— भोला प्रसाद सिंह —
आठवें-नौवें दशक में कलकत्ता के हिंदी बुद्धिजीवियों में डॉ. रमेश चंद्र सिंह की पहचान राजनीति और साहित्य के गहन अध्येता और प्रखर आलोचक के रूप में बन चुकी थी। कलकत्ता के 8, इंडियन मिरर स्ट्रीट से प्रकाशित पत्रिका ‘चौरंगी वार्ता’ का संपादन उन्होंने 1971 से 1975 तक किया। फिर आपातकाल की घोषणा- इस स्थिति में सत्ता के प्रचंड विरोधी जेपी आंदोलन के प्रबल समर्थन में निकलनेवाली चौरंगी वार्ता को बंद होना ही था। 1972-73 से मैं इंडियन स्ट्रीट जाने लगा था लेकिन रमेश जी से बात-चीत नहीं हो पाती थी। वे ‘वार्ता’ के कार्य में व्यस्त रहा करते थे लेकिन उस दफ्तर में आते-जाते अशोक जी सेकसरिया, दादा दिनेश दासगुप्त आदि से अच्छा-खासा परिचय हो गया।
रमेश जी से पहली बातचीत का अवसर 1975 में मिला। कलकत्ता से करीब चालीस किलोमीटर दूर नैहाटी के गौरीपुर में हम कई साथियों ने मिलकर प्रेमचंद जयंती का आयोजन किया था। उस आयोजन में रमेश चंद्र जी मुख्य वक्ता थे। रमेश जी के साथ कलकत्ता से अशोक सेकसरिया और डॉ. शम्भुनाथ भी आए थे। सभा की अध्यक्षता भाषाविद् डॉ. सूर्यदेव शास्त्री ने की थी। सभा में श्रोताओं की उल्लेखनीय उपस्थिति थी। पहली बार हमें रमेश जी को सुनने को मिला, प्रेमचंद पर उन्होंने लीक से हटकर अपना वक्तव्य रखा, पारदर्शी और प्रांजल भाषा में। चौरंगी वार्ता में उनके विचार पढ़ा करता था लेकिन उन्हें सुनने का यह पहला मौका था। गौरीपुर में रमेश जी दूसरी बार कबीर पर केंद्रित गोष्ठी में आए थे। इस गोष्ठी के आयोजन में गंगा प्रसाद जी सर्वाधिक सक्रिय थे। गोष्ठी छोटी थी लेकिन रमेश जी की उपस्थिति के कारण वह खास बन गयी।
जिस किसी विषय पर रमेश जी को लिखना या बोलना होता उसकी पृष्ठभूमि तथा उस विषय के विभिन्न पक्षों का अध्ययन करना उनके स्वभाव में रच-बस गया था। ‘आधुनिकता, आधुनिकतावाद और जनवाद’ पर लिखी उनकी आलोचना इसका ज्वलन्त उदाहरण है। जिसकी विस्तृत चर्चा परवर्ती पंक्तियों की की जाएगी। गहन अध्ययनशीलता और घनघोर बहस उनके व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य था। लेकिन लंबी बहस के दौरान उनकी कोशिश रहती थी कि कटुता या वैमनस्य न आ पाये। यह तो जगजाहिर था कि रमेश जी लोहिया के राजनीतिक दर्शन में गहरी आस्था रखते थे और जब लोहिया की राजनीतिक सीमाओं को बहस का केन्द्र बनाया जाता था तो रमेश चंद्र जी मार्क्स और मार्क्सवादी राजनीति की सीमाओं का तर्कपूर्ण विमर्श प्रस्तुत करते थे। बहस के दौरान भी और लेखन के क्रम में भी। रमेश जी के कई लेख इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं- ‘मार्क्स, लोहिया और एशिया’, ‘मार्क्सोत्तर अर्थशास्त्र और लोहिया’, ‘मार्क्स और गांधी का संवाद’, ‘भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद’ आदि।
