करने से इनकार कर दिया। फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय में लखीमपुर खीरी के नरसंहार के बाद चार याचिकाएं सुनवाई के लिए लंबित हैं। किसानों को सर्वोच्च न्यायालय से शिकायत है कि वह ना तो 3 कानूनों की संवैधानिकता को लेकर सुनवाई कर रहा है और ना ही लखीमपुर खीरी की घटना की जांच अपनी निगरानी में कराने तथा लखीमपुर खीरी हत्याकांड के जिम्मेदार गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा को मंत्रिमंडल से हटाने और गिरफ्तार करने के लिए निर्देशित कर रहा है।
किसानों की संसद
संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा पिछले संसद सत्र के दौरान रोज, दिल्ली पुलिस की अनुमति लेकर, 200 किसान प्रतिनिधियों के साथ किसान संसद का आयोजन जंतर मंतर पर किया गया। सभी कानूनों को लेकर किसानों ने विस्तृत चर्चा की तथा तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने, बिजली बिल वापस लेने तथा सभी कृषि उत्पादों की एमएसपी पर खरीद की कानूनी गारंटी आदि मुद्दों को लेकर किसान संसद में प्रस्ताव पारित किये गये। लगभग सभी राज्यों के किसान संगठनों के प्रतिनिधियों ने किसान संसद में भाग लिया। संपूर्ण विपक्ष ने आकर किसान संसद की कार्यवाही को सुना, देखा और संसद सत्र के दौरान किसान विरोधी कानूनों को रद्द करने की मांग को लगभग रोज संसद में उठाने का सामूहिक प्रयास किया।
सरकारी हिंसा और साजिशें
संयुक्त किसान मोर्चा ने जिस दिन दिल्ली में 26- 27 नवंबर को दो दिवसीय प्रदर्शन की घोषणा की थी, उसी दिन से केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों की मदद से किसानों को दिल्ली जाने से रोकने का असफल प्रयास शुरू कर दिया था। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर और उनके पुलिस अधिकारियों ने ऐलान कर दिया कि वे पंजाब के किसानों को दिल्ली नहीं जाने देंगे। रास्ते पर गड्ढे खुदवाये गये, कंटीले तार और बैरिकेड्स लगाकर किसानों को दिल्ली जाने से रोकने का असफल प्रयास किया गया। किसानों के दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचने पर उन्हें खालिस्तानी एजेंट बताया गया, विदेशी पैसे से आंदोलन चलाने, पृथकतावादियों से समर्थन लेने तथा विपक्ष के इशारे पर काम करने के आरोप लगाये गये।
किसानों ने जब 26 जनवरी को दिल्ली में ट्रैक्टर परेड करने का ऐलान किया तब आंदोलन को बदनाम करने के लिए गृह मंत्रालय द्वारा साजिश रची गयी। दिल्ली पुलिस और संयुक्त किसान मोर्चा के बीच तयशुदा रूट से अलग रूट पर कुछ लोगों को साजिशपूर्ण तरीके से लाल किला और आईटीओ की ओर ले जाया गया लेकिन संयुक्त किसान मोर्चा ने उन सभी घटनाओं से खुद को अलग कर लिया। सरकार की साजिश नाकाम हुई उसके बाद किसान आंदोलन को उकसाने के लिए भाजपा के बड़े नेताओं द्वारा तमाम बयान दिये गये। खुद केंद्रीय गृह राज्यमंत्री के उकसाने वाले बयान के चलते लखीमपुर खीरी में उनके लड़के आशीष मिश्रा के द्वारा अपनी गाड़ी से चार किसानों को कुचल दिया गया।
हरियाणा में 13 बार पुलिस ने विरोध प्रदर्शनों के दौरान किसानों पर हमला किया। पिछले 11 महीनों में केवल हरियाणा में 50 हजार से अधिक किसानों पर फर्जी मुकदमे दर्ज किये गये। एसडीएम से किसानों का सिर फुड़वाया गया लेकिन किसानों ने अहिंसात्मक तरीके से आज भी आंदोलन जारी रखा है।
आंदोलन का राष्ट्रव्यापी स्वरूप