रमेश जी आजीवन खुद को विद्यार्थी समझते रहे और हर दिन वो किसी न किसी परीक्षा की तैयारी में लगे रहते थे, तभी तो वे सप्ताह में चार दिन नेशनल लाइब्रेरी जाया करते थे, कई घण्टे वहाँ अध्ययन करने के बाद दो-चार किताबें घर पर पढ़ने के लिए लाइब्रेरी से लेते भी आते थे। आज सोचने पर लगता है कि किताबों में उनकी जीवन-रेखा रहती थी। उनकी स्मृति में जनसत्ता में छपे लेख की एक बात विशिष्ट रूप से याद आती है- “मृत्यु के बाद रमेश जी के एकाउंट में केवल पांच हजार रुपये थे जबकि घर की लाइब्रेरी में पचास हजार की किताबें थीं।” मेरे अपने बुक शेल्फ में भी उनकी कई किताबें हैं।
रमेश जी के घर पर मेरे आने-जाने का सिलसिला 1984 के बाद ही शुरू हुआ। लेकिन यह आवाजाही बहुत अल्पकालीन थी। 1986 में उनकी मृत्यु प्रोस्टेट ग्लैंड के ऑपरेशन के बाद हो गयी। कितना विचित्र संयोग है कि उनके राजनीतिक पथ-प्रदर्शक डॉ. लोहिया की मृत्यु भी प्रोस्टेट ग्लैंड (पौरुष ग्रंथि) की तकलीफों के कारण 57 वर्ष की आयु में हुई और रमेश जी का देहांत भी 57 वर्ष में।
डॉ. रमेश चंद्र सिंह जी का कर्मक्षेत्र कलकत्ता था और जन्म उत्तर प्रदेश के कर्ण छपरा, बलिया में हुआ था। लोहिया जी का जन्म भी उत्तर प्रदेश के अकबरपुर में और महाविद्यालीय शिक्षा और राजनीतिक सक्रियता भी लंबे समय तक कलकत्ता में बनी रही। ये तथ्य संयोग से कुछ ज्यादा लगते हैं। रमेश जी तर्क-वितर्क में कभी उम्र के अंतराल का एहसास होने नहीं देते थे। एक बार मैंने उनसे यूँ ही पूछ लिया कि गोखले कॉलेज के प्रातःकालीन विभाग में आप क्यों पढ़ाते हैं, वहाँ तो हिंदी का पास कोर्स ही पढ़ाया जाता है। ऑनर्स की पढ़ाई तो दिन में होती है, आपकी आवश्यकता तो ज्यादा दिवस वाली में है। उन्होंने छोटा सा सादगीपूर्ण जवाब दिया कि तब नेशनल लाइब्रेरी नहीं जा पाऊँगा।
लाइब्रेरी से निकलकर परिचित दोस्तों में साहित्य, राजनीति आदि पर खूब बहस होती थीं। प्रो.शम्भुनाथ जी भी उस टी-स्टाली बहस में शामिल हुआ करते थे। मुझे लगता है कि लैंसडॉउन मार्केट के पास किराये का मकान उन्होंने इसलिए ले रखा था कि वहाँ से नेशनल लाइब्रेरी नजदीक है। नेशनल लाइब्रेरी के अलावा कॉफी हाउस उनकी पसंद की जगह हुआ करती थी क्योंकि वहाँ बुद्धिजीवियों के कुछ खास कॉर्नर हुआ करते थे और अपनी विविधताओं के साथ बहसों का सिलसिला चलता रहता था।
वर्ष 1985 में जेएनयू दिल्ली में एमफिल में दाखिला पाने के लिए इंटरव्यू में मुझे शामिल होना था। मैंने तो एमए प्राइवेट से किया था। मार्गदर्शन के लिए कहाँ जाता, फिर हिचकिचाते हुए रमेश जी के घर पहुँचा, उन्हें अपना उद्देश्य बताया, थोड़ी देर में सारी हिचकिचाहट दूर हो गयी। उन्होंने पूछा- आपका टॉपिक क्या है? मैंने कहा, ‘नयी समीक्षा’ सोच रहा हूँ?’ ‘इसपर कोई पुस्तक आपने पढ़ी है?’ मैंने थोड़ा सकुचाते हुए डॉ. निर्मला जैन की पुस्तक ‘नयी समीक्षा’ का नाम लिया। रमेश जी ने कहा कि ‘नयी समीक्षा’ पर हिंदी में किताबें नहीं के बराबर हैं। सारी किताबें अंग्रेजी में हैं। इसके बाद उन्होंने एक-डेढ़ घण्टे तक ‘नयी समीक्षा’ की दिशाओं को समझाया। वे चाहते तो दूसरे या तीसरे टॉपिक की ओर संकेत कर सकते थे लेकिन वे विद्यार्थियों को आत्मनिर्भर होकर काम करने के लिए हमेशा प्रेरित करते थे। यहाँ भी वे सिद्धांतों से बँधे हुए थे। उन्होंने यह भी बताया कि जेएनयू में ‘नयी समीक्षा’ तो नामवर सिंह पढाते हैं, सम्भवतः इंटरव्यू में भी वे होंगे ही। बातें सब सही साबित हुईं। जेएनयू में मुझे दाखिला तो नहीं मिला लेकिन रमेश जी की छाया मिलती रही। जो नयी शुरुआत मेरे जीवन में हुई थी उनकी असामयिक मृत्यु के कारण वह जल्द ही खत्म हो गयी।
रमेश जी के जीवन-काल में उनकी कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हो पायी। वे सम्पादकों के आग्रह पर ‘साहित्य और राजनीति’ केंद्रित छोटी-बड़ी रचनाएँ लिखते रहे। दरसल एक स्थापित लेखक बनने की कोई स्पृहा उनके मन में थी ही नहीं। उनकी अधिकांश रचनाएँ दिनमान, रविवार, परिवर्तन, में छपी हैं और विभिन्न लघु पत्रिकाओं में भी उन्होंने लिखा है। कलकत्ता से प्रकाशित लघु पत्रिका ‘नया सन्दर्भ’ में इन्होंने ‘आधुनिकता, आधुनिकतावाद और जनवाद’ पर तैंतीस पृष्ठों की एक आलोचना लिखी। इस आलोचनात्मक लेख से गुजरने का अर्थ है विचारों की गुरिल्ला लड़ाई से गुजरना। जनवादी लेखक संघ के वरिष्ठ सदस्य शिवकुमार मिश्र ने आधुनिकता को गतिशील, यथार्थपरक और जीवन चेतना के रूप में रखा है, जबकि आधुनिकतावाद को यथार्थ-विरोधी दृष्टि के रूप में प्रस्तुत किया है।
आधुनिकता और् आधुनिकतावाद की इस अवधारणा पर घोर आपत्ति जताते हुए रमेश जी ने प्रश्न रखा कि तब तो “नागार्जुन, त्रिलोचन और मुक्तिबोध आधुनिकता के कवि माने जाएं और विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वर, अज्ञेय आधुनिकतावाद के।” इस अवधारणा के प्रति तीव्र प्रतिरोध व्यक्त करते हुए उन्होंने जॉर्ज लुकाच को मंच पर उपस्थित किया, क्योंकि लुकाच ने अपने निबन्ध ‘आधुनिकतावाद की विचारधारा’ में तथा अन्य कृतियों में आधुनिकतावाद के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से विचार से किया है।
लुकाच ने आधुनिकतावादी साहित्य का विलोम यथार्थवादी साहित्य माना है। जनवादी लेखक संघ की आधुनिकतावाद की दृष्टि लुकाच की चर्चित पुस्तक ‘दी मीनिंग ऑफ कंटेम्परेरी रियलिज्म’ के माध्यम से विकसित हुई है। पश्चिम के विभिन्न साहित्य-चिन्तकों की अवधारणा से गुजरते हुए डॉ. रमेश चन्द्र इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं- “विचारणीय प्रश्न लुकाच का वह कला चिंतन है जिसकी बुनियाद पर हिंदी के आधुनिकतावाद का चिन्तन टिका हुआ है।”
जनवादी लेखक संघ की आधुनिकतावाद की बुनियाद जॉर्ज लुकाच के सिद्धांत पर टिकी हुई है, लेकिन आलोच्य लेख में लुकाच की सीमाओं को भी रेखांकित किया गया है। लुकाच के अनुसार यथार्थ के ह्रास का मूल कारण यदि पूँजीवाद की पतनशीलता है तो बीसवीं शताब्दी में भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान और जीव विज्ञान की प्रगति कैसे हुई? आइंस्टाइन की देन क्या मौलिक देन नहीं है?