केंद्र सरकार बराबर यह प्रचारित करती रही है कि यह आंदोलन केवल पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का आंदोलन है, लेकिन तथ्य यह है कि अध्यादेश आने के बाद से अब तक संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा जिन भी कार्यक्रमों की घोषणा की गयी है उनका देश के लाखों गांवों और सैकड़ों शहरों में पालन हुआ है। देश के अधिकतर जिलों में दसियों बार किसानों द्वारा पहले अध्यादेश फिर 3 किसान विरोधी कानून बनाने पर प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और कृषिमंत्री के पुतले जलाये जा चुके हैं तथा कम से कम 10 बार राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के नाम ज्ञापन सौंपे जा चुके हैं।
श्रमिक संगठनों का समर्थन
संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में चल रहे किसान आंदोलन को देश के 10 केंद्रीय श्रमिक संगठनों का समर्थन प्राप्त है। लगभग सभी कार्यक्रमों का श्रमिक संगठन समर्थन करते रहे हैं। वहीं श्रम कानूनों को रद्द कर चार लेबर कोड थोपने तथा निजीकरण के खिलाफ श्रमिक संगठनों द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन का संयुक्त किसान मोर्चा समर्थन कर रहा है। अब तक आंदोलन के दौरान तीन बार भारत बंद किया जा चुका है तथा रास्ता रोको और रेल रोको आंदोलन भी किए गए हैं। किसान आंदोलन के 11 महीने पूरे होने पर 26 अक्टूबर को पूरे देश भर में धरना प्रदर्शन किए गये।
किसान आंदोलन का राजनीतिक असर
संयुक्त किसान मोर्चा पर पहले दिन से सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से आरोप लगाया जा रहा है कि यह विपक्ष द्वारा प्रायोजित आंदोलन है लेकिन संयुक्त किसान मोर्चा की राजनीतिक लाइन एकदम स्पष्ट है। संयुक्त किसान मोर्चा के कार्यक्रमों में राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के साथ मंच साझा करने पर रोक लगायी गयी है, परंतु यह भी स्पष्ट है कि किसान आंदोलन भाजपा और एनडीए की केंद्र सरकार के खिलाफ है क्योंकि उसने 3 किसान विरोधी कानून थोपकर किसानों की मंडियां और जमीन अडानी व अंबानी को सौंपने का निर्णय किया है। इसीलिए भाजपा की मुखालफत की नीति पर चलकर संयुक्त किसान मोर्चा ने प.बंगाल में ‘नो वोट टु बीजेपी’ अभियान चलाया तथा भाजपा को सत्ता हासिल करने से रोक दिया। अब संयुक्त किसान मोर्चा ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड मिशन की घोषणा की है। मिशन उत्तर प्रदेश का उद्देश्य योगी सरकार को सत्ता से हटाना है ताकि मोदी सरकार पर किसान विरोधी कानून निरस्त करने का दबाव डाला जा सके।
आंदोलन की खूबसूरती और ताकत
संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन की ताकत 550 किसान संगठनों के किसान कार्यकर्ता हैं जिन्होंने यह ऐलान कर रखा है कि जब तक कानून निरस्त नहीं होंगे, तब तक घर वापसी नहीं होगी। आंदोलन संबंधी फैसले, विचार विमर्श की लंबी प्रक्रिया के बाद किये जाते हैं। पंजाब की 32 जत्थेबंदियां किसी भी मुद्दे पर पहले चर्चा करती हैं। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के वर्किंग ग्रुप के सदस्य भी अपने स्तर पर चर्चा करते हैं तथा निर्णय संयुक्त किसान मोर्चा की खुली बैठक में लिया जाता है। जिसे सभी संगठनों द्वारा स्वीकार किया जाता है।