इस वृहद् लेख को पढ़ते हुए बार-बार एहसास होता है कि रमेश जी यूरोपीय साहित्य और उसकी आलोचना धारा के गहन अध्येता थे। और साथ ही साथ, उनके पास एक सूक्ष्म आलोचकीय दृष्टि भी थी। ‘भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद’ तथा ‘आधुनिकता, आधुनिकतावाद और जनवाद’ जैसे उनके लेखों को आज के प्रचलित शब्दों में कहूँ तो ये मेगा आलोचना हैं, जो अवधारणाओं के मजबूत स्तंभों पर टिकी हैं। नयी कविता के उत्थान काल में विजयदेव नारायण साही की समीक्षा ‘लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ जैसे लम्बे समीक्षात्मक लेख की याद इन आलोचनाओं को पढ़ते हुए आती है।
‘भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद’ तथा ‘आधुनिकता, आधुनिकतावाद और जनवाद’ दो ऐसे लेख हैं जिनके वैचारिक द्वंदों को स्पष्ट करने के लिए एक स्वतंत्र रचना की आवश्यकता होगी। फिर भी इस लेख में रमेश जी की समीक्षात्मक दृष्टि से सम्बद्ध मोटी-मोटी बातों को यहाँ रखा जा रहा है। डॉ. रामविलास शर्मा के विशाल ग्रन्थ ‘भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद’ की समीक्षा तीस पृष्ठों में तथा ‘आधुनिकता, आधुनिकतावाद और जनवाद’ 32 पृष्ठों में है। आजादी के सत्तर-पचहत्तर वर्षों के बाद भी हिन्दुस्तान में यह धारणा बनी हुई है कि अंग्रेजी राज के कारण यहाँ रेलें चलने लगीं, बड़े-बड़े कारखाने बनने लगे, नयी शिक्षा-पद्धति शुरू हुई। भारत के साम्यवादी भी इसी धारणा से बद्ध रहे हैं। इस धारणा को सच्चाई से दूर बताते हुए रमेश जी ने लिखा– “यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दुस्तान के करघों को लंकाशायर की सूती मिलों ने खुली होड़ में पराजित नहीं किया। पराजित वे तभी हुए जब ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के तहत करघा-उद्योगों पर तरह-तरह की पाबंदियाँ लगीं और सुनियोजित तरीके से उन्हें बरबाद किया गया। बरबाद उन्हें इसलिए किया गया कि लंकाशायर की मिलें चल सकें। वे चल नहीं सकती थीं यदि भारत का बाजार उन्हें नहीं मिलता।”
इंग्लैंड के इस्पात उद्योगों के साथ भी यही कहानी जुड़ी हुई है। इस तथ्य को उजागर करने के क्रम में रमेश जी ने लोहिया को उद्धृत किया है। डॉ. लोहिया ने लिखा है– “समस्या यह नहीं है कि रेलमार्गों के निर्माण से भारत कितना उपकृत हुआ है, तथ्य यह है कि अंग्रेजों ने यदि भारतीय रेलमार्गों का निर्माण नहीं किया होता तो उनका अपना रेल उद्योग ही विकास के प्रारंभिक चरणों से आगे नहीं बढ़ पाता। सच यह है कि ब्रिटेन ने भारत को रेलें नहीं दी हैं, भारत ने ब्रिटेन को उसकी रेलें दी हैं और दिया है उसका इंजीनियरिंग उद्योग।” ऐसे कई ऐतिहासिक तथ्यों के बंद दरवाजों को उन्होंने खोलने का प्रयास किया है।
रमेश चंद्र सिंह की पुस्तक ‘राजनीति और साहित्य’ के विभिन्न लेख विचारों के बंद दरवाजों को खोलते हैं और हमें भारत में अंग्रेजी राज से सम्बद्ध तथ्यों पर पुनर्विचार के लिए उकसाते हैं। डॉ.रामविलास शर्मा की पुस्तक का प्रयास है कम्युनिस्ट आन्दोलन से जुड़े मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों और नेताओं की जड़ता को रेखांकित करना।
रमेश जी ने मार्क्सवादी राजनीति की संकीर्णताओं के विश्लेषण के साथ साहित्य के प्रति उनकी संकीर्णताओं को भी उजागर किया है। ‘भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद’ की समीक्षा के क्रम में और भी कई ऐतिहासिक भ्रमों की ओर रमेश जी संकेत करते है। इस क्रम में फ्रांसीसी यात्री बर्नियर की एक टिप्पणी का उल्लेख करते हैं- “ऐसी बात आँखों से ओझल नहीं होनी चाहिए कि सोना-चाँदी दुनिया के सभी हिस्सों से घूम-फिर कर आखिर में हिन्दुस्तान में जमा हो जाता है।”
अंग्रेजी राज के पहले भारत की समृद्धि से सम्बद्ध क्लाइव का यह कथन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 1757 में क्लाइव ने बंगाल की पुरानी राजधानी मुर्शिदाबाद को देखा तो वह हैरत में पड़ गया। उसने लिखा : “यह शहर लंदन के समान धनी है, घनी आबादी वाला है और बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। फर्क यह है कि लंदन की तुलना में यहाँ ऐसे लोग ज्यादा हैं, जिनके पास लंदन से कहीं ज्यादा सम्पति है।” केवल बंगाल का मुर्शिदाबाद ही नहीं भारत के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे व्यापारी थे, जिनके पास अकूत पूँजी थी। सन् 1663 के आसपास सूरत के एक व्यवसायी अब्दुल गफूर के पास लगभग तीस व्यापारिक जहाज थे और पूरी ईस्ट इंडिया कंपनी जितना व्यापार वे अकेले करते थे।
अब्दुल गफूर से भी बड़े सूरत के दूसरे व्यापारी वीर जी बोहरा थे जिनकी पूँजी 80 लाख से भी ज्यादा थी। इनकी तरह के और व्यापारी सूरत में ही मौजूद थे। इस सन्दर्भ में डॉ. रामविलास शर्मा ने एक प्रश्न रखा है, इंगलैंड में जहां व्यापारिक पूँजीवाद भारत से कम विकसित अवस्था में था, वहाँ औद्योगिक क्रांति हुई लेकिन भारत में नहीं। ऐसा क्यों? इसके साथ यह तथ्य भी जुड़ा हुआ है कि जिस विश्व-बाजार को हिन्दुस्तान ने बिना किसी लूट-पाट और जनसंहार के, अपने उन्नत कौशल के बल पर पाया था, उसे पाने के लिए गोरों ने कौन सा अपराध दुनिया में नहीं किया?
राजनीतिक विषयों के साथ-साथ डॉ. रमेश चंद्र सिंह ने साहित्य की विभिन्न विधाओं से सम्बद्ध विचारोत्तेजक समीक्षाएँ भी लिखी हैं, यथा- ‘आत्महत्या के विरुद्ध’, ‘सूर का सामाजिक सोच’, ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की सामाजिक दृष्टि’,’बुढ़ापा और नयी कहानी’ इत्यादि। इनके कुछ आलोचनात्मक निबंध समाज वैज्ञानिक दृष्टि से लिखे गये हैं– ‘वास्तविक सर्वहारा तो हरिजन ही हैं’, ‘देश की गिरावट : कुछ सवाल-जवाब’, ‘हिंदी का मतलब है बदलाव’, ‘गरीबों को डरायें नहीं, भरोसा दें’।
‘जनवादी लेखक संघ का घोषणापत्र’ के संदर्भ में रमेश जी ने अपने मित्र विजय बहादुर जी को पत्र लिखा। इस पत्र में भी उन्होंने जनवादी लेखक संघ के सम्मलेन में पारित उनकी विसंगतियों पर आक्रोशपूर्ण टिप्पणी की है। पत्र व्यक्तिगत न होकर खुला पत्र है, सार्वजनिक है। इसके साथ ही यहाँ हम उस ‘सवाल-जवाब’ का भी उल्लेख करना चाहते हैं, जिसका आयोजन ‘सामयिक वार्ता’ ने 1985 में किया था। विचारणीय विषय था ‘देश की गिरावट’। सामयिक वार्ता ने देश के कुछ प्रसिद्ध हिंदी लेखकों को एक प्रश्नावली भेजी थी। इस प्रश्नावली का रमेश चंद्र सिंह ने सिलसिलेवार उत्तर दिया था। जवाब के रूप में रमेश जी ने गांधीजी से लेकर आचार्य नरेंद्रदेव और ग्राम्शी तक के विचारों को रखा । इस उत्तर में रमेश जी ने हमारे राष्ट्रीय जीवन में गिरावट के सम्बन्ध में साधारण जनता से लेकर बुद्धिजीवियों, नेताओं, राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं तक की मानसिकता को स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
निष्कर्ष के तौर पर यह कहा सकता है कि ‘राजनीति और साहित्य’ के मुद्दों पर डॉ. रमेश चंद्र सिंह आजीवन संकीर्णतावादी दृष्टि से टकराते रहे और अपनी वैचारिक यात्रा में पूँजीवाद और साम्यवाद दोनों की विसंगतियों पर बेबाक ढंग से टिप्पणी करते हुए सामाजवादी दृष्टि का प्रतिपादन किया। रमेश जी ने कविता या कथासाहित्य की रचना तो नहीं की लेकिन रचनात्मक साहित्य के एक दृष्टिसंपन्न मूल्यांकनकर्ता आजीवन बने रहे। राजनीति और साहित्य के दोनों मोर्चे पर वे मुखर बने रहे– एक वस्तुपरक दृष्टि से संपन्न था उनका व्यक्तित्व।