संयुक्त किसान मोर्चा का आंदोलन किसानों द्वारा अपने गांव से नियमित तौर पर लाये गये संसाधनों से चल रहा है। सिंघु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर, गाजीपुर बॉर्डर, शाहजहांपुर और पलवल बॉर्डर पर जो पक्के मोर्चे लगे हैं वहां जाकर देखा जा सकता है कि वहां धरना दे रहे किसान नेताओं ने या तो अपने गांव का टेंट लगा रखा है या अपने संगठन का।पंजाब और हरियाणा के हर गांव से कितने अंतराल के बाद कितने किसान आएंगे और कितना रसद-पानी आएगा, सभी इंतजाम सुनियोजित तौर पर किया जा रहा है।
किसानों के 11 महीनों से चल रहे सतत और सशक्त आंदोलन में सबसे अहम भूमिका लंगर सेवा देनेवाले सिखों की रही है। उन्होंने जबरदस्त सेवा भाव के साथ आंदोलनकारियों के निशुल्क भोजन इत्यादि की व्यवस्था की है। सभी बॉर्डरों पर पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के तमाम गुरुद्वारे लंगर सेवा किसानों को लगातार उपलब्ध करा रहे हैं।
वर्तमान किसान आंदोलन की खूबसूरती यह है कि इस आंदोलन में 550 किसान संगठनों के शामिल होने के बावजूद जबरदस्त समन्वय और एकजुटता के साथ वैचारिक स्पष्टता है। संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े सभी संगठन अहिंसात्मक आंदोलन के लिए प्रतिबद्ध हैं। हालांकि मोर्चों पर गांधीजी की तस्वीरें दिखाई नहीं पड़तीं लेकिन गांधीजी के जीवनकाल में चले आजादी के आंदोलन के बाद, गांधीजी के विचारों पर चलनेवाला यह सबसे बड़ा आंदोलन है। यह दिलचस्प है कि बॉर्डरों पर भगतसिंह और बाबासाहेब की सबसे ज्यादा तस्वीरें दिखलाई पड़ती हैं। यही वैचारिक समन्वय इस आंदोलन को विशिष्टता प्रदान करता है ।
विगत 11 महीनों में संयुक्त किसान मोर्चा के जो कार्यक्रम देशभर में आयोजित किये गये उनमें समाज के सभी तबकों को जोड़ा गया। बॉर्डरों पर सभी त्योहार मनाये जाते हैं, सभी महापुरुषों और स्वतंत्रता आंदोलन के नायक नायिकाओं के जन्मदिन और निर्वाण दिवस मनाये जाते हैं। महिलाओं, युवाओं, आदिवासियों, पिछड़े वर्गों आदि सभी वर्गों से जुड़े कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। यह सामाजिक समग्रता और समरसता, आंदोलन की शान है।
इस आंदोलन ने कितनी बड़ी ताकत खड़ी कर ली है इसका पता इस बात से चलता है कि पंजाब में 500 स्थानों पर पक्के मोर्चे दिल्ली वाला आंदोलन शुरू होने के तीन महीने पहले से चल रहे हैं। जिसके तहत अम्बानी के पेट्रोल पम्पों, अडानी के सेलों और मॉल्स पर धरने दिये जा रहे हैं। किसी भी आंदोलन की इतनी ताकत नहीं देखी गयी जिसने सरकार और विपक्ष, सभी दलों को आंदोलन का समर्थन करने के लिए प्रेरित किया हो, जो कि पंजाब में देखा जा सकता है।
इस आंदोलन ने संख्या और विभिन्न जातियों और विभिन्न धर्मों के किसानों को जोड़कर महापंचायतों के माध्यम से देशभर में अपनी ताकत दिखाई है। इसका लोहा पूरा देश मान रहा है।
यह जानना भी जरूरी है कि शहीद किसानों की स्मृति में किसानों ने मिट्टी सत्याग्रह यात्रा के बाद दिल्ली के सभी मोर्चों पर शहीद स्तम्भ का निर्माण किया है। लखीमपुर खीरी हत्याकांड के बाद शहीद किसानों की अस्थि कलश यात्राएं निकाली हैं।
इस बीच केंद्र सरकार आंदोलनकारियों को थकाने और उपेक्षा से समझौता कराने की रणनीति पर काम कर रही है लेकिन आंदोलन के आधार का विस्तार होता जा रहा है। जनमत भी दिनोदिन आंदोलन की मांगों के पक्ष में होता जा रहा है। हालांकि गोदी मीडिया ने आंदोलन को बदनाम करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी है। फिर भी आंदोलन सोशल मीडिया के माध्यम से अपना संदेश गांव गांव पहुंचाने में कामयाब हो रहा है।
अंत में जीत तो सत्य की ही होनी है जिसके लिए किसान 11 महीनों से सत्याग्रह कर रहे हैं।